क्या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के खिलाफ विरोध की शुरुआत दिल्ली से होने वाली है या फिर राज्य की राजधानियों से इसका नेतृत्व किया जाना है? क्या राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाली और राज्यों में कम प्रभाव जैसी चुनौतियों से जूझने वाली कांग्रेस, राजग के विरोध में खड़ी ताकतों का नेतृत्व करने के लिए एक बड़ी ताकत बनने जा रही है? क्या ऐसा भी संभव है कि तृणमूल कांग्रेस (तृणमूल), आम आदमी पार्टी (आप) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) जैसे क्षेत्रीय दल इसका नेतृत्व करेंगे? वर्ष 2024 के आम चुनावों के नजदीक आने के साथ ही सभी विपक्षी दल अपनी रणनीति में फेरबदल कर रहे हैं। कुछ मामलों में वे पहले के मुकाबले ज्यादा आक्रामक हुए हैं। पिछले सप्ताह कांग्रेस का एक चेहरा राजधानी में नजर आ रहा था जिसे पहले नहीं देखा गया था। पार्टी ने सरकार की नीतियों के साथ अपनी असहमति दिखाने के लिए पहले भी संसद की कार्यवाही बाधित की है। लेकिन इस बार महंगाई के मुद्दे पर संसद में काले रंग के कपड़े पहन कर पार्टी के सांसदों ने खुद को प्रदर्शनकारियों की तरह पेश किया और उन्होंने राज्य इकाइयों को भी राज्य की राजधानियों में जुलूस निकालने के लिए कहा ताकि यह संदेश दिया जा सके कि पार्टी निष्क्रिय नहीं है।ये सारी कवायद और प्रदर्शन, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा जारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व यानी गांधी परिवार की कथित हवाला लेन-देन से जुड़ी जांच की पृष्ठभूमि की वजह से की जा रही थी। पार्टी ने इस वर्ष की शुरुआत में उदयपुर में आयोजित चिंतन शिविर में हुई चर्चा के बाद भाजपा/राजग के खिलाफ अपना विरोध बढ़ाने का फैसला किया। उस मौके पर पार्टी ने अपनी यह रणनीति तय की थी कि कांग्रेस को अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए और क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू पार्टी नहीं बननी चाहिए जो अब राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आने की महत्त्वाकांक्षा रखते हैं।हालांकि केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि अन्य विपक्षी क्षेत्रीय दल भी अपनी रणनीति बना रहे हैं। तृणमूल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पिछले हफ्ते चार दिनों तक दिल्ली में थीं ताकि वे अपनी पार्टी के प्रमुख मंत्री पार्थ चटर्जी के धनशोधन एवं भ्रष्टाचार के मामले में हिरासत में लिए जाने के बाद बने मौजूदा हालात का जायजा ले सकें। हालांकि पार्टी ने उनका बचाव नहीं किया है। तृणमूल ने कांग्रेस की उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा का समर्थन करने के बजाय उपराष्ट्रपति के चुनाव में इस आधार पर भाग नहीं लिया कि पार्टी से परामर्श नहीं किया गया था। पूरे दक्षिण भारत में, क्षेत्रीय दल अपने पुराने सहयोगी दलों को छोड़कर नए दलों से दोस्ती कर रहे हैं। टीआरएस ने न केवल अल्वा का समर्थन किया बल्कि नीति आयोग की विशेष बैठक का भी बहिष्कार करते हुए आरोप लगाया कि इसमें हिस्सा लेना ‘उपयोगी नहीं’ है क्योंकि केंद्र ने तेलंगाना के लिए विशेष वित्तीय सहायता की मांग नजरअंदाज कर दी है। आप ने भी अल्वा का समर्थन किया। हालांकि, विशेषज्ञ और नेता इस बात पर बंटे हुए नजर आते हैं कि राजग या भाजपा को वास्तव में कांग्रेस या क्षेत्रीय दल कौन चुनौती देने जा रहा है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में भारतीय राजनीति पर शोध करने वाले असीम अली कहते हैं, ‘हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति