वित्त मंत्रालय को राहत आरबीआई की सांसत | ए के भट्टाचार्य / July 14, 2022 | | | | |
मुंबई के एक वित्तीय बाजार विश्लेषक के साथ बातचीत में इस विषय को लेकर दिलचस्प नजरिया सामने आया कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद चुनौतियों से केंद्रीय वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक किस प्रकार निपट रहे हैं। अतीत में मुंबई के वित्तीय विश्लेषकों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया में आमतौर पर यह शिकायत होती थी कि वित्त मंत्रालय चीजों को गलत समझ रहा है जिससे केंद्रीय बैंक की दिक्कतें बढ़ रही हैं। इसके विपरीत रिजर्व बैंक को नुकसान कम करने की दिशा में मजबूत पहल करता हुआ माना जाता था।
परंतु गत सप्ताह की प्रतिक्रिया अलग थी। वित्त मंत्रालय को लेकर कोई शिकायत देखने को नहीं मिली और माना गया कि वह चुनौतियों को लेकर त्वरित कदम उठा रहा है और खराब वित्तीय हालात से निपटने के हरसंभव प्रयास कर रहा है तथा घाटे पर लगाम लगाने की कोशिश में है। आरबीआई भी कदम उठा रहा है और उसके कदम अक्सर बाजार को चौंकाते हैं। लेकिन रुपये तथा मुद्रास्फीति को लेकर आरबीआई के रुख से एक तरह का असंतोष देखने को मिला।
यह बदलाव कैसे आया और अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के बारे में बनी धारणा में यह परिवर्तन कैसे आया? ध्यान रहे कि एक वर्ष पहले तक इस परिवर्तन पर ध्यान नहीं दिया गया था। यह दर्ज किया गया कि आरबीआई कोविड के असर से बिना किसी बड़ी दिक्कत के निपटने में कामयाब रहा। कोविड प्रबंधन में वित्त मंत्रालय की भूमिका पर जरूर कुछ सवाल उठे।
निश्चित तौर पर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के बारे में धारणाओं में यह बदलाव उस समय आया है जब आर्थिक हालात बेहतर नहीं हैं। अब व्यापक तौर पर यह बात स्वीकार कर ली गई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर दोहरे घाटे का खतरा है। अर्थशास्त्री बीते कुछ महीनों से दोनों खतरों से आगाह कर रहे थे। लेकिन अब वित्त मंत्रालय की जून में जारी मासिक आर्थिक रिपोर्ट में संकेत दिया गया है कि बढ़ते चालू खाता घाटे और राजकोषीय घाटे के क्या खतरे हैं। शायद इस बात ने भी विश्लेषक को अपनी राय बनाने पर विवश किया हो।
यकीनन इस रिपोर्ट में आर्थिक खतरों को सहजता से स्वीकार किया गया। इससे पहले कुछ वर्षों के दौरान वित्त मंत्रालय का रवैया समस्याओं को छिपाने का रहा है। यह बात एक साथ चिंतित भी करती है और आश्वस्त भी करती है। चिंता की बात यह है कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन की चुनौतियां लगातार जटिल होती जा रही थीं। आश्वस्ति की बात यह थी कि सरकार समस्याओं को लेकर सचेत दिखी और वह जरूरी कदम उठाने को लेकर तैयार थी। इन कदमों के असर पर विवाद हो सकता है लेकिन यह शिकायत नहीं की जा सकती कि वित्त मंत्रालय ने चुनौतियों को लेकर प्रतिक्रिया नहीं दी।
इस चुनौती की गंभीरता के एक पहलू का अंदाजा बीते चार दशक में इस घाटे के डेटा से निकलता है। इस अवधि के अलग-अलग हिस्से में ये घाटे अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय रहे हैं। परंतु गत चार दशक में केवल दो ही बार ये घाटे चिंताजनक गति से बढ़े। ऐसा 1991 और 2011-2013 के बीच हुआ।
