दुनिया वैश्विक आर्थिक वृद्धि के वाहक के रूप में चीन की भूमिका को लेकर इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि अब चीन में आर्थिक मंदी की आशंका अर्थशास्त्रियों, कारोबारियों और विद्वानों को समान रूप से चिंतित कर रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन का कद निरंतर बढ़ता जा रहा है। चीन का 19.9 लाख करोड़ डॉलर का नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वैश्विक जीडीपी का 15 फीसदी है जो इसे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है। विश्व व्यापार में भी इसकी अच्छी खासी हिस्सेदारी है और यह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक तथा दूसरा सबसे बड़ा आयातक है। दुनिया में धातुओं की कुल खपत का 50 फीसदी चीन में होता है। वह तेल का सबसे बड़ा आयातक भी है। अनुमान है कि चीन वैश्विक आर्थिक वृद्धि में 30 फीसदी का हिस्सेदार है। चीन की अर्थव्यवस्था वैश्वीकृत है और वह दुनिया के सभी बड़े बाजारों से जुड़ा हुआ है। उसकी अर्थव्यवस्था और शेष विश्व के साथ उसके आर्थिक तथा वाणिज्यिक अंतर्संबंधों का वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहरा संबंध है।चीन की अर्थव्यवस्था में बीते कुछ समय से धीमापन आ रहा है। 2007-08 के वित्तीय और आर्थिक संकट के बाद वह इकलौता बड़ा देश है जिसने निरंतर 6 फीसदी की वृद्धि दर हासिल की। 2022 में उसके 5.5 फीसदी की वृद्धि हासिल करने की बात कही गयी लेकिन लगता नहीं कि वह 3.5 फीसदी से अधिक वृद्धि हासिल कर पाएगा। यह विगत कई वर्षों की न्यूनतम दर है। इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि चीन की अर्थव्यवस्था में लंबे समय से चला आ रहा ढांचागत असंतुलन सामने आ रहा है। बीते चार दशक में संपत्ति क्षेत्र ही चीन की आर्थिक वृद्धि का वाहक रहा। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी करीब 30 फीसदी रही। परिसंपत्ति बाजार का फाइनैंसिंग मॉडल शुरू से ही टिकाऊ नहीं था। आमतौर पर परिसंपत्ति डेवलपर अपार्टमेंट बनाने के पहले ही उसकी पूरी कीमत वसूल कर लेते हैं। ऐसे में जुटाए गए फंड का इस्तेमाल जमीन खरीदने तथा अन्य गतिविधियों में किया जा सकता है। तब दूसरी परियोजना की बिक्री से संग्रहित राशि का इस्तेमाल पहली परियोजना के निर्माण में किया जा सकता है। लेकिन यह सिलसिला कभी भी बिखर सकता है। चीन में यही हुआ। चीन की सरकार ने परिसंपत्ति क्षेत्र को ठीक करने की कोशिश की जिससे परिसंपत्ति कीमतों में गिरावट आई। इससे बड़ी कंपनियां दिवालिया हो गईं और ऐसे में बड़ी तादाद में खरीदार कर्ज में रह गये जबकि उनके लिए घर नहीं थे। जून 2021 के बाद के 12 महीनों में परिसंपत्ति की बिक्री 22 फीसदी घटी। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार चीन के डेवलपरों ने बीते तीन वर्षों में 66 लाख वर्ग मीटर परिसंपत्ति बनानी शुरू की लेकिन वे इसका आधा ही पूरा कर सके। चीन में परिसंपत्ति का इस्तेमाल बचत के रूप में भी किया जाता है क्योंकि वहां निवेश के ठिकाने कम हैं और जमा दर बेहद कम है। अनुमान के मुताबिक 59 फीसदी चीनी परिवारों ने अचल संपत्ति में निवेश किया है। हाल के वर्षों में पहली बार परिसंपत्ति कीमतों में गिरावट का खपत व्यय पर काफी असर हुआ है। जानकारी के मुताबिक इस वर्ष अप्रैल में खुदरा बिक्री साल दर साल आधार पर 11.1 फीसदी घटी जबकि मई में इसमें 6.7 फीसदी की कमी आई। हालांकि जून में कुछ सुधार हुआ और यह 3.1 फीसदी धनात्मक रही। चीन में मांग कमजोर है इसलिए यही कारण है कि अन्य देशों की तुलना में वहां मुद्रास्फीति भी कम है और 2-2.5 फीसदी के दायरे में है। धीमी अर्थव्यवस्था का एक और संकेत बढ़ती बेरोजगारी में देखा जा सकता है। खासकर युवाओं में। 