क्या राम चंद्र प्रसाद सिंह (पूर्व केंद्रीय इस्पात मंत्री जिन्हें ज्यादातर लोग आरसीपी सिंह के नाम से जानते हैं) की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार से विदाई, जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रिश्तों में तनाव का परिणाम है? या फिर वह इस बात का प्रतीक हैं कि बिहार का कितनी तेजी से क्षरण हुआ है? राज्य सभा में आरसीपी का कार्यकाल बीते दिनों समाप्त हो गया और नीतीश कुमार ने उन्हें दोबारा उच्च सदन में नहीं भेजा। अगर उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता तो यह उनका तीसरा कार्यकाल होता। बहरहाल, मोदी ने संकेत किया कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। उनके पास एक अनकहा विकल्प भी था-वह भाजपा में शामिल हो सकते थे। आरसीपी ने इस विकल्प को ठुकरा दिया। इस लिहाज से कहें तो वह राजनीति के शिकार हो गए। लेकिन इस तरह देखें तो बिहार में राजनीति हमेशा शासन पर हावी रही है। हालांकि सन 2005 में शुरू हुए नीतीश कुमार के बतौर मुख्यमंत्री पहले कार्यकाल में ऐसा नहीं था। बिहार लालू-राबड़ी राज के दौर से उबरने की कोशिश कर रहा था। हालात इतने खस्ता थे कि सरकार की छोटी से छोटी पहल भी बड़े परिणाम दर्शाती थी। नीतीश कुमार ने सड़क निर्माण को अधोसंरचना क्षेत्र की प्रमुख पहल बनाया। लड़कियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल, मुफ्त गणवेश, मुफ्त भोजन और किताबें आदि देकर उन्होंने उन्हें प्रोत्साहित किया। इससे बिहार में बच्चियों के स्कूल छोड़ने के मामले आधे हो गए। सन 2006 में बिहार देश का पहला राज्य था जिसने राज्य की 8,000 पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। स्कूलों की इमारतों में सुधार किया गया। शिक्षकों की नियुक्ति उन पंचायतों द्वारा की गई जहां महिलाओं का नेतृत्व था। इसके बाद नीतीश कुमार ने शराबबंदी लागू कर दी। यह काम बिना ऐसी अफसरशाही के नहीं हो सकता था जो बदलाव को लेकर उतनी ही प्रतिबद्ध थी जितने कि खुद नीतीश कुमार। अफसरशाही के ऐसे ही एक सदस्य थे आरसीपी सिंह। आरसीपी सिंह उत्तर प्रदेश काडर के आईएएस अधिकारी थे। उन्होंने 2010 में समय से पहले अफसरशाही छोड़ दी और वह राजनीति में आ गए। उन्होंने अंधेरे में छलांग नहीं लगाई थी। उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने आरसीपी और नीतीश का परिचय कराया था। आरसीपी सिंह जेएनयू से पढ़े थे और बाद में वह आईएएस बने थे। इस प्रकार वह एक आदर्श बिहारी थे। खासतौर पर यह देखते हुए कि वह नीतीश कुमार की तरह ही कुर्मी जाति से आते थे और उन्हीं के जिले नालंदा के रहने वाले थे। सामाजिक रूप से वंचित वर्ग से आने के बावजूद उन्होंने हालात को बदलते हुए एक मुकाम हासिल किया। नीतीश कुमार जब वाजपेयी सरकार में रेलवे और कृषि मंत्री बने तो आरसीपी मंत्रालय में उनके साथ थे। 2005 में जब कुमार मुख्यमंत्री बने तो आरसीपी उनके मुख्य सचिव के रूप में पटना आ गए। सन 2010 में आईएएस की नौकरी छोड़ने के बाद वह तत्काल राज्य सभा सदस्य बन गए। पटना में उन्हें पहले ही नीतीश कुमार प्रशासन का सबसे भरोसेमंद व्यक्ति माना जाता था। दिल्ली में जदयू की लाइन और उसकी रणनीति का प्रबंधन करते हुए उनका संपर्क अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं से हुआ खासतौर पर भाजपा के नेताओं से। 2016 में जब उन्हें दोबारा राज्य सभा सदस्य और पार्टी का नेता बनाया गया तो ऐसा लगा कि वह पार्टी में सत्ता का महत्त्वपूर्ण स्तंभ बन गए हैं। उन्हें पार्टी का अध्यक्ष भी बनाया गया। कई आईएएस अधिकारियों ने नौकरियां छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया था। कई वरिष्ठ मंत्री भी बने थे लेकिन वह शायद इकलौते सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी थे जो एक बड़े राजनीतिक दल का अध्यक्ष बने। उस वक्त यही लगा कि वह लगातार प्रगति करेंगे। लेकिन शायद आरसीपी को लगा कि वह कुछ बातों को हल्के में ले सकते हैं। इनमें से एक बात तो वह काम ही था जिसके लिए उन्हें नियुक्त किया गया था: जदयू और भाजपा के बीच रिश्तों का प्रबंधन करना। जब उनके सबसे कटु प्रतिद्वंद्वी प्रशांत किशोर को जदयू से बाहर किया गया तो उन्होंने अपने ट्वीट में आरसीपी सिंह को इसका जिम्मेदार बताते हुए लिखा, ‘नीतीश कुमार, मैं जदयू में कैसे और क्यों शामिल हुआ इस बारे में आपका झूठ बोलना गजब है। मुझे अपने ही रंग का दिखाने की आपकी पार्टी की यह खराब कोशिश है। और अगर आप सच बोल रहे हैं तो कौन यकीन करेगा कि आप में अब भी यह साहस है कि आप अमित शाह द्वारा अनुशंसित किसी व्यक्ति की बात न सुनें।’ उनका इशारा यह था कि आरसीपी सिंह अमित शाह के एजेंट हैं। कुमार को किशोर की बातों पर यकीन नहीं था। आरसीपी को जल्दी ही पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया और केंद्रीय मंत्री बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। इसके बाद अचानक उनकी राज्य सभा की सीट छीन ली गई। पटना के स्ट्रैंड रोड पर स्थित उनका सरकारी बंगला किसी और को आवंटित कर दिया गया है। जदयू के सत्ता के ढांचे से आरसीपी को अत्यंत क्रूर ढंग से बाहर कर दिया गया। दूसरी ओर, बिहार को उनको हटाकर क्या मिलेगा? नीतीश कुमार प्रदेश में भाजपा को नियंत्रित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। भाजपा प्रशासनिक सुधार के नाम पर जो भी सुझाव देती है उसकी अनदेखी कर दी जाती है। ताजा मामला अग्निपथ विवाद का है। बिहार के युवाओं ने इस योजना के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया और काफी तोड़फोड़ की। जल्दी ही इस मामले में राजनीतिक रंग ले लिया जब भाजपा के वरिष्ठ नेता हरि भूषण ठाकुर ने जदयू नेताओं उपेंद्र कुशवाहा और लल्लन सिंह था राज्य के मुख्य सचिव आमिर सुभानी को हिंसा का जिम्मेदार ठहराया। ध्यान रहे गृह मंत्रालय नीतीश कुमार के पास है। अफसरशाह से राजनेता बनने वाले अन्य लोगों मसलन ओडिशा के प्यारी मोहन महापात्र आदि की तरह संभव है आरसीपी भी समय के साथ ओझल हो जाएं। यह भी हो सकता है कि ऐसा न हो। लेकिन नीतीश कुमार के सामने अब एक बड़ा सवाल है: उन्हें शासन और राजनीति के बीच चयन करना होगा। ऐसा इसलिए कि दोनों काम एक साथ नहीं सध रहे हैं।
