ई-युआन की चीनी पहल और भारत की भूमिका | श्याम सरन / July 28, 2022 | | | | |
चीन ने इस वर्ष फरवरी में पेइचिंग में शीतकालीन ओलिंपिक के दौरान अपनी डिजिटल मुद्रा ई-युआन प्रस्तुत कर दी। इससे पहले कई बड़े शहरों में इसे प्रायोगिक तौर पर चलाया गया था। ई-युआन डिजिटल वॉलेट के जरिये संचालित होता है यानी काफी हद तक अलीपे और वीचैट जैसे चीनी डिजिटल भुगतान के तर्ज पर लेकिन इसे जारी करने और इसके प्रबंधन का काम चीन का केंद्रीय बैंक- पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना -करता है।
जानकारी के मुताबिक फिलहाल 14 करोड़ ई-युआन वॉलेट आम लोगों द्वारा और एक करोड़ कारोबारियों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इसका लेनदेन का मूल्य कुल प्रचलन का 10 फीसदी है जबकि 90 फीसदी लेनदेन अभी भी अलीपे और वीचैट से होता है। अलीपे प्रति सेकंड 544,000 लेनदेन का प्रबंधन करता है जबकि ई-युआन बमुश्किल 10,000 लेनदेन का निपटान करता है। डिजिटल सॉवरिन मुद्रा को अभी लंबा सफर तय करना है। चीन के केंद्रीय बैंक ने भी इस बात को जाहिर किया है कि ई-युआन को बैंकों के वित्तीय कारोबार को प्रभावित किए बिना विकसित किया जाएगा। बैंक जमा हासिल करना और बचत पर ब्याज भुगतान करना जारी रखेंगे। ई-युआन पर ब्याज नहीं मिलता। इस बात को लेकर काफी चिंता रही है कि डिजिटल मुद्रा के आगमन के बाद पारंपरिक बैंकिंग तंत्र का क्या होगा क्योंकि आमतौर पर बैंकों द्वारा दी जाने वाली सभी सेवाएं इस नई व्यवस्था में शामिल की जा सकती हैं। यह होना ही है।
चीन में ताजा बहस दो अहम मसलों पर केंद्रित है। पहला, ई-युआन वॉलेट के उपयोग से उत्पन्न डेटा का संग्रह, उनकी जांच और उनका संरक्षण करना। सैद्धांतिक तौर पर देखें तो सभी ई-वॉलेट उपयोगकर्ताओं के व्यय के तौर तरीकों पर सरकार की नजर रहेगी। इससे वॉलेट उपयोगकर्ताओं पर और निगरानी की जा सकेगी। निजता का मामला निजी भुगतान प्लेटफॉर्म और सरकारी प्लेटफॉर्म दोनों के संदर्भ में उठाया जा रहा है। हालांकि आंकड़ों तक सरकार की पहुंच को लेकर चिंताएं अधिक हैं और इसके चलते ई-युआन को अपनाने की प्रक्रिया धीमी हो सकती है। इस मामले में निजी कंपनियों पर ज्यादा भरोसा है लेकिन उनके द्वारा जुटाए गये डेटा पर भी सरकार का अधिकार है।
दूसरी बात, चीन की मुद्रा के डिजिटलीकरण को अंतरराष्ट्रीयकरण के सुरक्षित मार्ग के रूप में देखा जा रहा है। चीन पूंजी प्रवाह पर नियंत्रण न होने की दशा में पूर्ण परिवर्तनीयता के खिलाफ है। वह अंतराष्ट्रीयकरण तो चाहता है लेकिन पूंजी के बहिर्गमन और अस्थिरता जैसे जोखिम से बचना चाहता है। सीमा पार भुगतान प्रणाली का फिलहाल परीक्षण चल रहा है जिसमें चीन, हॉन्गकॉन्ग, थाईलैंड और यूएई शामिल हैं। इसे मल्टीपल सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी या एम-सीबीडीसी के नाम से जाना जा रहा है। इसका लक्ष्य है किसी भी समय विदेशी विनिमय स्थानांतरण को अंजाम देना। यह व्यवस्था अबाध रूप से काम करेगी और इसमें वित्तीय लेनदेन से जुड़े नियम कायदों का पालन किया जाएगा। एक बार इसका संचालन शुरू होने के बाद अन्य केंद्रीय बैंकों को भी भागीदारी के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप एक वैकल्पिक सीमा पार भुगतान व्यवस्था स्थापित हो जाएगी जो अमेरिकी डॉलर आधारित व्यवस्था से अलग होगी। इस व्यवस्था में हम उस प्रकार के एकतरफा प्रतिबंधों से भी