तकरीबन एक वर्ष तक केंद्र सरकार के तीन किसान कानूनों के विरोध प्रदर्शन की अगुआई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने उस 29 सदस्यीय समिति में शामिल होने से इनकार कर दिया है जिसका गठन सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को और अधिक प्रभावी तथा पारदर्शी बनाने के लिए किया है। मोर्चे के इस कदम को उचित नहीं कहा जा सकता। गत वर्ष नवंबर में जब किसान मोर्चा विरोध प्रदर्शन खत्म करने को तैयार हुआ था तब उसने जिन शर्तों पर सहमति दी थी, उनमें विवादित कानूनों को खत्म करने के अलावा ऐसे पैनल का गठन करना भी शामिल था। अब जबकि सरकार ने अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार पैनल बनाने का निर्णय लिया है तो मोर्चे ने इसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। किसान मोर्चे ने अपने इस कदम की प्रमुख वजह यह बताई है कि प्रस्तावित समिति में सरकार के वफादार और विवादित कानूनों के समर्थकों को ही रखा गया है और फसल विविधता और प्राकृतिक खेती जैसे कुछ असंगत विषयों को एजेंडे में शामिल किया गया है। वह चाहता था कि समिति केवल एमएसपी को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने पर ध्यान केंद्रित करे। ऐसी बातों को मानना काफी मुश्किल काम है क्योंकि ऐसा कोई भी पैनल तब तक अधूरा माना जाएगा जब तक कि किसानों (प्रदर्शनकारियों से मतभेद रखने वाले भी) के सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व न हो रहा हो। हमें यह याद रखना होगा कि विरोध प्रदर्शन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की बदौलत जारी रहा था और उसमें देश के अन्य हिस्सों के लोगों की हिस्सेदारी न के बराबर थी। दक्षिण भारत के कई राज्यों के किसान संगठनों ने प्रस्तावित विपणन सुधारों का समर्थन भी किया था। पैनल पर करीबी नजर डालें तो पता चलता है कि इसमें विभिन्न हित समूहों, हिस्सेदारों, विषय विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों, कृषि विज्ञानियों, सरकारी अधिकारियों और विभिन्न राजनीतिक दलों तथा गैर राजनीतिक संगठनों के किसान नेताओं का अच्छी तरह ध्यान रखा गया है। किसान मोर्चे की इकलौती वाजिब बात यह है कि एक ओर जहां ओडिशा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और सिक्किम के लोगों को समिति में जगह मिल गई है, वहीं पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख अन्न उत्पादक राज्यों के लोगों को इससे बाहर रखा गया है। किसान मोर्चे ने शायद एक अहम तथ्य की अनदेखी कर दी है और वह यह है कि अब शायद उसका कद वैसा नहीं है जैसा उस समय था जब वह विभिन्न राजनीतिक और हितों वाले करीब 300 किसान समूहों का नेतृत्व कर रहा था। जिस समय विरोध प्रदर्शन चल ही रहा था, उसी समय इस संगठन में बिखराव नजर आने लगा था और कई किसान संगठनों ने अपनी-अपनी राजनीतिक संबद्धता की बदौलत इससे दूरी बनानी शुरू कर दी थी। कुछ धड़ों ने, खासकर पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाले धड़ों ने किसान मोर्चे से दूरी बनाकर नये संगठन स्थापित कर लिए थे। पंजाब के किसानों के एक महत्त्वपूर्ण धड़े ने एक राजनीतिक दल बना लिया था और उसने हालिया चुनावों में हिस्सा भी लिया। यह बात अलग है कि उसका कोई प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका बल्कि उनमें से अधिकांश की तो जमानत भी जब्त हो गई। यहां तक कि किसान मोर्चे की मूल पंजाब शाखा, जो संख्या बल और संसाधनों के क्षेत्र में सबसे आगे थी, वह भी अब कई धड़ों में बंट चुकी है। इसी प्रकार राकेश टिकैत के नेतृत्व वाली भारतीय किसान यूनियन भी अब बंटी हुई नजर आ रही है। एक धड़ा खुद को भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) कह रहा है। ध्यान रहे राकेश टिकैत दिल्ली में हुए आंदोलन का सबसे प्रमुख चेहरा थे। चाहे जो भी हो अब गेंद किसान मोर्चे के पाले में है। अब उसे ही खुद को किसानों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में स्थापित करना है और एमएसपी समिति के सदस्यों को नामित करना है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो उनकी आवाज अनसुनी रह जाएगी जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए।
