देश में कोयले के मुद्दे पर पुनर्विचार की दरकार | |
भारत की ज्यादातर निजी कोयला खदानों का वर्ष 1971 से 1973 के बीच राष्ट्रीयकरण कर दिया गया | प्रसेनजित दत्ता / नई दिल्ली 08 05, 2022 | | | | |
सरकार को यह महसूस करने की जरूरत है कि कोयले की मांग की अधिक नहीं तो कम से कम तीन दशक तक अनदेखी नहीं की जा सकती है। बता रहे हैं प्रसेनजित दत्ता
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित भारत के भंडार के मुताबिक देश में कुल आकलित भूगर्भीय कोयला संसाधन 35,212.59 करोड़ टन (या 35.2 अरब टन) है। इस तरह भारत उन देशों में से एक है, जहां कोयले के सबसे अधिक भंडार हैं।
फिर भी देश को बार-बार कोयला आपूर्ति के संकट से जूझना पड़ता है, इसलिए ताप विद्युत संयंत्रों को चालू रखने के लिए कोयला आयात की जरूरत होती है। खबरों के मुताबिक इस समय भी हम ऐसे ही एक संकट से गुजर रहे हैं और महंगे कोयले का आयात कर रहे हैं। इस वजह से हमारे ताप विद्युत संयंत्रों का अर्थशास्त्र गड़बड़ा गया है। रूस-यूक्रेन युद्ध और मांग-आपूर्ति से संबंधित अन्य दिक्कतों के कारण इस समय कोयले के वैश्विक दाम ऊंचे बने हुए हैं।
भारत के 282 अरब टन से अधिक के भंडार में ज्यादातर तुलनात्मक रूप से कम ऊर्जा देने वाला ताप या गैर-कोकिंग कोयला शामिल है। देश के ज्यादातर ताप विद्युत संयंत्रों में इसी कोयले का इस्तेमाल होता है। देश में उच्च गुणवत्ता के कोकिंग कोयले के कम भंडार हैं, जिसका इस्तेमाल आम तौर पर धातु उद्योग में होता है। ऐसे में इस उद्योग की कोकिंग कोयले के आयात की जरूरत समझ में आती है। लेकिन ताप विद्युत संयंत्रों के कोयला आयात करने की जरूरत कम समझ में आती है क्योंकि इन्हें ईंधन के रूप में घरेलू कोयले के उपयोग के हिसाब से बनाया गया है। हालांकि इस समय ताप विद्युत संयंत्र कोयले का आयात कर रहे हैं।
ताप विद्युत कोयले की घरेलू मांग पूरी करने में हमारी नाकामी की बहुत सी वजह गिनाई जाती हैं। इनमें कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) की अकुशलता, लगातार नकदी की किल्लत से जूझतीं वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) और खराब लॉजिस्टिक योजना शामिल हैं। डिस्कॉम की नकदी किल्लत के कारण बिजली उत्पादकों को भुगतान में देरी होती है और इससे वे कोल इंडिया को भुगतान में देरी करते हैं। खराब लॉजिस्टिक योजना से खदानों के बाहर कोयला पड़ा रहता है मगर बिजली संयंत्रों में नहीं पहुंच पाता। ये सभी वैध कारण हैं, लेकिन इनमें एक बड़ा कारण शामिल नहीं है। भारत के अपनी ताप कोयले की मांग लगातार पूरी नहीं कर पाने की सबसे अहम वजह यह है कि नीति निर्माता कोयला क्षेत्र को लेकर लंबी अवधि की नीति अपनाने में नाकाम रहे हैं।
भारत की ज्यादातर निजी कोयला खदानों का वर्ष 1971 से 1973 के बीच राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। इस कदम के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास अपनी समाजवादी विचारधारा के अलावा भी अन्य कुछ वैध तर्क थे। बहुत सी निजी खदानें खराब तरीके से चल रही थीं और उनमें कई गंभीर दुर्घटनाएं हो चुकी थीं। निजी कोयला कंपनियां कोयला खनिकों की सुरक्षा पर सबसे कम ध्यान देती थीं। इसके अलावा उनके पास संसाधनों और कोयला खनन की कुशलता एवं उत्पादन सुधारने में रुचि का अभाव था। इस राष्ट्रीयकरण के मिले-जुले नतीजे रहे। दुर्घटनाओं में कमी आई, लेकिन कोल इंडिया का एकाधिकार पनपने से मांग से कम उत्पादन की समस्या का समाधान नहीं हुआ।
