पारिवारिक मामला | संपादकीय / July 01, 2022 | | | | |
मुकेश अंबानी के बड़े बेटे के रिलायंस समूह के दूरसंचार कारोबार रिलायंस जियो का चेयरमैन बनने और उनकी बेटी के रिलायंस के खुदरा कारोबार में इसी पद को संभालने की चर्चाओं के बीच टीकाकारों ने यह कहते हुए सराहना करना शुरू कर दी है कि समूह ने समय रहते उत्तराधिकार की योजना बना ली।
माना जा रहा है कि ऐसा करने से वैसी शर्मिंदा करने वाली सार्वजनिक विवाद की स्थिति नहीं बनेगी जैसी मुकेश अंबानी और उनके छोटे भाई अनिल अंबानी के बीच उनके पिता धीरूभाई अंबानी के निधन के बाद बन गई थी। पुराने कारोबारी समूहों मसलन मोदी, श्रीराम और सिंघानिया परिवारों की बात करें तो वहां ऐसा होता रहा है। सन 1980 और 1990 के दशक में इन सभी समूहों में कारोबारी परिसंपत्तियों पर नियंत्रण को लेकर विवाद की स्थिति बनी। बजाज और के के बिड़ला समूह उन पारंपरिक कारोबारी समूहों में आते हैं जिन्होंने अपने संस्थापकों के निधन के दशकों पहले उत्तराधिकार योजना स्पष्ट कर दी थी ताकि सहज सुगम परिवर्तन हो सके। सन 2000 के दशक के मध्य में रिलायंस में उत्पन्न विवाद को एक चेतावनी मानते हुए कई अन्य कारोबारी समूहों मसलन गोदरेज, टीवीएस और इमामी ने भी समय रहते उत्तराधिकारी तय करने को लेकर कदम उठाए।
अंबानी के बच्चे उम्र के तीसरे दशक में हैं और उत्तराधिकारी तैयार करने का यह निर्णय प्रमुख अंशधारक की दृष्टि से समझदारी भरा है। परंतु इसके बावजूद इस कदम को अच्छे कारोबारी संचालन का सूचक मानना कठिन है। ज्यादा से ज्यादा अंबानी की यह उत्तराधिकार घोषणा हमें यही याद दिलाती है कि आर्थिक उदारीकरण के तीन दशक बाद भी भारतीय कारोबार मजबूती से संस्थापक परिवारों के नियंत्रण में बने हुए हैं। प्रथम दृष्टया बेटे या बेटी को संस्थापक का उत्तराधिकारी बनाने में कुछ भी गलत नहीं है। ढेर सारे एशियाई उपक्रम पारिवारिक नियंत्रण वाले समूह हैं। बहरहाल, प्रश्न यह है कि क्या इस निर्णय को श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण माना जा सकता है। मिसाल के तौर पर इस प्रकार चुनिंदा तरीके से उत्तराधिकारी तय करना समूह में मौजूद सभी प्रतिभाशाली लोगों को हाशिये पर डाल देता है।
संभव है कि परिवार के बाहर के कुछ प्रतिभाशाली पेशेवर, घोषित उत्तराधिकारी की तुलना में ज्यादा सक्षम और प्रतिभासंपन्न हों। यह भी संभव है कि पारिवारिक उत्तराधिकारी खुद को मिले अवसरों की वजह से अत्यधिक सक्षम हो। लेकिन चूंकि पारिवारिक वारिसों को खुद को सबके बीच साबित नहीं करना पड़ता है इसलिए सक्षम समकक्षों के बीच उनकी वास्तविक प्रतिभा का आकलन करना मुश्किल होता है। इसके अलावा एक कारोबारी समूह में परिवार को तरजीह देना एक ऐसा काम है जिससे अंशधारकों का कोई मूल्यवर्द्धन शायद ही होता हो। रिलायंस समूह इसका अच्छा उदाहरण है। मुकेश अंबानी की उद्यमिता की भावना ने विरासत में मिले पुराने जमाने के तेल एवं पेट्रोकेमिकल कारोबार को भविष्य की कारोबारी संभावनाओं वाले समूह में बदल दिया और वह शेयर बाजार का चहेता है। इसके विपरीत उनके छोटे भाई को उच्च क्षमता संपन्न बिजली और दूरसंचार कारोबार मिला था लेकिन वह विफल रहे और शेयरधारकों को नुकसान उठाना पड़ा। वह भारी भरकम कर्ज में भी डूब गए।
निश्चित तौर पर बेटों और बेटियों को जल्दी नेतृत्व सौंपने से शेयरधारकों को भी भविष्य के बारे में सोचने और यह विचार करने का अवसर मिल जाता है कि उन्हें निवेश बनाए रखना चाहिए या नहीं। भारत में जहां कई वजहों से वैश्विक कारोबारों के साथ सीमित प्रतिस्पर्धा है वहां पुरानी प्रबंधकीय व्यवस्था चलती रह सकती है। इस संदर्भ में यह दिलचस्प है कि बड़े भारतीय समूहों में से अधिकांश वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धा करने के बजाय अंत:केंद्रित हैं। लेकिन यह एक बड़ा प्रश्न है कि क्या परिवार केंद्रित प्रबंधन के बीच भारतीय कारोबार आगे चलकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना कर पाएंगे?
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