गत माह अपने स्तंभ में मैंने नीति आयोग में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया था। यह सवाल भी किया गया कि मेरे उस प्रस्ताव का क्या अर्थ था जिसमें मैंने कहा था कि इसे विकास रणनीति का आला कमान बन जाना चाहिए। जाहिर है यह उपमा रक्षा संस्थान से ली गई है और वह सैन्य नियोजन से ताल्लुक रखती है। इस उपमा पर आगे बात करते हुए यह बताया जा सकता है कि विकास की योजना कैसे तैयार की जाए और व्यापक रणनीति, व्यापक युक्ति और युक्ति के संदर्भ में इसे कैसे क्रियान्वित किया जाए। विकास के लिए व्यापक रणनीति के स्तर पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां तथा विकल्प चिह्नित किए जाते हैं और विकास के लिए एक नजरिया पेश किया जाता है। सैन्य व्यापक रणनीति की तरह यहां राजनीतिक और पेशेवर आयामों के बीच संपर्क होता है। कामकाजी रणनीति के स्तर पर दीर्घावधि का नजरिया अधिक संक्षेप में तथा मध्यम अवधि के लक्ष्यों तथा नीतिगत प्राथमिकताओं के क्षेत्र में अधिक बंटे हुए ढंग से सामने आता है। खासतौर पर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भूमिकाओं का संकेत देने तथा संसाधनों के आवंटन में बदलाव का संकेत देने के मामले में। व्यापक युक्तियों के स्तर पर या शायद अधिक उपयुक्त कार्य योजना के स्तर पर काम का एक ढांचा बनाया जाता है। यह ढांचा नीतिगत बदलाव तथा संसाधन आवंटन से जुड़े निर्णयों के आधार पर इस प्रकार बनाया जाता है ताकि लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सके। युक्ति के स्तर पर या क्रियान्वयन के मामले में क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी इकाइयां मध्यम अवधि के लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रयास करती हैं। वस्तु एवं सेवा कर के उभार से इन चार कदमों से संबंधित कुछ उपयोगी कदमों के उदाहरण मिल सकते हैं। व्यापक रणनीति के परिणामस्वरूप ही एकीकृत अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था सामने आई जिसका इरादा हमें एक राष्ट्रीय बाजार के करीब लाने का था। इसकी परिकल्पना अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में की थी। असिम दासगुप्ता समिति और विजय केलकर समिति ने क्रियान्वयन की रणनीति तैयार की और पहले वित्त मंत्री पी चिदंबरम और फिर अरुण जेटली ने केंद्र और राज्यों के बीच बातचीत के जरिये इसे आगे बढ़ाया। कुछ राजनीतिक रुकावट के बाद आखिरकार 2017 में जीएसटी कानून के रूप में नतीजा सामने आया। दरें तय करने और डेटा प्रणाली को व्यापक रणनीति के समकक्ष माना जा सकता है, कर अधिकारियों द्वारा जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन को युक्ति माना जा सकता है। जहां तक बात विकास की है तो फिलहाल सबसे बड़ा अंतर यही है कि ऐसी व्यापक रणनीति का अभाव है जो राजनीतिक चिंताओं, विकास संबंधी चुनौतियों तथा अवसरों सभी को परिलक्षित करे। यह सर्वोच्च राजनीतिक प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी होनी चाहिए। हालांकि व्यापक सैन्य रणनीति के इतर व्यापक विकास रणनीति में केंद्र और राज्य के सर्वोच्च तंत्र को शामिल होना चाहिए। इसे समता और स्थायित्व के साथ वृद्धि जैसे सामान्य लक्ष्यों से परे भी जाना चाहिए। विकास की व्यापक रणनीति बनाने के लिए जिन राजनीतिक चयनों की आवश्यकता होती है उनकी भी सूची बनायी जा सकती है: देश में वृद्धि पश्चिमोत्तर, पश्चिमी और दक्षिणी इलाकों में सीमित है। क्या विकास को सार्वजनिक समर्थन को नीतियों और व्यय की मदद से देश के उत्तरी और पूर्वी इलाकों के लिए स्थानांतरित किया जाना चाहिए? भले ही इससे समग्र वृद्धि में कुछ कमी आये। देश की जनांकीय संभावनाओं को देखते हुए रोजगार तैयार करना, खासकर उत्तर भारत में रोजगार तैयार करना प्रमुख राजनीतिक चिंता है। क्या सार्वजनिक नीति में इसी पर ध्यान दिया जाना चाहिए? भारत के बाजार के