भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास | |
नीति नियम | मिहिर शर्मा / 06 23, 2022 | | | | |
जिनेवा में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मुख्यालय में राहत की भावना होगी: एक वैश्विक संस्था जिसे मृतप्राय मान लिया गया था, ने जीवन के संकेत प्रदर्शित किए हैं। हाल ही में संपन्न डब्ल्यूटीओ की 12वीं मंत्रिस्तरीय बैठक अपने तय समय से देर तक चली और इस दौरान मत्स्यपालन सब्सिडी से लेकर टीका पेटेंट संरक्षण तक कई विवादित मुद्दों पर सहमति तक पहुंची।
भारत के नजरिये से तीन बातें अहम हैं। पहली बात, डब्ल्यूटीओ में भारत के सुर नहीं बदले हैं और इसने संभावित काम खराब करने वाले के रूप में सबका ध्यान खींचा। दूसरा, इसके बावजूद भारत का प्रतिरोध काफी शिथिल हुआ ताकि किसी समझौते पर पहुंचा जा सके। पिछले अवसरों के प्रतिकूल इस बार सहमति की आवश्यकता भी अधिक थी क्योंकि अन्य पक्ष भी भारत की कुछ चिंताओं को हल करना चाहते थे। आखिर में एक बार फिर भारत की चिंताएं वास्तविक आर्थिक हितों के साथ सुसंगत नहीं नजर आईं।
इन तीन कारकों से निकला व्यापक प्रश्न यह है: अन्य लाभों को छोड़ दिया जाए तो डब्ल्यूटीओ में भारत के नये रुख से हम व्यापार और वैश्विक एकीकरण को लेकर क्या नतीजे निकाल सकते हैं?
आइए नजर डालते हैं कि गत तीन वर्षों में भारत ने आर्थिक एकीकरण के मोर्चे पर क्या-क्या किया? 2019 के अंत में महामारी के आगमन के कुछ माह पहले भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी यानी आरसेप से बाहर रहने का निर्णय लिया। इसमें ऐसे कई देश शामिल हुए जिनके साथ भारत पहले से मुक्त व्यापार समझौता कर चुका है। इनमें जापान, कोरिया और दक्षिण पूर्वी एशियाई देश-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और एक व्यापक समझौते में चीन शामिल है।
महामारी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता का नारा दे दिया। सरकार का हर नीतिगत निर्णय आत्मनिर्भरता के इर्दगिर्द होता है। कई लोगों ने इसे व्यापार की बाहरी निर्भरता कम करने की कोशिश के रूप में भी देखा। इसके बाद भारत-चीन सीमा पर झड़प के बाद भारत में चीनी निवेश पर निगरानी बढ़ाई गई और चीन पर अनौपचारिक व्यापार प्रतिबंध लागू किए गए। हालांकि सकारात्मक बात करें तो उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) ने निर्यात बढ़ाने में मदद की है।
अभी हाल ही में दो विरोधाभासी रुझान दिखे हैं। एक ओर द्विपक्षीय व्यापार सौदों को लेकर स्पष्ट और स्वागतयोग्य प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ ऐसे दो समझौते
घोषित हो चुके हैं। इस वर्ष के आरंभ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान यूनाइटेड किंगडम और भारत के बीच समझौते को दीवाली तक पूरा करने का लक्ष्य तय किया गया। भारत और यूरोपीय संघ के व्यापारिक रिश्तों में भी हाल के दिनों में काफी उत्साह देखने को मिला है। खासकर यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लियेन की भारत यात्रा के बाद। उस यात्रा के दौरान ही ‘व्यापार और तकनीकी परिषद’ की स्थापना की घोषणा की गई। यह परिषद यूरोपीय संघ और भारत के व्यापार सौदे की कमियों को दूर किया जा सकेगा। ऐसे सौदे पर एक दशक बाद वार्ता को दोबारा शुरू करने की भी घोषणा की गई।
