मुख्तार अब्बास नकवी, एमजे अकबर और सैयद जफर इस्लाम का राज्य सभा कार्यकाल पूरा होने के साथ ही नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का संसद के दोनों सदनों में कोई मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं रह जाएगा। इस सूचना के साथ निम्न बातों को ध्यानपूर्वक पढ़ें: ► सन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी-शाह की भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। उसके क्रमश: सात और छह मुस्लिम उम्मीदवारों में से कोई नहीं जीता था। यह तब है जब देश में 20 करोड़ मुस्लिम रहते हैं यानी हर सात में से एक भारतीय मुस्लिम है। ► उत्तर प्रदेश में 2017 और 2022 के चुनाव में मोदी-शाह-योगी की भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को नहीं उतारा और वह प्रचंड बहुमत से जीती। राज्य की आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत है यानी हर पांच में से एक व्यक्ति मुस्लिम है। ► असम में मोदी-शाह-हिमंत की भाजपा ने 2016 और 2021 में बहुमत हासिल किया। दोनों चुनावों में मिलाकर पार्टी ने 17 मुस्लिमों को टिकट दिया था लेकिन केवल 2016 में एक उम्मीदवार को जीत मिली थी। असम की आबादी में हर तीन में से एक व्यक्ति मुस्लिम है। ► यह इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ है जब कोई मुस्लिम व्यक्ति दिल्ली की (केरल में आरिफ मोहम्मद खान राज्यपाल हैं) किसी संवैधानिक कुर्सी पर नहीं है। 76 मंत्रियों में भी कोई मुसलमान नहीं है और ना ही किसी प्रदेश में मुस्लिम मुख्यमंत्री है। केंद्र सरकार के 87 सचिवों में से दो मुस्लिम हैं। यहां तीन अंशधारकों की बात करते हैं। भाजपा उनमें पहली है क्योंकि वह सबसे कम प्रभावित है। दूसरे नंबर पर भारतीय मुसलमान हैं और तीसरा और सबसे प्रभावित अंशधारक है भारतीय लोकतंत्र। भाजपा के लिए मुस्लिमों से यह कहना आसान है कि आप हमारे लिए मतदान नहीं करते, ठीक है यह एक मुक्त लोकतंत्र है। दूसरे लोग पर्याप्त मात्रा में हमें वोट देते हैं। अब आप यह तय नहीं करते कि भारत पर कौन शासन करेगा। मोदी के पहले के समय में भी भाजपा नेता अक्सर यही कहते थे। मैंने सबसे पहले यह बात पूर्व भाजपा सांसद बलबीर पुंज से तब सुनी थी जब अप्रैल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गई थी। उन्होंने नाराजगी के साथ कहा था कि भारत पर कौन शासन करेगा इस पर मुस्लिमों का वीटो है। मोदी के जनाधार और शाह की चुनावी चतुराई ने इसे समाप्त कर दिया है। यह कैसे हुआ, इस पर हम अक्सर चर्चा कर चुके हैं। उन्होंने शेष 50 फीसदी हिंदू मतों को निशाने पर लिया और जातीय तौर पर हुए विभाजन को धर्म के साथ एकजुट कर दिया। भाजपा को मुस्लिम मतों की आवश्यकता नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे नहीं चाहते कि मुस्लिम यहां सुरक्षित रहें और समृद्ध हों। बस वे चाहते हैं कि मुस्लिम उनकी शर्तों पर यहां रहें। वैचारिक रूप से देखा जाए तो भाजपा और आरएसएस राष्ट्र निर्माण के इजरायली तरीके को पसंद करते हैं। यदि इजरायल एक यहूदी गणराज्य होते हुए लोकतांत्रिक हो सकता है और 20 फीसदी अरब मुस्लिम आबादी को लगभग समान नागरिक मान सकता है