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   अर्थव्यवस्था   अंतरराष्ट्रीयकरण को वरीयता दें देसी कंपनियां
अर्थव्यवस्था

अंतरराष्ट्रीयकरण को वरीयता दें देसी कंपनियां

adminअजय शाह— July,29 2022 12:57 AM IST
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वर्ष 2020 के मध्य से आर्थिक मोर्चे पर सुधरती तस्वीर के बीच दिग्गज देसी कंपनियों ने औसत रूप से अपेक्षाकृत कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है। वहीं पिछले दशक से तुलना करें तो निजी निवेश की वृद्धि में अनूठा सुधार देखने को मिला है। इस दमदार प्रदर्शन में निर्यात के स्तर पर तेज बढ़ोतरी से खासी मदद मिली। हालांकि अब वैश्विक वृहद आर्थिकी के मुख्य पहलुओं में जो बदलाव आया है, उसने निर्यात वृद्धि को कमजोर कर दिया है। फिर भी वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका निभाने के लिए भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण अवसर की गुंजाइश बनी हुई है। भारतीय कंपनियों के लिए यह रणनीतिक चिंतन का समय है कि वे चीन से उत्पादन मोहभंग के तेजी से बढ़ते वैश्विक रुझान का लाभ उठाने के लिए अंतरराष्ट्रीयकरण की राह पर आगे बढ़ने की दिशा में मंथन करें।   वैसे तो बड़ी भारतीय कंपनियों की बिक्री और परिचालन के आंकड़े कुछ समय से वास्तविक रूप से सुस्ती के शिकार रहे। 2020 के मध्य से जारी रिकवरी के दौर में इन कंपनियों ने अपेक्षाकृत रूप से बेहतर प्रदर्शन किया। इन कंपनियों की उत्पादकता प्रबंधन के नए तौर-तरीकों के माध्यम से बढ़ी, जिसमें वर्क-फ्रॉम-होम यानी घर से काम करने वाले डिजिटल कायाकल्प का लाभ उठाया गया। व्यापक परिचालन एवं वित्तीय गहराई वाली बड़ी कंपनियों ने इस दौरान छोटी कंपनियों की कीमत पर भारी बढ़त बनाई, जहां छोटी कंपनियों की हालत पस्त हुई। साथ ही भारत को निर्यात में जोरदार बढ़ोतरी से भी लाभ मिला। वापस 2000 का रुख करते हैं। निर्यात में तेजी के पीछे बड़ी सरल सी कहानी थी। विकसित देशों ने महामारी से मुकाबले के लिए राजकोषीय और मौद्रिक मोर्चे पर खासी नरमी बरती। इन देशों में लोग घरों में फंसे हुए थे। वे वस्तुएं साझा करने को लेकर असहज थे। इस पहलू ने विकसित देशों में आयात बढ़ा दिया। इस तेजी से भारतीय कंपनियों को लाभ मिला। भारतीय कंपनियों के लिए 2020 में स्थिति यह थी कि उनके लिए घरेलू बाजार में ठहराव आ गया था, लेकिन निर्यात में तेजी आ रही थी। यह वह समय था जब भारतीय कंपनियों के नीति-नियंता निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए वित्तीय एवं मानव संसाधन आवंटित करते। यह कहानी 2021 और 2022 तक चली और अब खत्म हो गई है। विकसित देशों की राजकोषीय नीति सतर्कता के स्तर की ओर लौट रही है। वहां परिवारों के उपभोग की प्रवृत्ति भी बदल रही है। मसलन वे व्यायाम में काम आने वाले उपकरण खरीदने के बजाय अब जिम की सदस्यता ले रहे हैं। भारतीय निर्यात की सबसे प्रमुख कसौटी मासिक आंकड़े माने जाते हैं। उनके अनुसार पेट्रोलियम और सोने को छोड़ दिया जाए तो देश से वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात पांच महीनों से 55 अरब डॉलर के स्तर पर अटका हुआ है। फिलहाल विश्व में सबसे प्रमुख रुझान यही दिख रहा है कि चीन से उत्पादन को दूसरी जगहों पर स्थानांतरित किया जा रहा है। हमें अपने दिमाग को आपूर्ति श्रृंखला गतिरोध के व्यावहारिक घटनाक्रम से अलग करना चाहिए, जो अब कम भी हो रहा है। इसके बजाय हमें वैश्विक उत्पादन के मोर्चे पर आकार ले रहे परिवर्तन की ओर देखना चाहिए। चीनी अर्थव्यवस्था के भीमकाय आकार और वैश्विक उत्पादन में उसकी केंद्रीय भूमिका को देखते हुए उत्पादन के मोर्चे पर यह पुनर्गठन सुगम और त्वरित गति से नहीं होगा। परंतु यह रुझान आकार अवश्य ले रहा है और भारत में बेहतरीन कंपनियों को विकसित करने के लिहाज से इसके महत्त्वपूर्ण निहितार्थ हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि वैश्विक उत्पादन में भारत अप्रासंगिक है और वह इस बड़े रुझान या अवसर का उपयोग नहीं कर