इस मॉनसून के दौरान जब बारिश का बेशकीमती पानी नालियों में बहे तो थोड़ा अवसर निकालकर जल प्रबंधन के बारे में हम अपने ज्ञान को संक्षेप में दोहराएं और देखें कि जलवायु के जोखिम की शिकार दुनिया में इसका क्या अर्थ है? दो ऐसे तथ्य हैं जिनका खंडन नहीं किया जा सकता है: पहला, पानी स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक वृद्धि का एक प्रमुख निर्धारक है। दूसरा, जरूरी नहीं कि पानी को लेकर जंग के हालात बनें लेकिन अगर हमने जल संसाधन का समझदारीपूर्वक प्रबंधन नहीं किया तो ऐसा अवश्य होगा। इसके लिए हमें जल प्रबंधन की नीति और उसके व्यवहार को दुरुस्त करना होगा। इस बीच अच्छी खबर यह है कि पानी को लेकर लोगों की जागरूकता और समझ बढ़ी है। बीते दशक के दौरान देश ने जल प्रबंधन को लेकर कुछ अहम सबक सीखे हैं। सन 1980 के दशक के अंत तक जल प्रबंधन काफी हद तक सिंचाई परियोजनाओं तक सीमित था। इसके तहत बांध और नहरें बनाकर पानी का भंडारण किया जाता था और उन्हें दूरदराज इलाकों तक पहुंचाया जाता था। इसके बाद सन 1980 के दशक के आखिर का बड़ा सूखा पड़ा। यह स्पष्ट हो गया कि केवल बड़ी परियोजनाओं के जरिये एकत्रित जलापूर्ति की मदद से जल संरक्षण का काम नहीं किया जा सकता है। उसी समय सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट (सीएसई) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसका शीर्षक था: ‘डाइंग विजडम।’ इस रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे देश के विभिन्न इलाकों में पारंपरिक तौर तरीके अपनाकर वर्षा जल का संरक्षण किया जा सकता था। इसके लिए नारा दिया गया था: चूंकि वर्षा विकेंद्रीकृत है इसलिए पानी की मांग भी विकेंद्रीकृत है। ऐसे में जब भी, जहां भी बारिश हो, उसे संरक्षित करें। इसके बाद नीति में आमूलचूल बदलाव आया। सन 1990 के दशक के आखिर के सूखों के दौरान राज्यों ने तालाब बनाकर, गड्ढे खोदकर और जल धाराओं पर चक बांध बनाकर वर्षा जल के संरक्षण की भारी भरकम योजना की शुरुआत की। सन 2000 के दशक के मध्य तक ये सारे प्रयास महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में शामिल हो गए तथा ग्रामीण श्रमिकों की मदद से जल संरक्षण ढांचे बनाये जाने लगे। उस समय तक यह समझा जाने लगा था कि भूजल जिसे एक ‘मामूली’ संसाधन समझा जाता था वह दरअसल पीने के पानी और सिंचाई दोनों ही नजरिये से पानी का काफी ‘अहम’ संसाधन है। यह बात समझी जा चुकी थी कि देश की खेती का 50 फीसदी से अधिक हिस्सा वर्षा जल पर आधारित है, इसलिए जल संरक्षण और वर्षा जल संरक्षण जरूरी था ताकि कृषि उत्पादकता और सबकी बेहतरी सुनिश्चित की जा सके। वर्षा जल संरक्षण के तहत हर कुएं और हर जल संरचना को रीचार्ज करना होगा। सन 2010 के दशक में शहरी क्षेत्रों में सूखे ने दस्तक दी। यह समझ में आया कि जलापूर्ति का समायोजन तो चुनौती का केवल एक हिस्सा था क्योंकि शहर दूरदराज से लाए जा रहे पानी पर निर्भर होते जा रहे थे। इस पानी को पंप से भरने और पाइप से दूर तक पहुंचाने में वितरण संबंधी नुकसान होते थे और बिजली की बढ़ती लागत का भी खतरा था। इसके चलते उपलब्ध जल महंगा हो रहा था और इसकी आपूर्ति पर भी असर पड़ रहा