तो भारत भी एक हिंदू राष्ट्र में 14 फीसदी मुस्लिमों को ऐसा ही दर्जा देकर रख सकता है। अरब मुस्लिम जिस देश में बतौर अल्पसंख्यक रह सकते हैं और स्वतंत्र होकर मतदान कर सकते हैं वह एक यहूदी गणराज्य है। क्या कोई अन्य अरब देश है जहां लोग वास्तव में सरकार चुन सकते हों? उन्हें इजरायल को धन्यवाद कहना चाहिए क्योंकि वे सुरक्षित हैं, सम्मान के साथ जीने को स्वतंत्र हैं, अपने बच्चों को शिक्षा दे सकते हैं, कारोबार कर सकते हैं और समृद्धि हासिल कर सकते हैं और अपनी मर्जी से उपासना कर सकते हैं, बस सत्ता में हिस्सेदारी की मांग न करें। वैचारिक रूप से हिंदू राजनीतिक दक्षिणपंथ भी इसे एकदम सही उपाय के रूप में देखेगा। इजरायल की आनुपातिक चुनाव व्यवस्था में कई बार अरबों के लिए भी थोड़ी गुंजाइश निकल आती है जैसा कि अभी देखा जा सकता है। भारत में सर्वाधिक मत पाने वाले की जीत की व्यवस्था में भाजपा बिना मुस्लिमों के बहुमत पाती रहेगी। तमाम कल्याण योजनाओं का लाभ मुस्लिमों को मिलता रहेगा। यही तो है सबका साथ/सबका विकास। भाजपा/आरएसएस की व्यवस्था में मुस्लिमों को ऐसी ही सशर्त समानता की पेशकश की जाएगी। भारत एक हिंदू प्रधान देश होगा और इसलिए वह धर्मनिरपेक्ष शासन का पालन करेगा। इससे भारतीय मुस्लिम अलग-थलग पड़ जाएंगे, नाराज और मताधिकार से लगभग वंचित हो जाएंगे। ऐसे जिनके वोट का कोई महत्त्व न हो। अलग-थलग और सत्ता से बाहर रहकर उनमें यह भावना उपजेगी कि वे हिंदू बहुमत के रहमोकरम पर भारत में सुरक्षित रह सकते हैं। यह गुस्सा नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे विरोध प्रदर्शनों में सामने आता रहा है। दक्षिण-पश्चिम तटवर्ती इलाके में यह नाराजगी कुछ अधिक नजर आ रही है। इसका नेतृत्व पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई), उसकी राजनीतिक शाखा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) और उसकी छात्र शाखा कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) के पास है। हिजाब के विरोध में भी यह बात सामने आई लेकिन हमें इससे भी भीषण स्थिति के लिए तैयार रहना होगा। मनमोहन सिंह ने 2009 के आम चुनाव के दौरान नई दिल्ली स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब में एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि अगर एक फीसदी भारतीय मुसलमान भी यह तय कर लें कि भारत में उनका भविष्य नहीं है तो देश शासन योग्य नहीं रह जाएगा। अगर भाजपा के पास सत्ता है तो क्या वह चाहती है कि सात में से एक भारतीय अपनी आस्था के कारण अलग-थलग रहे? यदि ऐसा हुआ तो बहुत अधूरा लोकतंत्र बनेगा। इसमें व्यापक सुधार की आवश्यकता है। सवाल यह है कि यह सुधार कौन और कैसे करेगा? पहली ‘आशा’ अंतराष्ट्रीय दबाव के रूप में दिखती है। जब खाड़ी देशों के दबाव में नूपुर शर्मा मामले पर पीछे हटना पड़ा तो कुछ उत्साह देखने को मिला। तत्काल जो कदम उठाए गए उनसे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी मित्रवत मुस्लिम देशों को लेकर कितने संवेदनशील हैं। लेकिन कोई बाहरी देश मोदी सरकार पर दबाव का दावा नहीं कर सकती। मोदी और भाजपा यह कह सकते हैं कि खाड़ी देश तब तक यह परवाह नहीं करते