पाएगा। वहीं एक वर्ग यह भी सोचता है कि चीन से बाहर किफायती उत्पादन के लिए भारत ही इकलौता प्रमुख विकल्प है और वह निश्चित ही इस संक्रमण के बड़े हिस्से को अपने पक्ष में भुनाने में सफल होगा। सच इन दोनों धारणाओं के कहीं बीच में है। चीन से बड़ी संख्या में उत्पादन इकाइयों का पलायन हो रहा है और भारत उनके 20 प्रतिशत तक हिस्से को हासिल कर सकता है, जो एक बड़े आंकड़े को जोड़ेगा। वर्ष 2020-21 के दौरान का निर्यात विस्तार भारतीय कंपनियों के लिए एक अपेक्षित सरल परिवेश था। वैश्विक खरीदार तत्काल रूप से अधिक सामान खरीदना चाहते थे और यह व्यापार विकास के लिए निर्यात सौदों की आपूर्ति का मसला था। अब जो प्रक्रिया है वह धीमी और कहीं अधिक रणनीतिक है, जहां वैश्विक, वित्तीय एवं गैर-वित्तीय कंपनियों का नेतृत्व महामारी से मुकाबले के बाद युद्ध की तपिश के माहौल में बड़ी सावधानी से अपना पुनर्गठन करते हुए चीन में अपनी मौजूदगी घटाने पर काम कर रहा है। वैश्विक कंपनियां रणनीतिक साझेदारों और उत्पादन व्यवस्थाओं के बारे में निर्णय कर रही हैं। ऐसी धीमी प्रक्रिया में बड़ी सतर्कता से आगे बढ़ा जाता है। भारतीय कंपनियों को इस नियोजन प्रक्रिया में व्यावहारिकता एवं संभावनाओं के स्तर तक उभरना होगा। अब तो कुछ ऐसे संकेत भी मिलने लगे हैं कि वैश्विक कंपनियां अपने उत्पादन में चीनी हिस्सेदारी को घटाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं, भले ही उन्हें हाल-फिलहाल के लिए चीन में आने वाली लागत से ज्यादा ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वैश्विक कंपनियां व्यापक पुनर्गठन की योजना के लिए जिन रणनीतिक साझेदारों की तलाश में हैं, उसे देखते हुए वैश्वीकरण में भारत की भूमिका 10 गुना तक बढ़ सकती है। भारतीय कंपनियों की प्राथमिकता इस प्रक्रिया में रणनीतिक साझेदार बनने की हो। हमें निर्यात में पांच महीनों से ठहराव या किसी अन्य आधार पर इस अंतरराष्ट्रीयकरण की कवायद से मुंह नहीं फेरना चाहिए। वैश्विक उत्पादन में परिवर्तन को लेकर बड़ी कंपनियों का यह व्यापक रुझान करीब तीन वर्षों से कायम है। यह बड़ा हलचल भरा समय है, जहां भारतीय कंपनियों के लिए अवसरों के द्वार भी खुल रहे हैं, जैसा कि इस समय वैश्विक निदेशक मंडलों में बड़े फैसले लिए जा रहे हैं। भारतीय कंपनियों के लिए यही पहेली है कि घरेलू उत्पादन से लेकर निर्यात और एफडीआई तक गुणवत्ता की सीढ़ी की ओर उन्मुख हुआ जाए। इसके लिए कंपनियों के अंतरराष्ट्रीयकरण के प्रथम स्तर (20 प्रतिशत से अधिक राजस्व विदेश से आए) और दूसरे स्तर (कम से कम 20 प्रतिशत राजस्व बाहरी एफडीआई से हो) को प्राप्त करने के लिए पहलकारी प्रयास करने हैं। कंपनियों को परिपक्व बनाने में इन दोनों स्तरों के लिए मानव एवं वित्तीय संसाधनों का निवेश आवश्यक है। बेहतर कंपनियां इन उद्देश्यों का लाभ उठाती हैं। ऐसी पहल के सफल होने पर दो लाभ प्रत्यक्ष दिखते हैं। एक तो ऊंची उत्पादकता और दूसरा व्यापक एवं लाभ उठाने योग्य बाजार। शीर्ष 1000 भारतीय कंपनियों को इन दो कसौटियों के लिए आगे आना चाहिए कि क्या हम स्टेज-1 पर हैं या फिर हम स्टेज-2 पर हैं? वहीं जिन कंपनियों के लिए यह स्थिति नहीं दिखती तो वे यह विचार करें कि इनका निर्माण कैसे किया जाना चाहिए? वास्तव में भारतीय कंपनियों को स्वयं को बदलने की आवश्यकता है ताकि वे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भरोसेमंद भागीदार बन सकें। उन्हें विकसित अर्थव्यवस्थाओं में विधिक व्यक्तियों की तैनाती, स्थानीय स्तर पर भर्ती और वैश्विक कंपनियों के कर्ताधर्ताओं के साथ व्यक्तिगत घनिष्ठता स्थापित करनी होगी। इन कर्ताधर्ताओं के समूह में भारतवंशी भी मौजूद हैं और वे भरोसा बनाने की प्रक्रिया में मददगार हो सकते हैं। विश्व भर के नीति-नियंताओं में विश्वास की पूंजी और भारतीय कंपनियों की स्वयं को बदलने की इच्छाशक्ति ही इस मामले में परिणाम तय करेगी। (लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

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