था। जलापूर्ति समाप्त होने लगी तो लोगों ने भूजल का रुख किया लेकिन उन्होंने पानी को सतह के नीचे पहुंचाने यानी रीचार्ज करने पर ध्यान नहीं दिया। तालाब और जलाशय आदि को समाप्त कर दिया। इन सब कारणों से भूजल स्तर लगातार कम होता गया। यह वह दशक था जब पानी की आपूर्ति प्रदूषण से संबद्ध थी। ज्यादा जलापूर्ति का मतलब था पानी की ज्यादा बरबादी। समुचित उपचार के अभाव में इससे नदियां तथा अन्य जन स्रोत प्रदूषित हो रहे थे। इससे उपलब्ध जल भी खराब होने लगा और उपलब्ध पेयजल को साफ करने की लागत बढ़ने लगी। कुछ वर्ष बाद शोध से पता चला कि शहरी निवासियों में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो भूमिगत नालियों से जुड़े ही नहीं थे। यह व्यवस्था तैयार करने में पूंजी और संसाधन दोनों लगते हैं। इसके बजाय वे गंदगी के स्थान विशेष पर निपटान की व्यवस्था रखते थे। इसके तहत घरों के शौचालय सेप्टिक टैंक से जुड़े रहे थे या कई बार तो खुली नालियों में गंदा बहा दिया जाता था। शहरों की सफाई की प्रणाली में सीवेज उपचार की अधोसंरचना शामिल ही नहीं थी। ऐसे में प्रदूषण फैलता था और नदियां भी इससे अछूती नहीं थीं। इस बीच नये हल भी सामने आए। चूंकि सस्ती जलापूर्ति आवश्यक थी इसलिए शहरों को वितरण पाइपलाइन का आकार छोटा करने की आवश्यकता थी। ऐसे में तालाब, टैंक और वर्षा जल संरक्षण ढांचे जैसी स्थानीय जल प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक था। उस स्थिति में अगर शहरों को सभी के लिए सस्ती दर पर स्वच्छता मुहैया करानी थी और बेकार होने वाले पानी को रियायती ढंग से उपचारित करना था तो इसके लिए आवश्यक था कि कचरा एकत्रित करने की पुरानी व्यवस्था में तब्दीली लायी जाए और हर घर से कचरे को एकत्रित करके उपचार संयंत्र तक पहुंचाया जाए और उसे उपचारित किया जाए। लेकिन सबसे अहम बात यह थी कि हमने एक सबक सीख लिया था। वह यह कि अगर इस शहरी-औद्योगिक पानी का उपचार कर लिया जाए तो पानी बरबाद नहीं होगा और हमारी नदियां भी नहीं सूखेंगी। हमें पानी के इस्तेमाल को भी कम करना होगा तथा पानी की हर बूंद का सही इस्तेमाल करना होगा। इसका अर्थ यह है कि पानी की किफायत वाली सिंचाई से लेकर कम पानी खपत वाले उपकरणों के इस्तेमाल तथा भोजन व्यवहार में ऐसे अनाज को शामिल करना होगा जो जिन्हें तैयार होने में कम पानी लगता हो। इस दशक में हम अब तक सीखे सारे सबक आजमा सकते हैं क्योंकि जलवायु परिवर्तन का असर बढ़ने वाला है। हमें भी स्थानीय जल प्रणालियों में निवेश बढ़ाना होगा ताकि वर्षा जल का संरक्षण हो और हम सूखे का मुकाबला करने के लिए तैयार हो सकें। हमें अपने शहरों में झीलों और तालाबों पर ध्यान देना होगा क्योंकि वे भी जल भंडारण करते हैं। हमें अपने वनों और हरियाली को बचाना होगा क्योंकि वे भूजल रीचार्ज में मददगार होते हैं। जल संकट के दौर में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सीवेज का न केवल उपचार हो बल्कि उसका पानी दोबारा इस्तेमाल हो सके। हम जिन तालाबों और टैंकों का इस्तेमाल करते हैं उनकी मदद से उपचारित जल को दोबारा भूजल रीचार्ज के लिए अपनाया जा सकता है। ऐसा करके ही हम जरूरी जल सुरक्षा हासिल कर सकते हैं।