जब 1991 से अर्थव्यवस्था खुलनी शुरू हुई तो दुर्भाग्य से कोयले के मुद्दे के समाधान को प्राथमिकता सूची में ऊपर जगह नहीं मिली। निजी भागीदारी सुनिश्चित करने के छिटपुट प्रयासों से काफी विवाद पैदा हुआ और इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय की नजर भी टेढ़ी हो गई। पिछले कुछ साल में नए सिरे से कुछ प्रयास किए गए हैं। अब पारदर्शी कोयला नीलामी हो रही है। कोल इंडिया ने अपना उत्पादन बढ़ाया है, लेकिन वह मांग में बढ़ोतरी की रफ्तार से उत्पादन नहीं बढ़ा पा रही है। भारत के मांग-आपूर्ति के गणित में निजी क्षेत्र की कोयला खदानें की हिस्सेदारी अभी मामूली है।
इसके लिए दो समस्याएं-एक पुरानी और एक हाल में पैदा हुई, मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। पुरानी समस्या नकदी प्रवाह का मुद्दा है। बहुत सी राज्य डिस्कॉम पर बिजली उत्पादक इकाइयों की मोटी राशि बकाया है। इससे बिजली उत्पादकों की कोल इंडिया को समय पर भुगतान की क्षमता प्रभावित हुई है। केंद्र सरकार ने पिछले कुछ समय के दौरान बहुत से प्रयास किए हैं, लेकिन इस समस्या का कोई समाधान नहीं हो पाया है क्योंकि कुछ राज्य कड़े फैसले लेना ही नहीं चाहते हैं।
दूसरा मुद्दा पर्यावरण से जुड़ा है। केंद्र सरकार नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन दे रही हैं। ऐसे में उसने ताप विद्युत क्षेत्र को लेकर आंख मूंद ली हैं। हर कोई जलवायु परिवर्तन के लिए कोयला उत्सर्जन को सबसे बड़ा कारण मानता है। सरकार को यह महसूस करने की जरूरत है कि कोयले की मांग की अगर अधिक नहीं तो कम से कम तीन दशक तक अनदेखी नहीं की जा सकती है। इसके अलावा घरेलू कोयले के हिसाब से बनाए गए ताप विद्युत संयंत्रों की जरूरत पूरी करने के लिए हमारे कोयलों भंडारों का इस्तेमाल करने के बजाय आयात करने का ज्यादा तुक नहीं है।
कोयला उत्सर्जन घटाने के तरीके हैं। इनमें कोयला द्रवीकरण और कार्बन कैप्चर, स्टोरेज ऐंड यूटिलाइजेशन (सीसीयूएस) तकनीक शामिल हैं। चीन, इंडोनेशिया और अन्य बहुत से देश इन तकनीकों पर काम कर रहे हैं। भारत ने शुरुआत की है मगर यह सुस्त है। भारत को इस हिसाब से योजना बनाने की जरूरत है कि कोयला कम से कम तीन दशक तक ताप बिजली उत्पादन का मुख्य आधार रहेगा और फिर उसे उत्सर्जन कम से कम रखते हुए घरेलू कोयला भंडार के इस्तेमाल के समाधानों के बारे में विचार करना चाहिए। देश को कार्बन कैप्टर, स्टोरेज और कोयला द्रवीकरण तकनीकों के शोध एवं विकास को प्रोत्साहन देने और ऐसी और तकनीक खोजने की जरूरत है। इसका फायदा यह होगा कि जब कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के दाम बहुत अधिक होंगे तो घरेलू खदानों के कोयला द्रवीकरण से मदद मिल सकती है और यह गैस का एक विकल्प बन सकता है।
केंद्र सरकार को उन राज्यों के साथ भी बातचीत करने की जरूरत है, जिन्होंने अपनी बिजली वितरण समस्याओं का एक उचित समाधान तलाशने में अभी तक ज्यादा प्रगति नहीं की है। वस्तु एवं सेवा कर ने दिखाया है कि केंद्र और राज्य एक मंच पर आकर जटिल कर मुद्दों का समाधान कर सकते हैं। बिजली उत्पादन के लिए भी ऐसा कोई तरीका नहीं अपनाए जा सकने की कोई वजह नहीं है। हालांकि इस मुख्य बिंदु को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किसी आंशिक या त्वरित समाधान की नहीं बल्कि लंबी अवधि की व्यापक योजना बनाने जरूरत है।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)
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