परंतु उच्च मुद्रास्फीति के हालात को लेकर सरकार की पहली प्रतिक्रिया तो इस ऊर्जा के विपरीत नजर आती है। इस प्रतिक्रिया में गेहूं और स्टील समेत कई चीजों पर निर्यात प्रतिबंध और कर लागू करना शामिल है। गेहूं के निर्यात पर रोक उस समय लगायी गई जब कुछ ही सप्ताह पहले प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि भारत अपने अनाज से दुनिया का पेट भरेगा। स्टील उद्योग ने पहले सब्सिडी के जरिये निर्यात को लक्षित करने और फिर निर्यात कर लगाने को लेकर भ्रामक रुख दिखाया।
भारतीय निवेशकों ने विरोधाभासी रुख को पहचान लिया। एक ओर इस बात में संदेह नहीं कि कई पीएलआई योजनाएं मसलन मोबाइल हैंडसेट और चिपसेट निर्माण योजना निजी क्षेत्र के संभावित वैश्विक निवेशकों के साथ गहन चर्चा करने के बाद तैयार की गई। दूसरी ओर निवेशकों ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत के घरेलू बाजार के आकार को लेकर सरकार के रुख में दंभ और वैश्विक निवेश को लेकर चुंबकीय आकर्षण में कमी नहीं आई है। वे जोर देते हैं कि गलत अनुमान नीति निर्माताओं को घातक अतिआत्मविश्वास की ओर ले जाता है।
डब्ल्यूटीओ में भारत का शब्दाडंबर और कुछ अहम मसलों पर उसकी समझौता करने की इच्छा भी एक दूसरे से विरोधाभासी प्रतीत होती है। यह देश की व्यापार नीति में व्याप्त असंगतता को सही ढंग से दर्शाती है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार तीन कदम उठाए।
सबसे पहले सरकारी अधिकारियों को व्यापार प्रतिबंधों को भारत की ‘जीत’ या आत्मनिर्भरता के लिए उठाया गया कदम बताना बंद करना चाहिए। यदि व्यापार और निवेश प्रतिबंध लगाने के लिए दलील दी भी जा रही है तो यह आवश्यक है कि उन्हें हालात के मुताबिक अस्थायी बताया जाए।
दूसरी बात, एक अधिक व्यापक और निरंतरता वाली व्यापार नीति की आवश्यकता है भले ही इसे जनता के बीच जारी न किया जाए। ऐसा करने से मुद्रास्फीति जैसी समस्याओं को लेकर पहली प्रतिक्रिया के रूप में व्यापार प्रतिबंध जैसे खतरनाक कदम नहीं उठाए जाएंगे। इससे सरकार पर दबाव बनेगा कि वह अपने कदमों के विरोधाभास का सामना करे। उदाहरण के लिए पीएलआई और निर्यात कर का विरोधाभास। आखिर में, शायद इससे नीति निर्माताओं को यह यकीन हो कि वैश्विक मूल्य शृंखला के दौर में निर्यात बढ़ाने के लिए आयात को स्थिर ढंग से बढ़ाना आवश्यक है। ऐसे में छोटे उत्पादकों और सहज व्यापार का माहौल बनाने का भी प्रयास किया जा सकता है। इसके लिए भी ऐसे सौदों का सफल होना आवश्यक है। तीसरी बात, यह भी मानना होगा कि व्यापार और निवेश को लेकर सरकार का दंभ अनुत्पादक साबित हो रहा है। निजी निवेशक निजी बातचीत में अधिकारियों से जो बातें कहते हैं वे बातें वास्तविक निवेश में नहीं झलकतीं। यह बात विनिर्माण क्षेत्र पर खासतौर पर लागू होती है। वे बातें सरकार के साथ अच्छे ताल्लुकात की सहज आकांक्षा से जन्मती हैं और जब सरकार सामने न हो तो निजी क्षेत्र की बातें अलग होती हैं। ऐसे समय में जब भारत बांग्लादेश से लेकर वियतनाम तक अधिक एकीकृत अर्थव्यवस्थाओं के साथ निवेश के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहा है तो नीति निर्माण में भी नरमी नजर आना जरूरी है।
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