रूस के साथ यूक्रेन के ‘रिश्तों’ को कई संदर्भों के नजरिये से देखा जा सकता है। वर्ष 2014 में रूस पहले ही यूक्रेन के एक बड़े हिस्से (क्राइमिया) को अपने साथ मिला चुका है और फिलहाल दूसरे इलाकों (दोनेत्स्क और लुहान्स्क) को अपने साथ जोड़ने के प्रयासों में लगा है। इसके पीछे उसका तर्क सदियों पुराने नस्लीय एवं सांस्कृतिक संबंधों के संदर्भ में मध्ययुगीन इतिहास की ओर लौटने का है। रूस ने व्यापक स्तरीय ‘विशेष सैन्य अभियान’ चलाने का जो जोखिम उठाया, उसके पीछे उसका ऊर्जा भू-राजनीति का आकलन ही है। करीब 11 साल पहले जापान में आई एक परमाणु आपदा ने पश्चिमी यूरोप में ऊर्जा स्रोतों के गणित को बदलकर रख दिया। इन बदली हुई परिस्थितियों ने रूस को यूरोपीय संघ (ईयू) और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के मुकाबले बढ़त दिला दी। वर्ष 2010 में जर्मनी में 17 परमाणु बिजली संयंत्र थे। उसकी करीब 22 प्रतिशत बिजली परमाणु संयंत्रों में बनती थी। वर्ष 2011 में सूनामी के शिकार हुए फूकूशीमा परमाणु संयंत्र में बड़ी जन हानि हुई थी और वहां उच्च विकिरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र भी बन गया। इससे सबक लेते हुए जर्मनी ने अपने परमाणु संयंत्रों को स्थगित करने का फैसला लिया। तमाम अन्य देश भी परमाणु बिजली से तौबा करते दिखे। केवल फ्रांस ही इकलौता बड़ा यूरोपीय देश है, जिसने फूकूशीमा हादसे के बाद अपनी परमाणु योजनाओं में कोई भारी कटौती नहीं की। वर्तमान की बात करें तो जर्मनी में केवल तीन परमाणु बिजली संयंत्र ही सक्रिय रह गए हैं। जर्मनी की बमुश्किल 10 प्रतिशत बिजली ही इन संयंत्रों से आती है। संभव है कि जर्मनी के नीति-निर्माता इस साल के अंत तक इन तीनों संयंत्रों को बंद करके शायद वापस कोयला आधारित तापीय बिजली संयंत्रों की ओर लौटें। निःसंदेह पिछले एक दशक के दौरान जर्मनी की ऊर्जा आवश्यकताएं बढ़ी हैं और उसकी कुल बिजली में करीब 45 प्रतिशत हिस्सा अक्षय ऊर्जा स्रोतों का हो गया है। वहीं परमाणु बिजली की जगह बड़े पैमाने पर प्राकृतिक गैस ने ले ली है। जर्मनी को आधी गैस की आपूर्ति रूस करता है। इतना ही नहीं बल्गारिया , फ्रांस, इटली, पोलैंड, फिनलैंड, लातविया जैसे यूरोपीय देशों का मुख्य गैस आपूर्तिकर्ता होने के साथ ही रूस तमाम छोटे बाल्कन देशों का इकलौता गैस आपूर्तिकर्ता भी है। यूरोपीय संघ और नाटो की ऊर्जा नब्ज पर अपनी ऐसी पकड़ को देखते हुए यूक्रेन के मसले पर रूस के हाथ बहुत मजबूत हैं। यहां तक कि इस साल यूक्रेन पर हमले के बावजूद पश्चिमी यूरोप की गैस पर निर्भरता के चलते यूरोपीय संघ ने रूस को रकम पहुंचाते रहने में कोई हिचक नहीं दिखाई। वास्तव में यूक्रेन युद्ध पर रूस का रोजाना जितना खर्च हो रहा है, उससे कहीं ज्यादा कमाई वह यूरोप को गैस बेचकर कर रहा है। यानी उसका युद्ध व्यय यूरोप से होने वाले गैस राजस्व से कम ही है। जहाज या पाइपलाइन के माध्यम से गैस को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के