अंतरराष्ट्रीय व्यापार बने राजनीतिक प्राथमिकता | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / July 02, 2022 | | | | |
हाल में संपन्न विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की बैठक में भारत के रुख का मजाक बनाते हुए पश्चिमी आर्थिक मीडिया में कुछ आलोचनात्मक लेख लिखे गए हैं। जब इस तरह आपके देश का मजाक बनाया जाता है तो बड़ी तकलीफ होती है। लेकिन सच कहा जाए तो यह उपहास का पात्र है क्योंकि भारत सरकार को 1960 से नहीं पता कि अंतरराष्ट्रीय कारोबार क्या है।
मैंने 1980 में भारतीय व्यापार नीति का अध्ययन शुरू किया। इसके लिए मुझे अब बंद हो चुकी उस पत्रिका के संपादक ने कहा था, जिसके लिए मैं काम करता था।
वर्ष 1987 में इक्रियर ने मुझे गैट समझौते में सेवाओं को शामिल करने पर एक शोध पत्र लिखने को कहा। इसके नतीजतन 1988 में आए पत्र का सार था कि भारत का भविष्य तकनीक आधारित, बिना व्यक्तिगत मौजूदगी वाली सेवाओं में है। हालांकि यह पत्र कभी प्रकाशित नहीं हुआ क्योंकि इसकी 'शैली काफी अधिक पत्रकारिता' वाली थी।
वर्ष 1989 में इकनॉमिक टाइम्स के संपादक मनु श्रॉफ ने मुझे व्यापार नीति पर ध्यान देने को कहा। श्रॉफ खुद एक व्यापार अर्थशास्त्री और शानदार अर्थशास्त्री थे। इस तरह मैं डंकेल प्रारूप पर एक विशेषज्ञ बन गया। यही डंकेल प्रारूप उस उरुग्वे दौर की बातचीत का आधार बना, जिसमें डब्ल्यूटीओ का गठन हुआ। निस्संदेह भारत ने 1983 में उस दिन तक इसका विरोध किया, जब इसने अपने तहत आने वाली सेवाओं का समर्थन शुरू कर दिया।
1990 के दशक में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अशोक देसाई अमूमन कहा करते थे कि भारत में न व्यापार है और न ही नीति। उनका यह कहना बिल्कुल सही था। देसाई बाद में इस समाचार पत्र में सहकर्मी भी बने। अब सबसे अजीब चीज यह है कि उस समय के बाद सभी तरह के उदारीकरण हो चुके हैं, लेकिन भारत में अब भी उचित व्यापार नीति नहीं है। हम अब भी ‘खाली स्थान को भरने’ की पुरानी परिपाटी पर ही चल रहे हैं।
मेरा मानना है कि इसके तीन कारण है, जिनका एक-दूसरे से सीधा संबंध है। पहला कारण यह है कि देश में कोई स्थायी व्यापार अफसरशाही नहीं है, जो व्यापार मुद्दों को लेकर ठीक से प्रशिक्षित हो। इस वजह से नीति काफी हद तक उन अफसरशाहों द्वारा बनाई जाती है, जो इसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं। इन अफसरशाहों की जगह स्थायी नहीं होती है। उनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण होता रहता है।
दूसरा कारण यह है कि उद्योग और व्यापार के लिए आम तौर पर एक ही मंत्री होता है, लेकिन व्यापार नीति को कभी ठीक ढंग से औद्योगिक नीति के साथ नहीं जोड़ा गया। न ही ऐसा करने के अभी तक कोई गंभीर प्रयास किए गए। सेज महज स्थान की नीति थी।
यह खामी चौंकाने वाली है क्योंकि वर्ष 1947 में जब भारत में तुलनात्मक रूप से मुक्त व्यापार व्यवस्था थी, उस समय इसका निर्यात अधिशेष था और वैश्विक व्यापार में 2.3 फीसदी बाजार हिस्सेदारी थी। 1950 के दशक में कुछ ऐसा हुआ कि यह आत्मनिर्भरता के ज्यादा नजदीक आ गया।
इसके बाद के वर्षों में हमें कई बड़े संकटों का सामना करना पड़ा है, जिनकी जड़ें उपर्युक्त वजहों में निहित हैं। हर संकट ने डर बढ़ाया है। हर संकट ने इन कमजोरियों को मजबूत किया है।
एक प्रमुख कारोबारी राष्ट्र बनने में भारत की विफलता की वजह से अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में इसके साथ अड़ंगा डालने वाले देश के रूप में बरताव किया जाता है। कम से कम इन वार्ताओं में इसके प्रयास बहुत कमजोर रहे हैं।
लेकिन इन समस्याओं को अगले दशक या मोदी के तीसरे कार्यकाल में दुरुस्त किया जा सकता है। मोदी के तीसरे कार्यकाल के अभी काफी प्रबल आसार नजर आ रहे हैं। पहला कदम, जिसकी कमी 1955 से ही खल रही है, वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार और समीकरणों की बारीकियों को राजनीतिक प्राथमिकता देना है। भारत में यह सबसे मुश्किल काम है। ऐसे में इस पर तुरंत काम शुरू किया जाना चाहिए।
दूसरा कदम वाणिज्यिक मंत्रालय के पुनर्गठन द्वारा स्थायी व्यापार अफसरशाही का गठन करना है। इस समय हमारे पास जो है, वह एक भद्दे मजाक से भी बदतर है।
तीसरा कदम रुपये को कमजोर होने दिया जाए और मुद्रा से छेड़छाड़ की अमेरिकी वॉचलिस्ट पर कभी ध्यान न दें। प्रत्येक तार्किक आकलन दर्शाता है कि यह करीब 88 प्रति डॉलर होना चाहिए।
1950 के दशक के मध्य से असल में भारत व्यापार को लेकर भयभीत रहा है। यह ज्यादा व्यापार की तुलना में कम व्यापार को तरजीह देता है, लेकिन कहता इससे उलट है। भाजपा को यह भय दूर करना चाहिए।
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