फिलहाल कोई राहत नहीं | संपादकीय / July 07, 2022 | | | | |
लंबे समय से छिड़ी जंग और कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में मंदी की आशंका ने कच्चे तेल की कीमतों को अनुमान से एकदम परे बना दिया है। जरा इस बात पर विचार कीजिए: अमेरिका के सबसे बड़े वित्तीय संस्थानों में से एक मानता है कि मंदी की स्थिति में कच्चे तेल की कीमतें 65 डॉलर प्रति बैरल तक गिरेंगी। एक अन्य बड़े वित्तीय संस्थान के मुताबिक तेल कीमतें 380 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई छू सकती हैं। इन दोनों पूर्वानुमानों के नतीजे वैश्विक और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एकदम विपरीत हो सकते हैं।
रूस के पूर्व राष्ट्रपति दमित्रि मेदवेदेव कह चुके हैं कि उनके देश से आने वाले तेल की कीमतों की सीमा तय करने से कीमतें 300-400 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं। तेल कीमतों की दिशा भारत के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होगी। चूंकि भारत बड़े पैमाने पर तेल का आयात करता है इसलिए अगर कीमतें 65 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रहती हैं तो उसे बहुत लाभ पहुंचेगा। बहरहाल, मंदी की स्थिति में ऐसा हो सकता है और यह बात देश की अर्थव्यवस्था को अलग-अलग तरह से प्रभावित करेगी।
मंदी की आशंकाओं के चलते तेल वायदा (वेस्ट टैक्सस इंटरमीडिएट) की कीमत मंगलवार को मई के बाद पहली बार 100 डॉलर प्रति बैरल से कम हो गई लेकिन उन्होंने उसके बाद कुछ हद तक वापसी भी कर ली। मंदी की आशंका अन्य जिंसों की कीमतों को भी प्रभावित कर रही है। उदाहरण के लिए धातु कीमतों में काफी गिरावट आई है। वैश्विक उत्पादन भी कई कारणों से दबाव में है। यहां तक कि महामारी के कारण मची उथलपुथल के बाद हो रहा सुधार भी अपनी गति खो रहा है। बड़े केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए वित्तीय हालात सख्त करने पर मजबूर हैं। कोविड से उत्पन्न बाधाएं अभी भी दुनिया के कुछ हिस्सों में उत्पादन और आपूर्ति को प्रभावित कर रही हैं। जिंस कीमतों में कमी भारत के लिए अच्छी खबर है लेकिन वैश्विक मंदी निर्यात और वृद्धि को प्रभावित करेगी। यदि वैश्विक आर्थिक हालात और बिगड़ते हैं तथा भूराजनीतिक कारणों से तेल कीमतें ऊंची बनी रहती हैं तो हालात और बिगड़ सकते हैं। भारत को ऐसी स्थितियों की तैयारी रखनी चाहिए।
पश्चिम की ओर से रूस पर दबाव बनाने के लिए तेल निर्यात की कीमतों को सीमित किया जा सकता है या यूरोप के गैस आयात को कम किया जा सकता है। इससे ऊर्जा कीमतें ऊंची बनी रहेंगी।
इसके अलावा अगर यूक्रेन युद्ध आने वाले दिनों में समाप्त भी हो जाता है तो पश्चिम शायद रूस पर लगे प्रतिबंध हटाने में जल्दी न करे। ऐसे में तेल कीमतें ऊंची बनी रह सकती हैं और उनमें शायद तभी गिरावट आए जब विश्व स्तर पर भारी मंदी की स्थिति बने। देश का व्यापार घाटा जून में 25.63 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गया था और चालू खाते का घाटा भी चालू वित्त वर्ष में जीडीपी के 3 फीसदी के स्तर के पार हो जाने की आशा है। ऐसे समय पर जब पूंजी खाते से बड़े पैमाने पर पूंजी का बहिर्गमन हो रहा है, मुद्रा पर भी काफी दबाव होगा।
दुर्भाग्य की बात है कि इनमें से कोई संभावित निष्कर्ष भारत की वृहद आर्थिक बुनियाद के लिए सही नहीं है। नीति निर्माताओं के सामने चुनौती यह होगी कि वैश्विक प्रभाव को कम कैसे किया जाए। एक संभव तरीका यह भी हो सकता है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक हालात के साथ समायोजन करने लायक बना दिया जाए और यह काम सहज ढंग से हो। अर्थव्यवस्था को बचाने के प्रयासों से वित्तीय अस्थिरता आ सकती है। ऐसे में सरकार को तेल कीमतों का असर पड़ने देना चाहिए और रिजर्व बैंक को मुद्रा को खुद समायोजित होने देना चाहिए। चूंकि वैश्विक आर्थिक हालात निकट भविष्य में सुधरते नहीं दिखते, ऐसे में समायोजन में देरी से दीर्घकालिक दिक्कत पैदा हो सकती हैं। यकीनन बदलते वैश्विक आर्थिक हालात वृद्धि और मुद्रास्फीति पर असर डालेंगे। इनसे घरेलू नीतिगत हस्तक्षेपों की मदद से ही निपटा जाना चाहिए।
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