राष्ट्रपति पद के लिए सोचा-समझा चयन हैं मुर्मू | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / June 27, 2022 | | | | |
मयूरभंज में अत्यधिक खुशी का माहौल है। ओडिशा के इस जिले की एक बेटी देश की राष्ट्रपति बनने वाली है। जिले का यह दूसरा सम्मान है। आईएएस अधिकारी और जम्मू कश्मीर के पूर्व उप राज्यपाल तथा देश के वर्तमान नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जी सी मुर्मू भी यहीं के रहने वाले हैं।
ओडिशा का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला जिला मयूरभंज यूं तो शांत जगह है लेकिन समय-समय पर यह चौंकाने की क्षमता रखता है। यह एक जटिल इलाका है और जरूरी नहीं कि यह हमेशा खुशनुमा ढंग से ही चौंकाए।
जनवरी 1999 में 30 वर्षों से इस क्षेत्र में कुष्ठपीड़ितों के बीच काम कर रहे मिशनरी ग्राहम स्टैंस को उनके 8 और 10 वर्ष के दो बेटों के साथ जिंदा जला दिया गया था। इस अपराध के लिए दारा सिंह उर्फ रवींद्र पाल को उम्र कैद की सजा मिली। वह ओडिशा का नहीं था लेकिन उसके साथ मयूरभंज के महेंद्र हेम्ब्राम, रामजन महंत और घनश्याम महंत भी सजा काट रहे हैं। दारा सिंह ने भीड़ की अगुआई की थी। लेकिन मयूरभंज में कुछ तो बात है जिसने अन्य स्थानीय लोगों को उद्वेलित किया।
कुछ वर्ष बाद पास के कंधमाल जिले में विश्व हिंदू परिषद के स्वामी लक्ष्मणानंद तथा उनके चार अनुयायियों की हत्या कर दी गई। इस मामले में आठ आदिवासियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
जहां ईसाई मिशनरी हैं वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसकी आदिवासी शाखा वनवासी कल्याण आश्रम अनिवार्य तौर पर होती हैं। इस क्षेत्र के वनांचल में आरएसएस ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है। द्रौपदी मुर्मू को भी इसका लाभ मिला। वह पढ़लिखकर शिक्षिका बनीं और जन सेवा की उनकी प्रतिभा करियर के शुरुआती दिनों में ही जाहिर हो गई थी।
द्रौपदी मुर्मू के आरंभिक दिनों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है लेकिन वह रायरंगपुर नगर पंचायत में पहले पार्षद और बाद में उसकी उपाध्यक्ष बनीं। वह ओडिशा में भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा की उपाध्यक्ष भी रहीं।
सन 2000 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव जीता और 2009 में वह दोबारा विधायक बनने में सफल रहीं। इस बीच वह राज्य सरकार में परिवहन एवं वाणिज्य तथा आगे चलकर मत्स्यपालन एवं पशुपालन मंत्री बनीं। यह वह दौर था जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और बीजू जनता दल और भाजपा का गठबंधन था। वाजपेयी और नवीन पटनायक के बीच भी आपसी समझ और स्नेह का रिश्ता था। बहरहाल, बाद में गठबंधन टूट गया और मुर्मू को अपना पद छोड़ना पड़ा। मंत्री रहने के बाद भी जब उन्होंने विधानसभा चुनाव के लिए हलफनामा दिया तो उसमें कहा कि उनके पास कोई घर नहीं है, बैंक में मामूली राशि है और थोड़ी सी जमीन है। वह 2004 में मयूरभंज से लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छुक थीं लेकिन उनके सामने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुदाम मरांडी थे जो खुद भी संथाल थे। मरांडी को मजबूत प्रत्याशी माना जा रहा था और मुर्मू का दावा नकारते हुए एक पुरुष को टिकट दिया गया जिन्हें पराजय हाथ लगी।
नवीन पटनायक की चर्चित जीवनी लिखने वाले लेखक और ओडिशा मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले रुबेन बनर्जी कहते हैं कि मुर्मू 2017 में भी भारत की राष्ट्रपति बनते-बनते रह गई थीं। उस समय वह झारखंड की राज्यपाल थीं और जब सुरक्षा और अन्य चीजों को लेकर नये सिरे से मंजूरी मांगी गई तो उन्हें पता चल गया था कि उनका नाम इस पद की दावेदारी में है। बनर्जी कहते हैं कि शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनमें अपनी झलक नजर आई। वह किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आतीं, उनका कोई वंश नहीं है और उनका जीवन व्यक्तिगत संघर्ष और बलिदान से भरा रहा है।
परंतु भाजपा का यह चयन राजनीति से मुक्त नहीं है। मयूरभंज की सीमा झारखंड और बंगाल से लगी हुई है जहां संथाल आबादी काफी अधिक है। वर्षों तक भाजपा आरएसएस के काम को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास करती रही है। लेकिन ओडिशा में उसे इस विषय में बहुत सीमित सफलता मिली। झारखंड के राज्यपाल के रूप में मुर्मू का नाम झारखंड विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के तत्काल बाद घोषित कर दिया गया था। लेकिन एक आदिवासी बहुल राज्य में आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय पार्टी ने रघुवर दास के रूप में एक गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बना दिया। शायद आदिवासी समुदाय और खासकर संथाल आदिवासियों की चिंता को देखते हुए मुर्मू को राज्यपाल बनाया गया।
ओडिशा कैडर के एक पूर्व अफसरशाह बताते हैं कि राज्यपाल के रूप में मुर्मू ने जमीन को लेकर आदिवासियों की संवेदनशीलता को अच्छी तरह समझा। वन भूमि के संरक्षण से जुड़े पत्थलगड़ी आंदोलन ने झारखंड को हिला कर रख दिया था। टीनेंसी ऐक्ट में बदलाव की कोशिशों ने आदिवासियों के मन में अविश्वास भर दिया था। मुर्मू ने कुछ प्रस्तावित बदलावों को राज्य सरकार के पास वापस लौटा दिया और झामुमो सरकार के साथ टकराव के हालात बन गए।
इस बात में दो राय नहीं कि विपक्षी दलों के लिए राष्ट्रपति पद के लिए मुर्मू का विरोध करना आसान नहीं होगा। यह भी संयोग ही है कि राष्ट्रपति पद के विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा भी झारखंड के ही गैर आदिवासी राजनेता हैं जबकि सत्ताधारी दल ने एक आदिवासी को उम्मीदवार बनाया है।
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