हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर आधारित तीन आलेखों की शृंखला के दूसरे आलेख में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के पुराने द्वंद्व की नयी परिभाषाओं तथा आगे की राह को लेकर चर्चा हुई थी और हमने एक सवाल उठाया था। क्या जो धर्म के आधार पर विभाजित हैं, राजनीति उन्हें एकजुट कर सकती है? यह प्रश्न हमारे उस केंद्रीय तर्क से उभरा कि सन 1989 में विभिन्न राज्यों में प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में कांग्रेस के पराभव के बाद भारतीय राजनीति में शक्ति दो प्रतिस्पर्धी विचारों के बीच आवाजाही करती रही है। एक तो यह कि आप जाति की मदद से उन लोगों को बांट सकते हैं जिन्हें धर्म जोड़ता है जबकि दूसरा यह कि जाति के कारण बंटे हुए लोगों को धर्म एकजुट कर सकता है। करीब 25 वर्ष तक जाति का दबदबा रहा। परंतु 2014 में धर्म देश के बड़े राज्यों में यह लड़ाई जीत गया। यही वजह है कि मथुरा-काशी, ईशनिंदा, कांवडि़या-हाजी या धर्मनिरपेक्ष-सांप्रदायिक जैसे विवाद और बहस सामने आए। नरेंद्र मोदी को इसकी अच्छी समझ है। ध्यान दीजिए कि कैसे वह अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों को फंसाने के लिए अपनी पार्टी से जोर देकर कह रहे हैं कि वह देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुस्लिमों) के भीतर पिछड़े वर्गों और जातियों के बीच पैठ बनाए। यदि उनके प्रतिद्वंद्वियों ने 25 वर्षों तक जाति का इस्तेमाल करके हिंदू मतों को बांटा तो अब वह इसी जाति का इस्तेमाल करके मुस्लिमों को क्यों नहीं बांट सकते? विरोधी की कला का इस्तेमाल करके उसे मात देने का विकल्प तो लड़ाई में उतरे दोनों योद्धाओं को होता है। हाल ही में हैदराबाद में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने हवा का रुख भांपने के लिए जो कदम उठाया उस पर पहली ‘धर्मनिरपेक्ष’ प्रतिक्रिया यही थी कि अगर मोदी को लगता है कि वह मुस्लिमों को यह याद दिलाकर उनका वोट ले लेंगे कि वे पसमांदा हैं और अशराफ मुस्लिम उनका वैसे ही शोषण करते रहे हैं जैसे उच्च वर्ण के हिंदू निचले वर्ग के हिंदुओं का तो उन्हें इसकी शुभकामनाएं। हालिया लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उसने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को चुनाव मैदान में नहीं उतारा। कम से कम कोई गंभीर प्रत्याशी मुस्लिम नहीं था। लेकिन ध्यान दीजिए कि कैसे मध्य प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनाव में उन्होंने बड़ी तादाद में मुस्लिमों को टिकट दिया। मध्य प्रदेश में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में एक दो नहीं बल्कि 92 मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते। उन्होंने ज्यादातर स्थानों पर कांग्रेस प्रत्याशियों को हराया। यदि आप मोदी-शाह की भाजपा के प्रतिद्वंद्वी हैं, उसके पीड़ित या संभावित चुनौती देने वाले हैं तो आप अपनी कीमत पर इन बातों की अनदेखी कर सकते हैं। अगर हिंदू मतों पर भाजपा की पकड़ मजबूत बनी रहती है तो उसके लिए यह बेहतर होगा कि वह लोकसभा सहित अधिक से अधिक चुनावों में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे। इससे उसे दोतरफा जीत हासिल होगी। पहली जीत उसे प्रतीकात्मक और आंकड़ों के स्तर पर मिलेगी। वह इस आरोप का जवाब दे सकेगी कि वह मुस्लिम मुक्त है। जबकि यह आरोप सही है। दूसरा, अगर मुस्लिमों का बहुत छोटा तबका भी उसे वोट देता है तो इससे विपक्ष और कमजोर पड़ जाएगा। मोदी के विरोधियों को इस चुनौती का सामना करना ही होगा। ऐसे हालात में अगर वे मुस्लिम मतों को एकजुट करने का प्रयास करते हैं तो इससे मोदी का हिंदू जनाधार और मजबूत होगा। कहा जाएगा कि ये सभी लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष अवश्य कहते हैं लेकिन उन्हें अपने मुस्लिम वोट बैंक की परवाह रहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो वे मुस्लिम मतों के छिटकने की परवाह नहीं करते। इसीलिए हम इसे मोदी का जाल कह रहे हैं। अगर कांग्रेस या अन्य बड़े दल इससे बचते भी हैं तो भी असदुद्दीन ओवैसी, बदरुद्दीन अजमल के दलों जैसे मुस्लिम दल अन्य राज्यों में भी उभरेंगे। क्योंकि उन्हें केवल मुस्लिम मतों से ही उम्मीद है