15 से 24 की आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 20 फीसदी है। चीन की अर्थव्यवस्था राष्ट्रपति शी चिनफिंग की कोविड शून्य नीति के कारण भी प्रभावित है। इसके चलते लॉकडाउन लग रहे हैं और शेष विश्व के साथ चीन का संपर्क प्रभावित हुआ है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस विपरीत आर्थिक माहौल के बीच भूराजनीतिक घटनाक्रम भी विपरीत है। अमेरिका के साथ तनाव बढ़ता जा रहा है। यूक्रेन युद्ध के कारण भी दोनों देशों में अविश्वास बढ़ा है। ताइवान खाड़ी को लेकर उत्पन्न संकट इसका ताजा उदाहरण है। बाद वाला संकट कई वजहों से ज्यादा उल्लेखनीय है। ताइवान खाड़ी जापान और कोरिया से व्यापार और ईंधन प्रवाह के लिए अहम रास्ता है। अगर चीन वहां बार-बार सैन्याभ्यास करता है और नौवहन तथा हवाई सेवाएं बाधित होती हैं तो यह मार्ग बदलना होगा क्योंकि लागत बढ़ेगी और आपूर्ति शृंखला जटिल हो जाएगी। ताइवान चीन समेत कई देशों को उन्नत सेमीकंडक्टर का अहम आपूर्तिकर्ता है। इस सब के बीच वैश्विक उद्योगों को आपूर्ति बाधित होगी। चीन और ताइवान का निवेश और व्यापार का रिश्ता बहुत गहरा है। यह तनाव उस पर असर डालेगा। इस वर्ष चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस भी होने वाली है जहां शी चिनफिंग पांच वर्ष का और कार्यकाल चाहेंगे। यूक्रेन युद्ध और ताइवान संकट को लेकर चीन की प्रतिक्रिया यकीनन उस बैठक में एक अहम कारक होगी। शी चिनफिंग ताइवान मामले पर अमेरिकी दबाव के आगे झुकते नहीं नजर आना चाहेंगे क्योंकि वह चीनी नागरिकों के लिए भावनात्मक मुद्दा है। चीन अपनी महत्त्वाकांक्षी बेल्ट और रोड पहल के क्रियान्वयन में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। महामारी के कारण उत्पन्न बाधा ने कई अन्य साझेदार देशों के आर्थिक कुप्रबंधन को भी उजागर किया तथा संसाधनों की सीमा को भी। इससे तमाम मोर्चों पर दिक्कत आई। श्रीलंका जैसे मामलों ने चीन की प्रतिष्ठा खराब की है कि वह अपने साझेदारों को कर्ज के जाल में फंसाता है। इसके चलते विकासशील देश चीन की विकास सहायता को लेकर बहुत चौकन्ने हो गए हैं। चीन इस पहल को समेट रहा है और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में भारी अधोसंरचना विकास के बजाय उन परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर रहा है जिनके भूराजनीतिक लाभ सामने आएं। भारत के लिए इन बातों का क्या मतलब है? पहला, अमेरिका-चीन विवाद बढ़ने के साथ चीन भारत और अमेरिका के बीच किसी भी तरह की सुरक्षा साझेदारी को लेकर अधिक चिंतित रहेगा और भारतीय सीमाओं पर दबाव भी बढ़ा सकता है। दूसरा, हमारे पड़ोस में चीन का प्रभुत्व कम हो सकता है जिससे भारत के लिए यह अवसर बन सकता है कि भारत इस उपमहाद्वीप में अपना खोया हुआ प्रभाव दोबारा हासिल कर सके। तीसरा, चीन की जीडीपी वृद्धि में लगातार गिरावट वैश्विक अर्थव्यवस्था में आ रहे धीमेपन पर असर डालेगी और यह भारत की बाह्य आर्थिक संभावनाओं के लिए भी कोई अच्छी बात नहीं होगी। इन विरोधाभासी घटनाओं को संतुलित करना भारत की विदेश नीति के सामने एक जटिल चुनौती पेश करेगा। (लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
