विश्व व्यापार में सुधार का भारत उठाएगा लाभ! | शंकर आचार्य / June 18, 2022 | | | | |
इस साल के करीब आधे सफर के दौरान कई कारकों से अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रभावित हुआ है। इनमें वैश्विक महामारी से लेकर यूरोप में छिड़ा युद्ध, व्यापक आर्थिक प्रतिबंध, बाधित आपूर्ति श्रंखलाएं और कुछ देशों द्वारा आवश्यक जिंसों के निर्यात की सीमा तय करने से लेकर निर्यात पर प्रतिबंध लगाने जैसे कारक शामिल हैं। ऐसी स्थिति के उलट बात करें तो संभवतः यही वह समय है जब सतत वैश्विक समृद्धि के लिए नियम-आधारित वैश्विक व्यापार की महत्ता पर नए सिरे से विचार किया जाए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक व्यापार में चमत्कारिक रूप से वृद्धि हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूटीओ) का अनुमान है कि वर्ष 1950 से 2000 के बीच वैश्विक वस्तुओं के व्यापार आकार में जहां 40 गुना (4,000 प्रतिशत) तो मूल्य के पैमाने पर 300 गुने की तेजी आई। निस्संदेह यही वह दौर था जब वैश्विक जीडीपी में बहुत तेज वृद्धि हो रही थी। यह संभवतः दर्ज इतिहास का सबसे लंबा वैश्विक विस्तार था। फिर भी, विश्व बैंक के आंकड़े यही दर्शाते हैं कि विश्व जीडीपी में विश्व व्यापार (सेवाओं सहित) 1960 में 24 प्रतिशत बढ़ना शुरू हुआ और 2010 के बाद स्थिर होने से पहले उसमें 57 प्रतिशत तक की उछाल आई। वास्तव में, तमाम अर्थशास्त्री वैश्विक जीडीपी में अप्रत्याशित उछाल का श्रेय विश्व व्यापार में निरंतर हुई वृद्धि को देते हैं। व्यापार ने प्रतिस्पर्धी क्षमता, उत्पादकता और तकनीकी प्रगति में योगदान दिया। इसके अतिरिक्त सामान्य तकनीकी प्रगति, उत्तरोत्तर बढ़ती राष्ट्रीय बचत एवं निवेश के साथ ही अच्छी शिक्षा के प्रसार ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विश्व वाणिज्य में इस आश्चर्यजनक विस्तार के पीछे एक बड़ा कारण 1947 से 1994 के बीच जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ ऐंड ट्रेड (गैट) के अंतर्गत चली आठ दौर की उन बहुस्तरीय वार्ताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिनमें टैरिफ (शुल्क) उदारवाद को लेकर चर्चा जारी रही। गैट डब्ल्यूटीओ का पूर्ववर्ती संस्करण ही था। इन वार्ताओं में मुख्य रूप से औद्योगिक देशों का दबदबा रहता था और विकासशील देश अधिकांशतः ‘फ्री राइडर्स’ वाली स्थिति में थे, जिन्हें बस उससे कुछ लाभ हो रहा था। बड़ी दिलचस्प बात है कि डब्ल्यूटीओ के गठन के बाद से एक भी सफल बहुस्तरीय व्यापार उदारवाद का दौर नहीं दिखा। अब ‘ऐक्शन’ मुख्य रूप से उन बहुतायत वाले तरजीही एवं मुक्त व्यापार समझौतों (पीटीए और एफटीए) तक सिमट गया है, जिसमें सीमित सदस्य देशों की भागीदारी होती है।
वैश्विक समृद्धि का यह लंबा दौर, जिसमें भले ही सभी देश बराबर लाभान्वित न हुए हों, कुछ स्थानीय युद्धों (यदि 10 वर्षीय वियतनाम युद्ध, जिसमें तीस लाख से अधिक लोग मारे गए हों, उसे अमेरिकी अध्यादेश एक स्थानीय मसला करार देते हों तो) के बावजूद लंबे समय तक कायम रहा। इसका उल्लेख सिर्फ यह संकेत करने के लिए है कि यूक्रेन में जारी मौजूदा संघर्ष शायद वैश्विक व्यापार एवं उत्पादन पर उतना आघात न कर रहा हो, जैसी आशंका या डर जताया गया। वैश्विक समृद्धि के इस दौर से भारत भी लाभान्वित रहा, जहां उसने 1990 के बाद अपनी अत्यंत जटिल एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवस्था को उदार बनाने के साथ विनिमय दरों को