मामले में ढुलाई के मोर्चे पर बड़ी चुनौतियां हैं। इसमें जितनी दूरी बढ़ेगी, उसी अनुपात में खर्च भी बढ़ता जाएगा। इस समय यूरोपीय लोगों को अमेरिकियों की तुलना में गैस के लिए सात गुना अधिक दाम चुकाने पड़ रहे हैं। वैकल्पिक स्रोत तलाशने से कीमतों और ऊपर जा सकती हैं। ऐसे में जब तक रूस अपने ऊर्जा ढांचे को किफायती बनाने की राह तलाशने के लिए नए सिरे से काम नहीं करता, तब तक वह रूस के खिलाफ कदम उठाने में लड़खड़ाता रहेगा। ऊर्जा भू-राजनीति ही अक्सर बड़े संघर्षों की जड़ होती है। इतिहास ऐसी मिसालों से भरा है। जापान ने अमेरिकी प्रशांत बेड़े के मुख्यालय पर्ल हार्बर पर दिसंबर 1941 में इसीलिए हमला किया था कि अमेरिका ने जुलाई 1941 से जापान को तेल बेचना बंद कर दिया था। तब जापान को तेल एवं गैस की आपूर्ति के लिए इंडोनेशिया ( तब डच उपनिवेश) और मलेशिया (ब्रिटिश उपनिवेश) को साथ जोड़ने की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए जरूरी था कि वह पहले फिलिपींस (अमेरिकी उपनिवेश) का किला फतेह करे और इसीलिए जापान को प्रशांत बेड़े पर धावा बोलना पड़ा। जब भी तेल और गैस की बात आती है तो निर्यातकों के स्तर पर भी बड़ी सक्रियता देखने को मिलती है। प्रत्येक ऊर्जा आयातक किसी न किसी निर्यातक के साथ समीकरण साधने की जुगत भिड़ाता रहता है। उदाहरण के लिए इजरायल के पड़ोस में तेल निर्यातक देश हैं, लेकिन उनके साथ उलझन को देखते हुए उसे मैक्सिको, नॉर्वे, कोलंबिया और वेनेजुएला से तेल आयात करना पड़ता है। वहीं यूरोप को वैकल्पिक गैस स्रोत के लिए अजरबैजान और कतर की ओर देखना पड़ सकता है। यहां तक कि शायद वह ईरान के साथ फिर से पींगें बढ़ाने पर विचार कर सकता है। वहीं अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा की बात आती है तो उससे जुड़ी आपूर्ति श्रृंखला में एक ही दिग्गज चीन का दबदबा है। दुनिया के 80 प्रतिशत सौर पैनल का उत्पादन चीन करता है। विंड टरबाइन बाजार में भी उसका ही बड़ा वर्चस्व है। स्टोरेज बैटरी बाजार का भी वही अहम खिलाड़ी है। इन सबसे भी बढ़कर दुर्लभ धातुओं के उत्पादन (रेयर अर्थ प्रोडक्शन) के मामले में उसका एकाधिकार है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि जिन देशों का चीन के साथ मेल नहीं खाएगा, वे सौर, पवन ऊर्जा और स्टोरेज जैसे स्रोतों के मामले में अपनी खुद की आपूर्ति श्रृंखला खड़ी करेंगे, भले ही उनकी लागत चीनी आयात से कहीं ज्यादा ही क्यों न हो। यहां तक तो ठीक है, लेकिन रेयर अर्थ का मामला जरा अलग है, क्योंकि इन 17 आवश्यक तत्वों के कुछ चुनिंदा ही स्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन की निरंतर बढ़ती चुनौती को देखते हुए उत्सर्जन कटौती एक तात्कालिक प्राथमिकता है, लेकिन इस मोर्चे पर एक ही आपूर्तिकर्ता पर निर्भरता वाली भू-राजनीति दुःस्वप्न साबित हो सकती है, विशेषकर तब जब ऐसे आपूर्तिकर्ता के साथ आपका सीमा विवाद हो।