आकार को देखते हुए क्या उसे एकीकृत आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ना चाहिए या फिर वैश्विक आपूर्ति शृंखला में अहम भूमिका निभानी चाहिए? क्या उद्योग और सेवा क्षेत्र के लिए यह उत्तर अलग-अलग होना चाहिए? क्या यह कृषि के लिए भी प्रासंगिक है? व्यापार और निवेश संपर्क की आक्रामक तलाश के राजनीतिक रूप से स्वीकार्य विकल्प क्या हैं? चीन या अमेरिका, यूरोप या जापान? वृद्धि की अनिवार्यताओं को देखते हुए जलवायु परिवर्तन तथा अन्य उभरते पर्यावरण संबंधी जोखिम से बचने के प्रयास अपनाने पर कितना जोर होना चाहिए? उदाहरण के लिए ताजे पानी का बढ़ता संकट? सवालों की इस सूची में और भी बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से एक प्रक्रिया शुरू करने की आवश्यकता है ताकि किए गये चयन को विकास की व्यापक रणनीति में बदला जा सके। नीति आयोग का काम है इन बातों को विश्लेषणात्मक समर्थन मुहैया कराना। एक सुसंगत व्यापक रणनीति नीति आयोग के मध्यम अवधि की नीति बनाने के काम को एक प्रस्थान बिंदु मुहैया कराती है जिसे इस प्रकार डिजाइन किया जाता है कि प्रस्तावित चयनों को क्रियान्वित किया जा सके। इस कार्यशील रणनीति को आर्थिक मानकों के पूर्वानुमान से बहुत परे जाकर जरूरी सार्वजनिक व्यय की दिशा में ले जाना होगा। तीन ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर रणनीति बनाते समय विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए: विदेशी व्यापार और निवेश नीति, शोध एवं विकास प्राथमिकताएं तथा पर्यावरण प्रबंधन। दरअसल इनका प्रभाव सभी क्षेत्रों पर पड़ता है इसलिए इनसे संबंधित विभागों को रणनीति निर्माण में शामिल करना चाहिए। राजनीतिक चयन भी इस व्यापक रणनीति निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा हैं। जो चयन अगले चरण की रणनीति बनाने की दृष्टि से अधिक प्रासंगिक होते हैं, वे नीतिगत विकल्पों के बीच होते हैं और इसका अर्थ है सरकार के भीतर और बाहर राजनीतिक से पेशेवर स्तर के बीच संवाद की गति। नीति आयोग इसके लिए उपयुक्त है। नीति आयोग द्वारा तैयार नीति को यकीनन केंद्र और राज्यों की मंजूरी की जरूरत होगी। ऐसे में रणनीति कैसे तैयार हो मध्यम अवधि की योजना के रूप में या फिर नीतिगत और सार्वजनिक व्यय को लेकर निर्देशों के रूप में? शायद मौजूदा चरण में बाद वाला विकल्प अधिक उपयोगी है। नीति आयोग द्वारा बनायी गई मध्यम अवधि की रणनीति का सबसे उपयोगी उत्पाद होगा गुणात्मक और मात्रात्मक लक्ष्य। एक कार्ययोजना इन्हें अधिक विशिष्ट परियोजना कार्यक्रमों तथा नीतिगत सुधारों में बदलेगी। ये प्राथमिक तौर पर केंद्र और राज्य के स्तर पर मंत्रालयों की जिम्मेदारी होंगे। नीति आयोग को कुछ निगरानी के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि इन व्यापक विकास युक्तियों के निर्माण में सुसंगतता बनी रहे। इन सारी बातों को जमीनी स्तर पर काम में बदलने या इनका क्रियान्वयन करने की जिम्मेदारी प्राथमिक तौर पर अफसरशाही की होगी। परंतु इसके लिए ताकत और प्रभाव के कुछ अन्य स्रोतों मसलन निगमों और स्थानीय निकायों के बीच कुछ मत परिवर्तन की आवश्यकता होगी। चार चरणों वाली इस व्यवस्था का यह अर्थ नहीं है कि सबकुछ योजना के मुताबिक होगा लेकिन इस रुख का महत्व यह है कि जब चीजें अपेक्षा के अनुरूप न हो रही हों तब एक सुसंगत नीति उचित कदम का आधार देती है। समायोजन की यह क्षमता भारत के लिए खास तौर पर महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत अब विश्व अर्थव्यवस्था से अधिक जुड़ा हुआ है और उसमें शायद अपेक्षा के हिसाब से गति न हो। इस चार कदम वाले रुख में सीधी सपाट बात यह है कि यह प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक विकास कार्य से जुड़े हर व्यक्ति को बताता है कि हमारा लक्ष्य क्या है और क्यों है? वास्तव में यही नीति आयोग का काम है।
