दक्षिण और उत्तर भारत का गहराता अंतर | ए के भट्टाचार्य / June 23, 2022 | | | | |
आठ नवंबर, 2016 को हुई नोटबंदी के कुछ दिन बाद दक्षिण भारत के दो राज्यों की कुछ दिनों की यात्रा ने मुझे यह बात अच्छी तरह याद दिला दी थी कि कैसे दक्षिण भारत के राज्य उत्तर के राज्यों से अलग हैं। वहां बैंकों के बाहर पुराने नोट बदलने की कोई कतार नहीं दिख रही थी। क्रेडिट या डेबिट कार्ड के जरिये या वॉलेट भुगतान अथवा ऑनलाइन लेनदेन अपेक्षाकृत आसान था। दुकानदार भी इस बात पर जोर नहीं देते थे कि हम कुछ खरीदने के बदले नकद राशि ही दें। टूर ऑपरेटर भी बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के पुराने नोट लेने को तैयार थे। अपेक्षाकृत शांति थी और जीवन सहज और तनावमुक्त नजर आ रहा था।
यह सिलसिला उत्तर भारत के शहरों और कस्बों के एकदम उलट था। न केवल राजधानी नई दिल्ली बल्कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और यहां तक कि गुजरात के कई इलाकों में भी बैंकों के बाहर लोग लंबी कतार लगाये पुराने नोट बदलने की कोशिश में खड़े थे। इन जगहों के कारोबारी भी ऑनलाइन भुगतान लेने के इच्छुक नहीं थे और नकदी पर जोर दे रहे थे। कुल मिलाकर असहज करने वाला माहौल था।
2020 और 2021 में किसानों द्वारा तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन करने पर भी ऐसा ही घटनाक्रम हुआ। पहले माना जा रहा था कि इन कृषि कानूनों का विरोध देशव्यापी है और पूरे देश के किसान इन कानूनों को लेकर परेशान हैं। लेकिन महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में कुछ शुरुआती विरोध के बाद किसान आंदोलन जल्दी ही पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों का आंदोलन बनकर रह गया।
दक्षिण भारत के किसानों ने इन नये कानूनों की अनदेखी की। एक बार फिर दक्षिण के राज्यों ने केंद्र के नीतिगत फैसले पर उत्तर के राज्यों की तुलना में अलग ढंग से प्रतिक्रिया दी।
पिछले कुछ दिनों से मोदी सरकार की सैनिक भर्ती योजना अग्निपथ को लेकर भी विरोध का सिलसिला मोटे तौर पर उत्तर भारत में ही केंद्रित है। तेलंगाना में कुछ घटनाएं हुईं लेकिन बाद के दिनों में विरोध मोटे तौर पर उत्तर भारत में सीमित रहा। इससे पता चलता है कि कैसे केंद्र की अहम नीतिगत पहलों को लेकर दक्षिण भारत का रुख उत्तर से एकदम अलग है।
पुराने लोग याद करेंगे यह कोई नया रुझान नहीं है। जून 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तब भी
दक्षिण भारत के राज्यों का रुख उत्तर के राज्यों से एकदम अलग था। ऐसी तमाम अन्य घटनाएं भी मिलेंगी जहां केंद्र की अहम आर्थिक या राजनीतिक पहलों पर इस तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिली। परंतु इस सवाल का जवाब आवश्यक है कि दक्षिण भारत की प्रतिक्रिया उत्तर से अलग क्यों रहती है और क्या यह देश के संचालन ढांचे में किसी गहरी खामी की ओर इशारा करता है।
आर्थिक दृष्टि से देखें तो दक्षिण भारत उत्तर और पूर्वी भारत की तुलना में बेहतर गति से विकास कर रहा है। दक्षिण के अधिकांश राज्यों में औसत आबादी वृद्धि उत्तर के राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश की तुलना में कम रही है।
इस वजह से दक्षिण के राज्यों की प्रति व्यक्ति आय भी अपेक्षाकृत बेहतर रही।
दक्षिण के कई राज्यों में आबादी की कृषि पर निर्भरता कम हुई है। इसके चलते विनिर्माण को गति मिली और इन राज्यों में तकनीक सक्षम सेवा क्षेत्र में भी मजबूती आई। शिक्षा के प्रसार, स्वास्थ्य सेवाओं और बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ। इन क्षेत्रों में दक्षिण के राज्य उत्तर के राज्यों से काफी आगे हैं। इसके विपरीत दक्षिण भारत के राज्यों का राष्ट्रीय राजनीति में वह कद नहीं है जो उत्तर और पश्चिम के राज्यों का है। अगर 2026 के बाद निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन दोबारा हुआ तो दक्षिण भारत की स्थिति और बिगड़ सकती है। 2002 में हुए संविधान संशोधन के मुताबिक 2026 तक ऐसा किया जाना है। स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर भारत के राज्यों की दावेदारी मजबूत होगी क्योंकि संसद के दोनों सदनों में उनके प्रतिनिधि अधिक होंगे। वहीं दक्षिण के राज्यों की हैसियत कम होगी।
एक राष्ट्रीय दल देश की सरकार चला रहा है लेकिन दक्षिण में उसकी सरकार केवल एक ही अहम राज्य में है। यह तथ्य परेशान करने वाला है और इस बात को रेखांकित करता है कि दक्षिण के राज्यों की चुनावी और राजनीतिक अहमियत कम हो रही है।
उत्तर और दक्षिण भारत की राजनीति में आ रही इस विसंगति का भारत के भविष्य पर भी बुरा असर पड़ सकता है। आर्थिक नजरिये से देखा जाए तो देश के दक्षिणी इलाकों के राज्यों का शेष भारत के बढ़ते बाजार में काफी अहम योगदान हो सकता है। लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों की घटती राजनीतिक महत्ता वहां के क्षेत्रीय दलों के लिए भावनात्मक मुद्दा हो सकती है। उत्तर भारत के राज्यों की बढ़ती निर्वाचन शक्ति आगे चलकर इसे और
अधिक चुनौती देगी। दक्षिण के राज्य पहले ही वित्त आयोगों द्वारा केंद्रीय संसाधनों के राज्यों के आवंटन में आबादी और विकास मानकों को आधार बनाने का विरोध कर रहे हैं। इन मानकों के चलते उत्तर भारत के राज्यों को केंद्रीय संसाधनों में अपेक्षाकृत अधिक हिस्सा मिल रहा है। दक्षिण भारत के राज्यों को यह भी लगता है कि वे वस्तु एवं सेवा कर के नये ढांचे में भी मात खा रहे हैं। इस व्यवस्था में खपत करने वाले राज्य को अधिक कर मिलने की प्रवृत्ति है जबकि उन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने वाले राज्यों के हिस्से कम कर आता है। दक्षिण भारत के राज्य इस बात को लेकर भी नाराज हो सकते हैं। यह बात महत्त्चपूर्ण है कि केंद्र सरकार दक्षिण भारत की उत्तर भारत के साथ लगातार बढ़ती इस दूरी पर ध्यान दे। बहुत संभव है कि यह एक अभी शुरू हुई बड़ी समस्या को हल करने के लिए सही समय हो। नीतिगत पहलों तथा सकारात्मक हस्तक्षेपों के माध्यम से इसे जितनी जल्दी हल किया जाएगा, उतना ही अच्छा होगा। यदि ऐसा किया जाता है तो आने वाले दिनों में देश के संचालन ढांचे के लिए बेहतर बात होगी।
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