भारतीय राजनीति में शायद ही कोई नीरस अवसर आता हो। बुधवार को नीतीश कुमार ने आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। एक दिन पहले यानी मंगलवार को ही नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से नाता तोड़ने और महागठबंधन के साथ नयी सरकार बनाने का निर्णय लिया और अपने पद से इस्तीफा दिया था। महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस तथा कुछ अन्य छोटे दल शामिल हैं। बिहार विधानसभा के आंकड़ों को देखें तो नीतीश कुमार को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, आज के राजनीतिक माहौल में सदन का संख्याबल बहुत जल्दी बदल सकता है। हाल ही में हमने कई राज्यों में ऐसा देखा है और महाराष्ट्र इसका ताजा उदाहरण है। कागज पर मजबूत नजर आने वाले राजनीतिक गठजोड़ अत्यधिक कमजोर साबित हुए हैं। ऐसे में असल सवाल यह है कि शासन-प्रशासन पर क्या असर पड़ता है?हालांकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाइटेड ने 2020 का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा था लेकिन गठबंधन की असहजता बहुत पहले से नजर आने लगी थी। चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी जो केंद्र में राजग का हिस्सा थी, उसने उन सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने का निर्णय लिया जहां जनता दल यूनाइटेड चुनाव लड़ रहा था। एक अनुमान के मुताबिक इस घटना ने कम से कम दो दर्जन सीटों पर नतीजों को प्रभावित किया और जनता दल यूनाइटेड की सीटें कम हुईं। हालांकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए लेकिन चूंकि सदन में भाजपा के पास अधिक सीटें थीं इसलिए नीतीश कुमार के लिए यह सफर आसान नहीं रहा। यह आरोप भी लगाया गया कि भाजपा जनता दल यूनाइटेड को तोड़ने की कोशिश कर रही थी। हालांकि भाजपा ने इस आरोप को खारिज कर दिया।शिवसेना जैसी स्थिति से बचने के लिए जनता दल यूनाइटेड ने गठबंधन से बाहर जाने का निर्णय लिया। जनता दल यूनाइटेड ने भले ही अपनी दृष्टि से सबसे बेहतर निर्णय लिया हो लेकिन राजद के साथ काम करना आसान नहीं साबित होने वाला क्योंकि सदन में उसके सदस्यों की तादाद अधिक है। इस बीच प्रदेश की प्राथमिकताओं में तब्दीली आ सकती है और यह मानने की पर्याप्त वजह है कि कुछ मौजूदा परियोजनाएं और कार्यक्रम प्रभावित होंगे। इसके अलावा राजनीतिक दलों के लिए अस्तित्व के संकट के साथ शासन पर दृष्टि बनाए रखना आसान नहीं होगा। राष्ट्रीय स्तर पर बिहार के बदलाव को व्यापक विपक्ष आशा की किरण के रूप में देख रहा है। कुछ टीकाकारों ने कहा है कि नीतीश कुमार 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष के सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में उभर सकते हैं। हालांकि राजनीति में सैद्धांतिक तौर पर कुछ भी संभव है लेकिन शायद इस बार ऐसा न हो। इसकी कई वजह हैं। उदाहरण के लिए नीतीश कुमार राजग से बाहर जरूर चले गए हैं लेकिन उन्होंने ऐसा किसी मतभेद की वजह से नहीं बल्कि अपने राजनीतिक अस्तित्व के बचाव के लिए किया है। इसके अलावा राष्ट्रीय संदर्भ में जनता दल यूनाइटेड एक छोटा दल है और शायद वह पर्याप्त सीटें नहीं जिता पाए। इससे भी अहम बात यह है कि आज जो हालात हैं उन्हें देखकर लगता नहीं है कि एकजुट विपक्ष कोई उम्मीदवार प्रस्तुत कर भी पाएगा। जबकि उसके लिए ऐसा करना जरूरी है। 2014 के बाद से लोकसभा चुनाव की प्रकृति पूरी तरह बदल गई है। इसका असर बिहार में उसकी सीटों की संख्या पर पड़ सकता है लेकिन इस राजनीतिक बदलाव के कारण भाजपा को होने वाली दिक्कतें बिहार तक ही सीमित रहेंगी। भाजपा अतीत में नीतीश कुमार के सामने कोई चेहरा पेश करने में नाकाम रही है और पार्टी के सामने अब भी यह चुनौती बनी रहेगी।