और उनके पास यह मौका होगा कि वे इन मतों को कांग्रेस, राकांपा, सपा और राजद जैसे परंपरागत दलों से दूर ले जा सकें। कौन जाने वे उसे तृणमूल कांग्रेस से भी दूर कर सकें। मुस्लिम मतों का यूं बंटवारा केवल भाजपा को मजबूत करेगा। फिर चाहे वे उसे वोट दें या नहीं। केरल में अगर हैदराबाद से कोई नया प्रतिद्वंद्वी आ जाता है तो इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का चिंतित होना लाजिमी है। जबकि वह अभी भी यूडीएफ गठबंधन के अनुशासन में बंधी है और कांग्रेस में यह भय बढ़ रहा है कि उसे मुस्लिम समर्थक के रूप में देखा जा सकता है। तीन तलाक और हिजाब के मसले पर पार्टी की प्रतिक्रिया देखिए। जब मोदी सरकार मुस्लिम परिवारों से जुड़े अन्य कानूनी मसलों पर आगे बढ़ती है मसलन बहुविवाह, तलाक के बाद भरण-पोषण, अल्पसंख्यक संस्थानों को विशेष दर्जा, मदरसा शिक्षा आदि को लेकर कदम उठाएगी तब भी उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी। यह एकदम जाहिर बात है। कांग्रेस कैसे प्रतिक्रिया देगी? केरल में उसकी वैचारिक उलझन सबरीमला मसले पर नजर आयी। केरल ऐसे राज्यों में है जहां उसे भाजपा का सामना नहीं करना पड़ता है इसलिए उसके पास अवसर भी है। उलझन यह है कि वह उदारता और धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करे और हिंदुओं को नाखुश करने का जोखिम उठाए या फिर परंपरा का साथ दे? पार्टी ने सबसे बुरा विकल्प चुना और कुछ नहीं कहा। राहुल गांधी ने एक बार लैंगिक समानता की बात की थी और उसके बाद पूरी पार्टी उसे उनका निजी विचार बताती रही। मोदी ने अपने वैचारिक विरोधियों को एकदम हाशिये पर पहुंचा दिया है और भारतीय मुस्लिमों का भी वही हाल हुआ है। बीते कुछ सप्ताह में मैंने धर्मनिरपेक्ष तबके के सबसे समझदार माने जाने वाले लोगों से यह सवाल किया कि यहां से आगे की राह क्या है? इस राजनीतिक क्षेत्र के लिए मोदी का मुकाबला कैसे किया जाएगा? आपको आश्चर्य होगा कि उनका मानना है कि धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का विचार समाप्त हो चुका है। जब हिंदू बहुमत कट्टर हो गया हो तो आप कुछ नहीं कर सकते। कुछ युवा इतने नाराज और नाउम्मीद थे कि उन्होंने कहा कि अब एक ही उपाय है कि अमेरिका, यूरोप या तुर्की का रुख कर लिया जाए। कुछ लोगों के लिए वह वांछित ठिकाना है। अन्य लोगों का कहना है कि एक दिन मोदी के मतदाताओं को गलती का अहसास होगा और वे उन्हें वोट देगे। यह रणनीतिक तौर पर गलत सोच है। कुछ अन्य लोग भी हैं जो न तो विदेश जाना चाहते हैं और न ही अपनी ताकत के साथ लड़ना चाहते हैं। वे हैदराबाद के भाषण का हवाला देते हैं कि मोदी मुसलमानों को संबोधित कर रहे हैं। वह यह भी जानते हैं कि अगर उन्हें इतिहास में जगह बनानी है तो उनको सामाजिक समरसता कायम करनी होगी। इसलिए उन्हें अरब-इजरायल शैली में मुस्लिमों के लिए स्थान बनाने दीजिए और बेहतर की आशा कीजिए। मौजूदा राजनीति देश को चाहे जहां ले जाए यह एक चुनावी लोकतंत्र बना रहेगा। कई बार यह अधिनायकवादी दिखेगा तो कई बार अराजक लेकिन सबकुछ संविधान के दायरे में रहेगा। यह विचारों और विचारधाराओं का एक खुला मैदान बना रहेगा जहां मजबूत, महत्त्वाकांक्षी और कल्पनाशील मस्तिष्क प्रतिस्पर्धी राजनीति के जरिए मुकाबला करते हैं। भारत कभी चीन की तरह एक दलीय शासन वाला देश नहीं बनेगा। हमारे यहां इसका विरोध करने वाले बड़ी तादाद में हैं। 2014 के बाद के भारत में बिना पर्याप्त हिंदुओं के समर्थन के भाजपा को कोई नहीं हरा सकता। अब वह दौर समाप्त हो गया जब उनमें से कुछ दलित, यादव, आदिवासी या अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में मतदान करते थे। मोदी को चुनौती देने वाले को हिंदुओं और मुस्लिमों को एक साथ लाना होगा। हिंदुओं को भी बंटे हुए जातीय समूहों के बजाय एकजुट होकर सामने आना होगा। उन्हें हिंदुओं को यकीन दिलाना होगा कि सामाजिक एकजुटता और संविधान में उल्लिखित समता उनके और भारत के लिए सबसे बेहतर है। यह भी कि किसी अन्य साथी भारतीय को अलग-थलग करना न केवल एक खराब और गैर हिंदू कवायद है बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय हित के लिए भी नुकसानदेह है। यह आसान नहीं है लेकिन सत्ता पाने की कोशिश में कुछ भी आसान नहीं होता।
