अव्यवस्था का शिकार है हमारा स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र | जैमिनी भगवती / July 02, 2022 | | | | |
कई ऐसे अध्ययन हैं जो देश के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में पोलियो उन्मूलन जैसी सफलताओं और निजी तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी जैसी नाकामियों, दोनों का दस्तावेजीकरण करते हैं। यह स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का ही नतीजा था कि कोविड-19 महामारी के कारण देश में हुई मौतों के आधिकारिक आंकड़ों तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के बीच इतना अधिक अंतर देखने को मिला। इस आलेख में हम देश में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के बारे में बात नहीं करेंगे। बल्कि हम यह चर्चा करेंगे कि दिल्ली और आसपास रहने वाले तथा निजी क्षेत्र में काम करने वाले और प्रतिमाह लगभग 30,000 रुपये तक का वेतन पाने वाले लोगों के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवा हासिल करना कितना मुश्किल है। साथ ही यह भी कि अपेक्षाकृत अमीर वर्ग के लोगों के लिए उचित चिकित्सा सलाह पाना कितना मुश्किल या आसान है।
53 वर्षीय अविनाश चंद्र (बदला हुआ नाम) का उदाहरण लेते हैं। अविनाश दक्षिण दिल्ली में रहने वाले एक परिवार का वाहन चलाते हैं। निजी अस्पताल में महंगी स्वास्थ्य सेवाओं को देखते हुए उनके नियोक्ता ने अविनाश को सुझाव दिया कि उनको दिल्ली अथवा केंद्र सरकारों के अस्पतालों या म्युनिसिपल अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता और उनकी लागत का पता लगाना चाहिए। उन्होंने अपने नियोक्ता को बताया कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा की लागत तो कम है लेकिन वहां भर्ती होने के लिए बहुत लंबा इंतजार करना पड़ता है। बस उन्हीं लोगों को तत्काल भर्ती किया जाता है जो सड़क दुर्घटना या अन्य किसी वजह से घायल होकर अस्पताल पहुंचते हैं।
जमीनी हकीकत को जानकर उनके नियोक्ता ने कई निजी बीमा कंपनियों से संपर्क किया और अविनाश, उनकी पत्नी और अवयस्क बेटी के लिए एक बीमा कंपनी से बीमा पॉलिसी खरीदी। इस कंपनी का मुख्यालय मुंबई में था। यह स्वास्थ्य बीमा खरीदने के कुछ ही महीनों बाद अविनाश की पत्नी को भयंकर पेट दर्द शुरू हो गया। उन्हें तत्काल निजी अस्पताल में ले जाना पड़ा। अल्ट्रासाउंड से पता चला कि उनके गर्भाशय में फाइब्रॉइड हैं और चिकित्सा सलाह में कहा गया कि उनका गर्भाशय तत्काल निकालना होगा।
अविनाश ने बीमा कंपनी से संपर्क किया जिसने बताया कि गर्भाशय का निकाला जाना दो वर्ष तक उनकी बीमा पॉलिसी में शामिल नहीं है, हालांकि अस्पताल में भर्ती होने पर वापस मिलने वाली राशि की सालाना सीमा 5 लाख रुपये थी। अविनाश के नियोक्ता इस सूचना की सत्यता को लेकर संतुष्ट नहीं थे लेकिन उन्होंने पाया कि ऐसी ही परिस्थितियों में मुंबई की एक अन्य बड़ी बीमा कंपनी भी गर्भाशय निकालने को बीमा में शामिल नहीं करती।
बीमा कंपनी से आगे और बात करने पर अविनाश के नियोक्ता को पता चला कि 30,000 रुपये सालाना प्रीमियम वाले इस बीमा का दायरा बहुत अधिक सीमित है। उदाहरण के लिए पहले से चली आ रही किसी भी बीमारी के इलाज के लिए कम से कम तीन वर्ष का समय बीत जाना जरूरी था। इसके अलावा मोतियाबिंद, हार्निया, गर्भाशय निकालने, जोड़ बदलना, गर्भावस्था, दांत के उपचार और बाहरी उपकरणों के लिए कम से कम दो वर्ष का समय बीतना आवश्यक था। जन्मजात बीमारियां और गैर एलोपैथिक उपचार भी इसमें शामिल नहीं हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर क्यों सस्ते आयुर्वेदिक उपचार को इसमें शामिल नहीं किया जाना चाहिए। प्रभावी ढंग से देखा जाए तो इसमें वे सभी चोट शामिल हैं जो किसी व्यक्ति को दुर्घटनावश लगती हैं और वह अस्पताल भागता है। चाहे जो भी हो सरकार और निजी अस्पताल आपात स्थितियों में चिकित्सा सुविधा देने के लिए वैसे भी बाध्य हैं। ऐसे में यह बात चकित करने वाली है कि भारतीय बीमा नियामक एक निजी बीमा कंपनी को इतने अधिक अपवाद अपनाने का अवसर देता है।
