कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अब तक कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों में नेतृत्व को लेकर उत्पन्न विवाद हल करने के लिए जो भी हस्तक्षेप किए हैं उनका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। पंजाब में नवजोत सिद्धू को प्रदेश पर थोपने के कारण कांग्रेस बंट गई और आम आदमी पार्टी (आप) को उस प्रदेश में अपनी जड़ें जमाने का अवसर मिल गया जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मुकाबले में भी नहीं थी और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) की छवि पहले से खराब चल रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस पंजाब में जीता-जिताया विधानसभा चुनाव हार गई। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच असहजता का माहौल बना हुआ है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और बगावत करने वाले सचिन पायलट के बीच का तनाव केवल इसलिए स्थगित है कि उन्हें राहुल और प्रियंका गांधी की ओर से आश्वस्त किया गया है कि वे सही हैं। जाहिर है इस बात से गहलोत नाराज हैं। कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस के 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी की अच्छी संभावना है। पार्टी के नेता प्रदेश में राहुल गांधी के कदमों पर सतर्कता से निगाह बनाए हुए हैं। पिछले दिनों गांधी दावणगेरे पहुंचे थे जहां पार्टी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया का 75वां जन्मदिन मनाया गया। प्रदेश में पार्टी के एक अन्य बड़े नेता डी के शिवकुमार के समर्थकों ने इस पर जरूर गौर किया। कर्नाटक यात्रा के दौरान गांधी ने प्रदेश कांग्रेस की राजनीतिक मामलों की समिति के साथ भी बैठक की। बैठक के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव के सी वेणुगोपाल ने अस्वाभाविक खुलेपन के साथ कहा, ‘समिति ने पार्टी संगठन और नीतिगत मसलों पर चर्चा की। बैठक में 2023 के विधानसभा चुनावों की तैयारी पर भी चर्चा हुई। प्रदेश कांग्रेस कमेटी निरंतर बैठक करेगी और पार्टी के हित में सामूहिक निर्णय लेगी। राहुल गांधी ने पार्टी के नेताओं से अपील की और कहा कि वे कर्नाटक और केंद्र की भाजपा सरकार के कुशासन के खिलाफ आक्रामक ढंग से और एकजुट होकर काम करें।’ यहां दो शब्दों पर जोर था ‘सामूहिक’ और ‘एकजुट’। कर्नाटक में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शिवकुमार और सिद्धरमैया में नहीं पटती। दोनों में कोई समानता नहीं है। सिद्धरमैया ने अपना करियर जनता दल-जनता दल सेक्युलर से शुरू किया और वह कांग्रेस में तब आए जब जनता दल सेक्युलर के नेता एच डी देवेगौड़ा ने अपने बेटों के पक्ष में उनकी अनदेखी शुरू कर दी। जबकि शिवकुमार हमेशा से कांग्रेस में हैं और सन 1980 के दशक में कॉलेज के दिनों में युवा कांग्रेस में शामिल हुए और यह लंबा सफर तय किया। दोनों नेताओं में एक ही बात समान है और वह है देवेगौड़ा परिवार को लेकर उनकी नाराजगी। शिवकुमार देवेगौड़ा की तरह ही वोक्कालिंगा समुदाय से आते हैं और उन्होंने सन 1985 में महज 25 वर्ष की अवस्था में सथनूर से पूर्व प्रधानमंत्री को चुनौती दी थी। वह बहुत मामूली अंतर से चुनाव हार गए और यह उनके लिए बहुत बड़ी कामयाबी थी क्योंकि देवेगौड़ा उस समय रामकृष्ण हेगड़े के मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री थे। लेकिन देवेगौड़ा ने दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था और उन्होंने सथनूर से इस्तीफा दे दिया। उपचुनाव में शिवकुमार को जीत हासिल हुई और देवेगौड़ा परिवार के साथ उनकी लड़ाई की शुरुआत हुई। वह लड़ाई बदलते समय में बदली जरूर लेकिन आज भी बरकरार है। जब शिवकुमार ने 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए अपना हलफनामा दिया था तो उन्होंने तथा उनकी पत्नी ने 730 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की। उन्होंने अपना पेशा समाजसेवी बताया। वह कुछ भी लिख सकते थे लेकिन दक्षिण कर्नाटक में सत्ता जमीन और जाति से जुड़ी हुई है। इसके विपरीत सिद्धरमैया कुरुबा (गड़रिया) समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और ग्रामीण कर्नाटक में उनकी गहरी पकड़ है। उनके भीतर शहरी क्षेत्रों को लेकर एक किस्म का पूर्वग्रह है जिसे वह छिपाने की कोशिश भी नहीं करते। वह उनके युवा दिनों की पहचान है। उन्हें मजबूत किसान लॉबीज का भी शुरुआत से संरक्षण मिला है जिसमें कर्नाटक रैयत संघ के एमडी नंजुदास्वामी जैसे नेताओं का साथ भी मिला। हालांकि वह पार्टी में अपेक्षाकृत नए थे लेकिन इसके बावजूद 2013 में उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया। इस दौरान एसएम कृष्णा जैसे वरिष्ठ और परमेश्वरा जैसे दलित नेताओं के दावों की अनदेखी की गयी। सिद्धरमैया भले ही 75 वर्ष के हो चुके हैं लेकिन वह सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने का कोई अवसर गंवाते नहीं हैं। सदन में जब वह अपनी बात कहते हैं तो कई लोग मुस्करा उठते हैं। शिवकुमार ने राजनीतिक पूंजी कमाने के लिए व्यक्तिगत धन का इस्तेमाल किया है। ये किस्से सबको पता हैं। सन 2002 की घटना जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता स्वर्गीय विलासराव देशमुख अविश्वास प्रस्ताव के कारण अपनी सरकार लगभग गंवा ही चुके थे, तब कर्नाटक के तत्कालीन शहरी विकास मंत्री डी के शिवकुमार ने विधायकों को इकठ्ठा किया और उन्हें ईगलटन रिजॉर्ट में रुकवाया। शिवकुमार मतदान के दिन उन्हें अपने साथ ही दिल्ली ले गए। अहमद पटेल 2017 में गुजरात से राज्य सभा सीट इसलिए जीत सके कि शिवकुमार ने सफलतापूर्वक गुजरात के 44 विधायकों को सुरक्षित रखा। बाद में उन्होंने हैदराबाद में अपने कारोबारी रिश्तों का इस्तेमाल करते हुए विधायकों को बेंगलूरु से हैदराबाद के एक रिजॉर्ट में पहुंचाया और मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव से कहा कि उन्हें सुरक्षित रखा जाए। इस प्रकार 224 में से 104 विधायक होने तथा भाजपा के सबसे बड़ा दल होने के बावजूद येदियुरप्पा को एचडी कुमारस्वामी और कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी। इस घटनाक्रम में शिवकुमार ने अमित शाह को पीछे छोड़ा। अब जबकि भाजपा में बेंगलूरु तथा दिल्ली दोनों जगह से सत्ता संघर्ष छिड़ा हुआ है तथा मुख्यमंत्री पर उनकी ही पार्टी के लोग निशाना साध रहे हैं कि वे भाजपा कार्यकर्ताओं को सुरक्षित रखने के लिए कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं तो कांग्रेस के पास सत्ता में वापसी का अवसर है। इसके लिए पार्टी को एकजुट होकर काम करना होगा और राहुल गांधी कोई काम अचानक नहीं करते।
