कई खामियां मुश्किल बनाएंगी अग्निपथ की राह | तकनीकी तंत्र | | देवांशु दत्ता / June 22, 2022 | | | | |
अग्निपथ योजना ने व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शन को हवा दी है। इसे लेकर हो रहा विरोध स्वाभाविक है, क्योंकि इसके प्रावधान रक्षा सेवाओं से जुड़ने वाले आकांक्षी युवाओं के लिए खासे असंतोषजनक हैं। सरकार चाहे तो इसे किसी भी रूप में तैयार कर सकती है, लेकिन इससे एक संकेत स्पष्ट रूप से गया है और वह संकेत है व्यापक वित्तीय कमजोरी का। इसमें शामिल युवाओं को चार वर्ष सेवा का अवसर मिलेगा। चुने गए अभ्यर्थियों में से कुल एक चौथाई को सामान्य 20 वर्षीय स्थायी सेवा में लिया जाएगा। शेष तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत को करीब 11 से 12 लाख रुपये की सेवा निधि के साथ सेना से विदाई दे दी जाएगी। इस प्रकार देखा जाए तो सेवारत सैन्य कर्मी पर प्रति व्यक्ति वार्षिक व्यय सेवा निधि पैकेज के समान ही है। हालांकि पेंशन, स्वास्थ्य सेवाओं और अन्य लाभों को जोड़ लिया जाए तो यह पूर्ण स्थायी सेवा देने वालों के लिए कहीं अधिक होगा।
भारत में हमेशा पूर्णतः स्वैच्छिक सैन्य बलों की परंपरा रही है। हालांकि अग्निपथ को लेकर जिस प्रकार का बवाल हो रहा है, उसे देखकर स्पष्ट है कि सेना से जुड़ने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा है। यदि आप योद्धा (मार्शल) जातियों की अवधारणा एवं परंपरा, जिसे अंग्रेजों ने ब्राह्मण सैनिकों द्वारा किए गए विद्रोह के बाद सृजित किया था, से परे देखें तो सेना से जुड़ाव के अहम आर्थिक कारण भी हैं।
सैन्य जीवन कठिन होने के साथ-साथ उसमें जोखिम एवं खतरा भी बहुत है। लेकिन सैन्यकर्मियों के लिए आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसे पहलू भी हैं। यदि आप पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाओं को हटा लें तो इस योजना के प्रावधान निजी संगठनों द्वारा प्रदान की जाने वाली छोटे स्तर की नौकरियों जैसे ही हैं। कई सूचीबद्ध कंपनियां तो इस स्तर पर अपने अस्थायी कामगारों को इतना ही या उससे अधिक भुगतान करती हैं।
इस योजना को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि सिद्धांततः यह अस्थायी तौर पर बेरोजगारों की संख्या को घटा सकती है और मनरेगा के जैसे काम कर सकती है। आंकड़े इस दलील को बेतुका बताते हैं। इस साल अग्निपथ योजना के अंतर्गत 46,000 की भर्ती की जाएगी और भविष्य में यही तिगुनी बढ़कर करीब-करीब डेढ़ लाख भर्तियों के चरम तक पहुंच सकती है। वहीं बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी का आंकड़ा 10 करोड़ या उससे दोगुना हो सकता है, जिसमें नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर और महामारी जैसे एक के बाद एक पहलुओं का भी योगदान रहा। बेरोजगारी की समस्या पर प्रभावी रूप से अंकुश लगाने के लिए आवश्यक है कि हर महीने 15 लाख रोजगार सृजित किए जाएं।
इसका अर्थ यही होगा कि अग्निपथ योजना से एक साल में अधिकतम जितने रोजगार सृजित किए जा सकते हैं, उससे दस गुना अधिक रोजगार को हर महीने सृजित करने की आवश्यकता होगी। यह भी स्वाभाविक है कि अग्निपथ योजना की दुनिया भर में की जाने वाली भर्तियों के तौर-तरीके एवं कॉन्सक्रिप्शन (अनिवार्य सैन्य सेवा) योजनाओं से तुलना की जा रही है। अधिकांश अनिवार्य सैन्य सेवाओं में सैनिक दो से चार वर्षों के लिए सेवाएं देते हैं। उत्तर कोरिया, रूस और चीन में अनिवार्य सैन्य सेवा है। आर्थिक पैमाने के दूसरे परिदृश्य पर देखें तो सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, इजरायल और कई यूरोपीय देशों में भी ऐसी व्यवस्था है।
रूस में यह साम्राज्यवादी रूस और सोवियत संघ की खुमारी का अवशेष या विरासत है। चीन और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कोरिया में यह औसत पुरुषों को एकदलीय प्रणाली में निष्ठा बनाए रखने का उपकरण है। इजरायल में सार्वभौमिक सैन्य सेवाएं हैं, जहां महिलाओं को भी इसमें शामिल किया जाता है। असल में जनसांख्यिकीय और भू-राजनीति के कारण इजरायल ऐसा करने के लिए बाध्य है। यह एक छोटा सा देश है, उसकी आबादी भी छोटी है और पड़ोसी देश उससे नफरत करते हैं। स्वीडन और फिनलैंड में भी सार्वभौमिक लैंगिक-निपरेक्ष अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान है। वहीं सिंगापुर तो अत्यंत ही छोटा देश है।
स्विस अनिवार्य सैन्य नीति एक विशाल, सुप्रशिक्षित रिजर्व तैयार करती है, जिनके बारे में उसका मानना है कि इससे सदियों पुरानी तटस्थता को सुनिश्चित करने में सहायता मिलती है। स्विस सभी को न केवल बैंकिंग सेवाओं की पेशकश करते हैं बल्कि उनमें सेंधमारी भी मुश्किल होती है। फ्रांस ने 1996 में अनिवार्य सैन्य सेवा समाप्त कर दी, लेकिन नागरिक अभी भी आपात स्थिति में सेवाएं देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ के समय केवल ब्रिटेन ही इकलौती सैन्य शक्ति या युद्धरत देश था, जहां अनिवार्य सैन्य सेवा नहीं थी। उसने दोनों विश्व युद्धों के दौरान अनिवार्य सैन्य सेवाओं का प्रावधान किया, जिसे बाद में हटा दिया गया। अमेरिका ने भी वियतनाम युद्ध के बाद अनिवार्य सैन्य सेवा को समाप्त कर दिया है। कहा जाता है कि बिल क्लिंटन और डॉनल्ड ट्रंप को जब सेवाएं देने के लिए बुलाया गया, तो दोनों ने ही इनकार कर दिया था।
वैश्विक अनुभव ऐसी योजनाओं के लिए एक संभावित वैचारिक आधार की तस्वीर दिखाते हैं। उत्तर कोरिया, रूस और चीन जैसे खतरनाक शासन इन योजनाओं का इस्तेमाल लोगों को अपने ढांचे के अनुरूप ढाले रखने में करते हैं। या फिर कहीं यूक्रेन जैसी आपात स्थिति न उत्पन्न हो जाए। जहां तक इजरायल, स्विट्जरलैंड, स्वीडन और सिंगापुर जैसे देशों की बात है तो ये बहुत ही छोटी आबादी एवं ऊंची प्रति व्यक्ति आय वाले देश हैं। वस्तुतः आकर्षक आर्थिक विकल्पों के अभाव में विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक भर्तियों के माध्यम से सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कठिन है। क्या इनमें से कोई भी विचार भारत के लिए उचित है?
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