चालू खाते का घाटा 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद के 3.1 प्रतिशत के बराबर हो गया था जबकि राजकोषीय घाटा उसके 7.6 फीसदी के स्तर पर था। अगली बार दोहरे घाटे ने अर्थव्यवस्था को 2011 से 2013 के बीच परेशान किया। उस अवधि में चालू खाते का घाटा धीरे-धीरे बढ़ा जबकि राजकोषीय घाटा लगातार 4 फीसदी के स्तर से ऊपर बना रहा। इस अवधि में चालू खाते का घाटा भी जीडीपी के 4 फीसदी के स्तर को पार कर गया। पूंजी खाता अधिशेष 2 से 2.5 फीसदी के मजबूतर स्तर पर रहा लेकिन बाह्य अर्थव्यवस्था पर समग्र प्रभाव विपरीत ही रहा।
अब कहा जा रहा है कि भारत तीसरी बार दोहरे घाटे की ओर बढ़ रहा है क्योंकि राजकोषीय घाटे और चालू खाते का घाटा दोनों में इजाफा हो सकता है। इससे सरकार और आरबीआई दोनों की चिंता बढ़ रही है। सन 2021-22 में केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 6.7 फीसदी के स्तर पर था जबकि चालू खाते का घाटा 1.5 फीसदी था। लेकिन इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि 2022-23 के दौरान चालू खाते का घाटा जीडीपी के 3 फीसदी के बराबर हो सकता है जबकि राजकोषीय घाटा शायद 6.5 फीसदी के आसपास रहे।
2022-23 के बजट की प्रस्तुति के कुछ सप्ताह के भीतर सरकार की घाटे को जीडीपी के 6.4 फीसदी के दायरे में रखने की क्षमता को लेकर गंभीर सवाल पैदा हो गए। उच्च व्यय को लेकर नयी प्रतिबद्धता जतायी गई। इसमें नि:शुल्क राशन की योजना को सितंबर तक जारी रखना और उज्ज्वला योजना के तहत रियायती घरेलू गैस् सिलिंडर देना शामिल था। इसके साथ ही राजस्व के मोर्चे पर भी पेट्रोल और डीजल पर उपकर कम करने तथा कुछ जिंसों पर सीमा शुल्क कम करने का विपरीत प्रभाव हुआ। एक अनुमान के मुताबिक इनके चलते बजट पर कुल 3.3 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी के 1.3 फीसदी के बराबर प्रभाव आया। यह बात सरकार की घाटे के प्रबंधन की क्षमता पर असर डालती है।
परंतु जुलाई के पहले सप्ताह तक मिजाज बदला। सरकार का राजस्व बढ़ाने के लिए कई उपाय किए गए। इसमें ईंधन निर्यात पर कर और तेल खनन कंपनियों पर उपकर शामिल था। इससे 3.3 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ करीब आधा होने की संभावना बनी। कर राजस्व में बेहतरी के बीच राजकोषीय प्रबंधन का काम कम कठिन नजर आने लगा। इस बीच वित्त मंत्रालय भी आश्वस्त बना रहा कि वह उच्च पूंजीगत व्यय लक्ष्य को हासिल कर लेगा।
इसके विपरीत रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने और रुपये को स्थिर रखने के अपने काम में संघर्ष करता नजर आया। इस बीच 2022-23 के पहले तीन महीनों में उसका विदेशी मुद्रा भंडार करीब 19 अरब डॉलर कम हुआ। मुद्रास्फीति को 4 फीसदी के दायरे में लाने के लिए मौद्रिक नीति समिति के जरिये और अधिक हस्तक्षेप की मांग के बीच आरबीआई पर निश्चित रूप से यह दबाव है कि वह मौद्रिक नीति और मुद्रास्फीति प्रबंधन की सर्वोच्च संस्था के रूप में पहल करे।
वित्त मंत्रालय अवश्य राहत की सांस ले रहा होगा कि कठिन हालात के बावजूद उसे उस तरह अपनी छवि का प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है जैसी कि रिजर्व बैंक को है। यह सिलसिला कब तक चलेगा यह बहसतलब बात होगी।
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