बच सकेंगे जो हाल ही में यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर लगाये गए हैं। यह आश्चर्य की बात है कि रूस को इस प्रायोगिक परियोजना में शामिल होने का न्योता नहीं दिया गया लेकिन शायद वह चोरी छिपे इसमें शामिल है। चीन की नजर उन देशों पर है जो उसकी महत्त्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड पहल में शामिल हैं। वह उन्हें एम-सीबीडीसी में शामिल करना चाहता है। लेकिन उससे पहले तमाम मसलों को हल करना होगा। इसमें राष्ट्रीय वित्तीय डेटा की सुरक्षा और पारस्परिकता की प्रक्रिया शामिल है। यह काम अभी चल रहा है लेकिन चीन अमेरिका सहित अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से काफी आगे है।
रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने के बाद उस पर जिस तरह आर्थिक और वित्तीय प्रतिबंध लगाए गए हैं, उन्होंने चीन को सतर्क कर दिया है। उसे डर है कि वह अगला शिकार हो सकता है। इस बात ने ई-युआन परियोजना को प्रभावित किया
है। खासतौर पर चीनी मुद्रा के अंतरराष्ट्रीयकरण में उसकी भूमिका तथा अमेरिका और पश्चिमी जगत से मुक्त एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय भुगतान व्यवस्था बनाने की कोशिश इससे प्रभावित होगी। कई अन्य देश इसलिए इसकी ओर आकर्षित होंगे क्योंकि अमेरिका आर्थिक प्रतिबंधों का इस्तेमाल अपने भू राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने में एकतरफा ढंग से करता है।
यहां तक कि पश्चिम के यूरोपीय देश भी अमेरिका की विरोधियों और मित्र देशों पर ऐसे दंडात्मक प्रतिबंध इस्तेमाल करने की इस ताकत से नाखुश हैं। भारत भी ऐसी वित्तीय व्यवस्था का स्वागत करेगा जो किसी खास देश को असंगत ताकत और दूसरों को कष्ट पहुंचाने का प्रभाव न देती हो। चीन की इस पहल को सावधानीपूर्वक परखने के लाभ हैं। अगर हमारे हित सधते हों तो हमें इसमें शामिल भी होना चाहिए। इससे भारत भी इस योग्य होगा कि वह नये वित्तीय ढांचे को अपने हितों के मुताबिक आकार दे सके। ठीक वैसे ही जैसा कि हम एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और ब्रिक्स विकास बैंक के मामले में कर सके। भारत ने पहले ही यह घोषणा की है कि वह अपना डिजिटल रुपया जारी करेगा। इस परियोजना में किसी अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली का हिस्सा बनने की बात को भी ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि इससे लेनदेन की लागत कम होगी और साथ ही एक नियम आधारित डिजिटल वैश्विक वित्तीय तंत्र बन सकेगा।
हमें एक डिजिटल मुद्रा के पीछे केवल इसलिए नहीं भागना चाहिए क्योंकि अन्य देश ऐसा कर रहे हैं। भारत के नजरिये से इसकी खूबियों और खामियों को परखने की आवश्यकता है। चीन में इस विषय पर बहस हो चुकी है और उसे देखकर लगता है कि डिजिटल मुद्रा का विचार बना रहेगा। यह भी स्पष्ट है कि डिजिटल मुद्रा पर आधारित वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली को लेकर भी चीन के नेतृत्व में काम हो रहा है तथा इसमें कुछ अन्य विकासशील देश भी शामिल हैं। यूएई और थाईलैंड के साथ हमारे सौजन्यतापूर्ण रिश्तों की बदौलत हम यह जान सकते हैं कि यह पहल कैसे आगे बढ़ रही है। हमें केवल हाशिये पर खड़े होकर यह पूरा घटनाक्रम नहीं देखना चाहिए।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
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