कि मुस्लिमों की क्या स्थिति है (चीन में उइगर और रूस में चेचेन मुस्लिमों की) जब तक कि मामला पैगंबर या कुरान से जुड़ा न हो। देखिए कैसे विरोध के बमुश्किल एक पखवाड़े बाद ही यूएई के शासक ने मोदी का गले लगाकर स्वागत किया और उसके बाद यूएई ने आई2यू2 शिखर बैठक में भी हिस्सा लिया जिसमें अमेरिका, भारत और इजरायल शामिल हैं। यानी मोदी-शाह की भाजपा को किसी बड़े बदलाव की जरूरत नहीं। हां, हमें बचपन के मित्र अब्बास की याद दिलाई जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे आडवाणी से जब मुस्लिम विरोधी होने का प्रश्न किया जाता था तो वह अपने रथ के मुस्लिम चालक का जिक्र किया करते थे। अगर भाजपा के लिए सुधार की जरूरत नहीं है तो किसे है? यह सुधार सोशल, देसी या विदेशी मीडिया में शोरगुल करके नहीं किया जा सकता। अदालतें यह काम नहीं करेंगी। आप युवा मुस्लिमों को विरोध प्रदर्शन में शामिल करके ऐसा नहीं कर सकते और करना भी नहीं चाहिए क्योंकि इससे उनका जीवन और करियर प्रभावित होते हैं। एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी जैसे नये मुस्लिम नेता भी ऐसा नहीं कर सकते जिन्हें सराहना तो मिलती है लेकिन हिंदू वोट नहीं। अगर कोई दैवीय शक्ति ध्रुवीकरण करने वाले टेलीविजन चैनलों को खत्म कर दे तो भी ऐसा नहीं होगा। यह एक राजनीतिक चुनौती है जिससे कोई अखिल भारतीय राजनीतिक शक्ति ही निपट सकती है। इससे पहले कि हम यह चर्चा करें कि यह कैसे होगा। हमें तीन पूर्व शर्तों पर विचार करना चाहिए। सबसे पहले यह स्वीकारना होगा कि जब तक हिंदुओं को बदलाव की जरूरत न समझा दी जाए तब तक कोई परिवर्तन संभव नहीं है। दूसरा, हिंदुओं को आरोपित करके या उनका मजाक उड़ाकर अथवा औरंगजेब या गजनी को सामान्य बताकर नये धर्मनिरपेक्ष दौर की शुरुआत नहीं की जा सकती। तीसरा, इस भ्रम से बाहर निकलना होगा कि मई 2014 तक हम एक बेहतरीन धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते थे। याद कीजिए सन 2005 में कांग्रेसनीत संप्रग ने सच्चर कमेटी का गठन किया था ताकि मुस्लिमों की मुश्किलों की पड़ताल की जाए। तब तक भारत आजादी के 58 वर्षों में से 49 वर्षों तक कांग्रेस या गठबंधन सरकारों के शासन में था। रिपोर्ट इतनी घातक थी कि संप्रग ने खुद उसे दफन कर दिया। मुस्लिमों को आश्वस्त करने के लिए कांग्रेस ने पोटा कानून को रद्द कर दिया लेकिन उसने यूएपीए कानून को इतना सख्त कर दिया कि मुस्लिम भुक्तभोगियों को पोटा ही बेहतर लगने लगा।एक बार हम यह स्वीकार कर लें कि भारत 2014 के पहले किसी संपूर्ण व्यवस्था में नहीं जी रहा था, कि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द उस संसद ने जोड़ा था जो अपने छठे वर्ष में थी और आपातकाल लागू था। यह तब हुआ जब विपक्ष जेल में था, कि इससे हिंदुओं और मुस्लिमों के रिश्ते में कोई मजबूती नहीं आई, तभी भविष्य को लेकर कुछ किया जा सकता है। भाजपा के वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों को पहले यह स्वीकार करना चाहिए कि उनके गलत कदमों और आडंबर ने भाजपा को ऐसा ध्रुवीकरण करने का मौका दिया जिससे वह बार-बार सत्ता में आई। इसके बाद ही नयी राजनीतिक चुनौती तैयार की जा सकती है।
