साथियों से ज्यादा समझ की बात हो सकती है गलत | आर गोपालकृष्णन / June 21, 2022 | | | | |
बिना मूल्यों का नेतृत्व दिशाहीन होता है। बहरहाल, सभी नेता मनुष्य होते हैं और उनमें भी आत्ममुग्धता जैसे गुण होते हैं। हकीकत में यह बात सभी मनुष्यों को किसी न किसी तरह प्रभावित करती है। व्यक्तिगत आत्ममोह के उलट नेतृत्व का आत्ममोह कई लोगों को इसलिए नुकसान पहुंचाता है कि नेताओं की अपनी छाप होती है। इस विषय पर लिखते हुए मैं भी न केवल प्रकाशित साहित्य से प्रभावित हूं बल्कि अपने अनुभवों से सीखे गए सबकों का भी असर है।
भ्रामक श्रेष्ठता से निजात पाकर तथा ज्ञान को अपनाकर काफी कुछ हासिल किया जा सकता है। दिखावे की श्रेष्ठता चारों ओर व्याप्त है। दुनिया भर में हाल के दिनों में राष्ट्रवाद मे आए उभार को ही देख लीजिए। उदाहरण के लिए विंस्टन चर्चिल को लोकतंत्र और उदारवाद के साहसी संरक्षक के रूप में पेश किया जाता है। व्लादीमिर पुतिन को लगता है कि वह पीटर द ग्रेट के अवतार हैं। झूठा इतिहास, अपवाद और राजनीतिक लोकलुभावनाद ये सभी संभावित श्रेष्ठता या पुराने दिनों की गहन आकांक्षा से फलते-फूलते हैं। समाज, कंपनियां और व्यक्ति सभी इसके शिकार होते हैं।
अपनी हालिया पेरिस यात्रा के दौरान मैं एफिल टावर की यात्रा पर दोबारा गया। मैंने 1900 के दशक की एक कहानी सुनी कि कैसे एक व्यक्ति ने घोषणा की थी कि वह एफिल टावर के ऊपर से पैराशूट की मदद से सुरक्षित कूदने वाले व्यक्ति को भारी भरकम इनाम देगा। यह पेशकश तब की गई थी जब कई पैराशूट नाकाम हो गए थे और लोगों को जान गंवानी पड़ी थी।
फ्रांस में रहने वाला फ्रांज रीचेल्ट नामक एक ऑस्ट्रियाई और चेक मूल का टेलर अपने कौशल का इस्तेमाल करते हुए एक पैराशूट का डिजाइन तैयार कर रहा था। उसे हवा के वेग और वायुगतिकी का कोई अंदाजा नहीं था। शुरुआत में उसके कुछ पैराशूट नाकाम भी रहे थे लेकिन उसे पूरा भरोसा था कि उसका यह व्यावहारिक डिजाइन, विशेषज्ञों द्वारा तैयार किए गए डिजाइन पर भारी पड़ेगा। इसके उलट राइट ब्रदर्स ने बाकायदा इस बात का अध्ययन किया कि चिड़िया अपने शरीर को मोड़कर किस प्रकार आने वाली हवा का सामना करती है और इसी आधार पर उन्होंने अपने विमान का डिजाइन तैयार किया।
फ्रांज रीचेल्ट ने प्रशासन को विश्वास में लेकर एफिल टावर के ऊपर से कूदने की इजाजत प्राप्त कर ली। उन्होंने एक डमी के साथ पैराशूट के इस्तेमाल की इजाजत दे दी। 4 फरवरी, 1912 को दी गई इजाजत का उल्लंघन करते हुए फ्रांज रीचेल्ट एफिल टावर से कूद गया। तीन सेकंड बाद वह एफिल टावर के नीचे मृत पड़ा था। एक मूक फिल्म दिखाती है कि रीचेल्ट एफिल टावर पर खड़ा होकर दो व्यक्तियों से बातचीत कर रहा था। शायद वह अपनी सफलता के बारे में अपना विश्वास जता रहा था।
रीचेल्ट डनिंग-क्रूगर प्रभाव का शिकार हुआ था। इस प्रभाव को सन 1999 में दो सामाजिक मनोविज्ञानियों डेविड डनिंग और जस्टिन क्रूगर ने स्थापित किया था। उन्होंने अपने पर्चे में सुझाव दिया कि जब सीमित ज्ञान या क्षमता वाले लोग गलती से अपने बारे में यह सोच लेते हैं कि वे बहुत काबिल हैं तो उनमें एक संज्ञानात्मक पूर्वग्रह उत्पन्न हो जाता है। मैं इसके तीन उदाहरण यहां दूंगा।