के विरोध में उप-राष्ट्रीय, भाषाई-आधारित राजनीतिक दल ही अपनी विश्वसनीय और अपनी अस्मिता आधारित पहचान के बलबूते उतर सकते हैं। पूर्वी राज्यों में भाजपा ने अपनी व्यापक जगह कांग्रेस या वामदलों को हटाकर बनाई है, न कि क्षेत्रीय दलों की जगह का अतिक्रमण करके। ओडिशा में बीजू जनता दल या बंगाल में तृणमूल जैसे दलों ने अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के बलबूते भाजपा को बुरी तरह हराया है। इसी तरह दक्षिण भारत में तेलंगाना एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा के लिए अपना दायरा बढ़ाने की व्यापक संभावनाएं हैं। लेकिन पार्टी ने यहां पहले कांग्रेस की जड़ें कमजोर करने की कोशिश की और इसने क्षेत्रीय दल टीआरएस को फिलहाल चुनौती न देने के बारे में सोचा है। ’उनका कहना है कि जब तक कांग्रेस खुद में बदलाव नहीं लाती है तब तक भाजपा को चुनौती देने की उम्मीद करना भी बेमानी है। उनका कहना है, ‘वर्ष 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने 186 सीटों में से 171 ऐसी सीटें गंवा दीं जहां भाजपा के साथ इसका लगभग बराबरी का मुकाबला था। ऐसे में विपक्ष की सफलता की उम्मीद इस बात पर निर्भर करती है कि कांग्रेस चुनाव के मोर्चे पर कैसे सुधार करती है।á’फिलाडेल्फिया में टेंपल यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर एडम जिगफेल्ड का कहना है, ‘भाजपा और कांग्रेस भले ही इसे पसंद न करें जब तक क्षेत्रीय दल कमजोर नहीं होते हैं तब तक गठबंधन की राजनीति यहां बरकरार रहेगी।á’आंध्र प्रदेश में, तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) ने अपनी कमजोर स्थिति (लोक सभा में तीन सांसद, राज्य सभा में एक और आंध्र प्रदेश के विधानसभा के 175 सदस्यों में से केवल 23) के बावजूद जन सेना पार्टी के साथ करार किया है जो भाजपा का एक गठबंधन सहयोगी दल है। अगर चंद्रबाबू नायडू भाजपा के करीब होते हैं तो वह राज्य में अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी, सत्तारूढ़ युवजन श्रमिक रायतु कांग्रेस (वाईएसआरसी) को भाजपा से अलग कर सकेंगे। ऐसे में कई क्षेत्रीय दलों के लिए, भाजपा एक राजनीतिक धुरी बन गई है।वहीं कांग्रेस के साथ ऐसा कोई विकल्प नहीं दिखता है। पिछले हफ्ते कीमतों में वृद्धि, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और अन्य आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस आक्रामक होती नजर आई और इन्हीं मुद्दों जिसने राज्य स्तर के दिग्गज नेताओं की क्षेत्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप ही पर्याप्त व्यापक मंच तैयार किया है। पार्टी इस तरह की विचारधारा को बल देने के लिए विभिन्न धाराओं वाले अर्थशास्त्रियों के साथ बैठकें कर रही है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता सवाल करते हैं, ‘हम तेलंगाना के मुद्दों पर चंद्रशेखर राव को चुनौती नहीं दे रहे हैं। हम उनसे जीएसटी, रोजगार और वित्तीय संकट जैसी समस्याओं पर हमारा साथ देने के लिए कह रहे हैं जिनका सामना राज्य सरकारें भी कर रही हैं। केंद्र सरकार मुफ्त भोजन के रूप में ‘रेवड़ीá (मुफ्त) दे सकती है लेकिन राज्य सरकारों को ऐसा नहीं करना चाहिए। क्या इसका कोई औचित्य है?सड़कों पर उतरने का कांग्रेस का नया उत्साह क्या गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनावों में अपना रंग दिखाएगा जिन राज्यों में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। इसका पता तभी चल पाएगा जब कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के पास जाएगी या ये राजनीतिक दल कांग्रेस से जुड़ेंगे।