इस समय अविनाश की पत्नी की हालात लगातार बिगड़ती देखकर नियोक्ता ने निजी अस्पतालों से बात की और उन्होंने गर्भाशय निकालने के लिए 80,000 से 1.10 लाख रुपये का खर्च बताया। उपयुक्त विकल्प की तलाश चल ही रही थी कि अविनाश के नियोक्ता की मुलाकात एक महिला चिकित्सक से हुई जो केंद्र सरकार के एक चिकित्सालय में स्त्री रोग विभाग की अध्यक्ष थीं। उन्होंने उनसे सारा वाकया कह सुनाया। अविनाश को भी लगा कि सरकारी अस्पताल में उनकी पत्नी के साथ कुछ गलत होने की संभावना कम है। आखिरकार बीमारी का पता लगने के दो महीने बाद इसी सरकारी अस्पताल में 42,000 रुपये में अविनाश की पत्नी की शल्य चिकित्सा पूरी हो गई।
अगर संयोग से वह महिला चिकित्सक नहीं मिलती तो यह शल्य चिकित्सा दो माह में न हो पाती। शल्य चिकित्सक ने अविनाश को बताया कि इस प्रतिष्ठित शासकीय अस्पताल में यह शल्य चिकित्सा आठ से नौ महीने की प्रतीक्षा के बाद ही हो पाती है।
लगभग इसी समय अविनाश के नियोक्ता ने एक निजी अस्पताल में सामान्य जांच के बाद पाया कि उनके दिल की एक धमनी 95 प्रतिशत ब्लॉक है। उनका रक्तचाप सामान्य था और उन्हें कभी दिल का दर्द भी नहीं हुआ था। उन्होंने कई हृदयरोग विशेषज्ञों से बात की और सब ने उनको यही सलाह दी कि वे एंजियोप्लास्टी करा लें। उन्हें यह भी कहा गया कि वे खून पतला करने वाली दवाएं लें और जरूरत के मुताबिक एक या अधिक स्टेंट डलवा लें।
उनका छोटा भाई चिकित्सक था और वह न्यूयॉर्क के एक अस्पताल में पढ़ाता था। उसने उन्हें अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान द्वारा 2020 में किए गये एक अध्ययन के बारे में बताया जिसमें कहा गया था, ‘जीवन गुणवत्ता और चिकित्सकीय नतीजों को देखें तो यही पता चलता है कि बिना लक्षण वाले मरीजों में स्टेंट की आवश्यकता नहीं है।’ इसके अलावा इस अध्ययन के प्रमुख लेखक स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय में प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के निदेशक डॉ. डेविड मैरॉन ने शोध का हवाला देते हुए कहा है कि जिन लोगों को दिल का दर्द शुरू भी हुआ हो उनके लिए औषधियों और जीवनशैली में बदलाव से उपचार शुरू करना उचित रहता है और लक्षण बरकरार रहने पर ही उन्हें अन्य उपचार दिए जाने चाहिए। आश्चर्य की बात है कि दिल्ली के बड़े अस्पतालों में बैठे हृदयरोग विशेषज्ञों ने इस शोध के विषय में कोई जानकारी नहीं दी। ऐसा लगता है कि इन चिकित्सकों के निष्कर्ष राजस्व के तय लक्ष्यों से जुड़े हुए थे। अविनाश और उनके नियोक्ता के अनुभव बताते हैं कि कम प्रभावशाली लोगों के लिए सस्ती चिकित्सा और अमीरों के लिए सही पेशेवर राय की कितनी कमी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अमीरों और गरीबों के लिए स्वास्थ्य सुविधा सीमित बीमा कवरेज, सरकारी अस्पतालों में अपर्याप्त नर्स, चिकित्सक, निजी अस्पतालों में महंगी चिकित्सा और बीमारी के बारे में गलत जानकारी आदि से भरी हुई है। इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि दो लोगों के अनुभवों के आधार पर टिप्पणी करना देश में स्वास्थ्य के हालात के साथ अन्याय भी होगा।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
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