टाटा प्रबंधन प्रशिक्षण केंद्र में मैं वहां आने वाले प्रबंधकों से कहा करता कि वे अपनी पेशेवर क्षमताओं को अपने साथियों की तुलना में आंकें। ज्यादातर लोग स्वयं को अपने साथियों की तुलना में अधिक काबिल आंकते थे। सन 1977 में अमेरिका में हुए एक अध्ययन में विश्वविद्यालयों के 97 प्रतिशत प्राध्यापकों ने खुद को अपने साथियों से ज्यादा योग्य आंका था। सन 1983 के एक अध्ययन में 96 प्रतिशत अमेरिकियों तथा 69 प्रतिशत स्वीडिश लोगों ने अपने बारे में कहा कि वाहन चलाने में उनकी कुशलता उन्हें शीर्ष 50 प्रतिशत लोगों में रखती है। आंकड़ों के आधार पर देखें तो ये तीनों बातें लगभग असंभव हैं। डनिंग-क्रूगर प्रभाव केवल मूर्खों पर नहीं लागू होता। यह हम जैसों पर भी लागू होता है।
डनिंग-क्रूगर का संबंध दूसरों की गलतियों से अधिक है। छह खंडों वाले अपने विशाल ग्रंथ द्वितीय विश्वयुद्ध में स्वयं को दूसरे विश्वयुद्ध के केंद्र में दर्शाया है। उन्होंने निर्णय लेने में देरी तथा टालमटोली की। नॉर्मेंडी पर आक्रमण इसका उदाहरण है। लेकिन उनकी पुस्तकों में कथानक इस तरह रचा गया है जो नॉर्मेंडी विजय में उनके शौर्य की गाथा कहता है।
सन 1981 से 2001 तक जीई में मुख्य कार्याधिकारी के अपने कार्यकाल में जैक वेल्च को एक ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में सराहा जाता है जिसने हमेशा सही कदम उठाए। उन्होंने निर्मम होकर छंटनी की, लगातार सौदेबाजी की और वित्तीयकरण का नया कौशल प्रदर्शित किया। इस प्रकार वे पूंजीवाद के एक शानदार व्यक्तित्व के रूप में उभरते। उन्हें सदी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक कहा गया। इसके पश्चात वह सेवानिवृत्त हुए और एक नया व्यक्तित्व उभरने लगा और कहानी एकदम अलग थी। डेविड गेल्स की ताजा किताब में कहा गया है कि वेल्च की रणनीतियों ने उस चीज को असमय खत्म कर दिया जिसे वह बहुत अधिक प्यार करते थे।
ऐसा देश के आईपीओ बाजार में भी देखा जा सकता है जहां स्टार्टअप ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ के आधार पर पूंजी जुटाते हैं। उनका लक्ष्य फंडिंग और मूल्यांकन पर रहता है। कई बड़े और नामी स्टार्टअप भारी घाटे में नजर आते हैं। सफल आईपीओ के बाद भी कई के साथ ऐसा होता है। एडटेक कंपनियां भी इससे बाहर नहीं। यह तब है जब पूंजी बाजार को पता है कि आईपीओ एक संवेदनशील मसला है।
टाटा कंसल्टेंसी सर्विसिज के पूर्व उपाध्यक्ष एस रामदुरै ने अपनी किताब द टीसीएस स्टोरी में एक पूरा हिस्सा इस विषय पर लिखा है। वह बताते हैं कि कैसे टीसीएस प्रबंधन के लिए 2004 में आईपीओ की तैयारी विस्तृत और समय खपाऊ थी। इन्फोसिस के पूर्व चेयरमैन नारायण मूर्ति ने अभी हाल ही में बताया कि कैसे 1990 के दशक में उनकी नेतृत्व टीम आईपीओ को लेकर सजग थी। आईपीओ केवल फंड जुटाने का एक और तरीका भर नहीं है, यह जानकारी होने के बाद भी कई फंड चाहने वालों ने बाजार का रुख किया। उन्हें सबस्क्राइबर भी मिले। हताश संस्थान जिनके पास कम लागत वाली फंडिंग थी, ने निवेशकों को निवेश के लिए प्रेरित किया। बाद में संस्थागत विदेशी संस्थान निकल गए जबकि खुदरा निवेशकों को असर बरदाश्त करना पड़ा। वित्त मंत्री के शब्दों में कहें तो उन्होंने ही झटका सहा।
हर कोई एमेजॉन या गूगल का नाम लेता है। वे अपवाद हैं। आईपीओ को लेकर वैसे नजरिये का अर्थ है मानो मैं सप्ताहांत पर अपने क्लब में राफेल नडाल के टेनिस शॉट्स का अनुकरण करूं। वास्तव में आईपीओ को लेकर जोखिम मेरे टेनिस से अधिक नुकसानदेह है।
हम जो नहीं जानते, वो नहीं जानते। बुरी बात तो यह है कि कई बार जिनके बारे में हमें लगता है कि हम ये बातें जानते हैं, हम वे बातें भी नहीं जानते।
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