क्या देवेंद्र फडणवीस के हाथों में ही होगी असली ताकत? | आदिति फडणीस / July 04, 2022 | | | | |
देवेंद्र फडणवीस की उम्र उस वक्त महज चार साल की थी जब उनके पिता को आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने जेल में डाल दिया था। उनके पिता आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक रहे। फडणवीस स्थानीय इंदिरा कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते थे। एक सुबह उन्होंने अपनी मां से कहा कि अब वह स्कूल नहीं जाएंगे। वह उस महिला के नाम वाले स्कूल में पढ़ना नहीं चाहते थे जिन्होंने उनके पिता को जेल भेज दिया था।
अब वह उस राज्य के उप मुख्यमंत्री के रूप में अपने नए पद पर आसीन हो चुके हैं जहां वह दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वह मुख्य भूमिका में होंगे या मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे? हम जानते हैं कि उप मुख्यमंत्री के लिए कोई संवैधानिक जगह नहीं है। लेकिन उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार में उनके उप मुख्यमंत्री अजित पवार ही थे जो निर्णय लेने की पहल करते थे और वास्तव में उन सभी विधायकों की यही प्रमुख शिकायत भी थी जिन्होंने अपने नेता के खिलाफ विद्रोह किया था। ऐसे में यह सब उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जो पद पर आसीन है।
पिछली बार जब उन्होंने मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की थी जो एक ऐसा प्रकरण बना जिसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में सभी लोग भूलना चाहेंगे। 2019 की शरद ऋतु में महाराष्ट्र की राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। करीब 36 दिनों के नाटकीय घटनाक्रम के बाद उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने, अजित पवार का भाजपा में 'दलबदल' हुआ और बाद में उनकी 'वापसी' होने के साथ ही फडणवीस का इस्तीफा भी हुआ।
उस वक्त फडणवीस की स्थिति कमजोर थी। इसमें गृह मंत्री अमित शाह की भूमिका भी शामिल थी जो उस वक्त हरियाणा में सक्रिय थे (जहां चुनाव में वांछित परिणाम नहीं आए और गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी) लेकिन महाराष्ट्र में वह लगभग गायब ही थे।
इस बार, शाह उन लोगों में से एक थे जिन्होंने शिंदे से कनिष्ठ पद स्वीकार करने में फडणवीस के ‘बड़े दिल’ की घोषणा की थी। भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने इसी तरह फडणवीस को उस व्यक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश की है जो अनिच्छा से मुख्यमंत्री बन गए थे। हालांकि यह तर्क असंगत है, लेकिन यह कारगर भी हो सकता है। भाजपा में यह विचार ज्यादा प्रभावी है कि पार्टी को कम से कम उद्धव से छुटकारा मिल गया और अब हम एक नई पटकथा कैसे लिख सकते हैं।
राज्य के क्षितिज पर कई चुनौतियां हैं। महाराष्ट्र में महामारी से उबरने के इस दौर में बुनियादी ढांचे का निर्माण पहली प्राथमिकता है। राज्य के इतिहास का सबसे बुरा दौर ठाकरे के खाते में डाल दिया गया। अब शिंदे और फडणवीस को संकट से बाहर निकलने का काम सौंपा गया है।
इसके अलावा बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) का चुनाव भी है। बीएमसी चुनाव, सभी स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर कानूनी विवादों से घिरा है। बीएमसी के निर्वाचित पार्षदों का पांच साल का कार्यकाल इस साल 7 मार्च को समाप्त हो गया था। उच्चतम न्यायालय ने 4 मार्च, 2021 को अपने फैसले में महाराष्ट्र में स्थानीय निकायों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को इस आधार पर रद्द कर दिया कि आरक्षण को सही ठहराने के लिए कोई अनुभवजन्य डेटा नहीं था। इसका विस्तार बीएमसी तक हो गया।
उद्धव सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके कहा कि अगर ओबीसी आरक्षण नहीं है तब स्थानीय निकाय चुनाव नहीं होंगे। इसके बाद उसने एक अध्यादेश लाने की भी कोशिश की। शीर्ष अदालत ने अध्यादेश पर रोक लगा दी। 3 मार्च को उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की अंतरिम रिपोर्ट को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जिसमें स्थानीय निकायों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई थी। अदालत का तर्क यह था कि इसे अनुभवजन्य अध्ययन के बिना तैयार किया गया था।
दुनिया का सबसे अधिक पूंजी वाला नगर निकाय बीएमसी 1984 के बाद इस वक्त पहली बार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी द्वारा संचालित किया जा रहा है। भाजपा नेता चंद्रकांत पाटिल ने कहा है कि उन्हें अक्टूबर में बीएमसी चुनाव होने की उम्मीद है। यह स्पष्ट है कि उद्धव के नेतृत्व वाली शिवसेना और भाजपा अलग-अलग चुनाव लड़ेगी। शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना निश्चित रूप से भाजपा के साथ समझौता करने के लिए सहमत होगी। अपनी प्रतिष्ठा और पक्ष को मजबूत करने के लिए फडणवीस को भाजपा के लिए चुनाव जीतना चाहिए।
जब गठबंधन सत्ता में था तब भाजपा को शिवसेना से जो छींटाकशी का सामना करना पड़ा था, वह शायद कम ही था। लेकिन अब फडणवीस को अपने विरोधियों का प्रबंधन करना होगा और यह कई तरह से होगा। यह भी याद रखना होगा कि उद्धव सरकार में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के पास भी ताकत थी और अब उसे उस ताकत को खोना पड़ा है। भाजपा के लिए, शिंदे-फडणवीस की टीम को जोड़ना यह पूरी तरह से एक नया प्रयोग है। आने वाले दिनों में जिम्मेदारियों का बंटवारा किया जाएगा और इससे यह संकेत मिलेगा कि वास्तविक शक्ति का केंद्र कौन है। शिंदे और उनके समर्थकों पर भाजपा में विलय का दबाव भी बढ़ेगा।
वहीं दूसरी ओर शिंदे उद्धव के नेतृत्व वाली शिवसेना को तोड़ने के लिए अधिक उत्साहित हो सकते हैं, अगर उन्हें यह दावा करने का मौका दिया जाए कि वही असली शिवसेना हैं और बालासाहेब ठाकरे की विरासत के वारिस हैं। इसके अलावा शिंदे जानते हैं कि वह संभवतः अपने सभी वफादार विधायकों को मंत्री नहीं बना सकते हैं। ऐसे में आखिर वे कैसे संतुष्ट होंगे? निश्चित रूप से उन्हें संतुष्ट करने के लिए भाजपा को खेल खेलना होगा। महाराष्ट्र की राजनीति अब नए मोड़ की ओर बढ़ रही है।
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