बाजार-अनुकूल बनाया। भारत का व्यापार-जीडीपी अनुपात जो 1950 से 1990 के बीच बमुश्किल 8 से 15 प्रतिशत के दायरे में झूलता रहा, वह 2000 तक ऊंची वृद्धि के साथ 27 फीसदी तक बढ़ गया और 2011 में 50 प्रतिशत से ऊपर चढ़कर चरम पर पहुंच गया, जहां जीडीपी में कुल (वस्तुओं और सेवाओं) निर्यात की हिस्सेदारी करीब 25 प्रतिशत हो गई, जिसमें सॉफ्टवेयर निर्यात में तेजी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वर्ष 2011 से जीडीपी में भारत के व्यापार की हिस्सेदारी घटती गई और 2019 में यह 39 प्रतिशत के स्तर पर रह गया। भारत के वस्तु निर्यात में आया ठहराव इसकी मुख्य वजह रहा। डॉलर मूल्य के हिसाब से इसमें 2018 की तुलना में केवल 8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई, जबकि इसी अवधि में बांग्लादेश में इसी पैमाने पर 61 प्रतिशत, म्यांमार में 82 प्रतिशत, फिलिपींस में 40 प्रतिशत, चीन में 31 प्रतिशत और वियतनाम में विस्मयकारी 153 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। पूर्व में प्रकाशित अपने एक आलेख में मैंने भारत के इस लचर प्रदर्शन के संदर्भ में कई पहलुओं पर प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम, सामान्य कारकों की बात करें तो (जैसे कि वास्तविक प्रभावी विनिमय दर) इस अवधि के अधिकांश दौर में रुपये की विनिमय दर अधिक मूल्यांकित की गई। दूसरा, जैसा कि अमिता बत्रा की हालिया पुस्तक ‘इंडियाज ट्रेड पॉलिसी इन 21सेंचुरी’ में उचित रूप से दर्शाया गया है कि वर्ष 2000 के बाद वैश्विक आपूर्ति श्रंखला आधारित व्यापार में हुई तेज वृद्धि के बावजूद भारत उसमें प्रभावी रूप से सक्रियता के मामले में विफल रहा, जिसकी ऐसे प्रदर्शन में अहम भूमिका रही। तीसरा, वर्ष 2015 के बाद भारत द्वारा शुल्क और अन्य संरक्षणकारी उपायों ने भी देश के वस्तु निर्यात में तेजी को निस्तेज करने का काम किया और ऐसा आंतरिक एवं बाहरी वैश्विक मूल्य वैल्यू चेंस (जीवीसीएस) दोनों स्तरों पर दिखा।
निःसंदेह 2010 के बाद से विश्व व्यापार की गतिशीलता में ठहराव आता गया। इसके पीछे कई कारण रहे। इनमें वैश्विक वित्तीय मंदी के अलावा ब्रेक्जिट, अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के दौरान अपनाई गई संरक्षणवादी नीतियां, भयावह वैश्विक महामारी और यूक्रेन युद्ध के साथ ही जुड़े तमाम आर्थिक प्रतिबंधों जैसे वि-वैश्वीकरण (डीग्लोलबाइजिंग) कारकों की भूमिका रही। फिर भी उल्लेखनीय है कि कोविड के कोप के दौरान भी विश्व व्यापार कमोबेश लचीला ही रहा, जिसमें 2020 के दौरान कुछ मामूली गिरावट आई, लेकिन अगले ही वर्ष 2021 में उसने जबरदस्त वापसी की। मध्यम अवधि में यह काफी हद तक संभव है कि पिछले दशकों के कुछ झटकों का असर समय के साथ कम होता जाएगा। किसी भी सूरत में देखें तो चाहे सिद्धांत की बात करें या अतीत के अनुभव की तो उससे यही सिद्ध होता है कि किसी भी देश की एक खुली एवं निर्बाध व्यापार नीति ही उसकी सबसे शानदार व्यापार नीति होती है।
भारत के मामले में भी यही रुझान दिखता है। वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान जहां देश के आयात-निर्यात में भारी गिरावट आई तो अगले ही वर्ष उनमें रिकॉर्ड तेजी का रुख रहा, जिसमें जिंसों के मूल्य में कायम तेजी की भी कुछ भूमिका रही। इन कीमतों में तेजी वित्त वर्ष 2022-23 के शुरुआती दो महीनों में भी देखने को मिली। इस कारण व्यापार घाटा रिकॉर्ड ऊंचाई पर है, जिसने समग्र भुगतान संतुलन पर खासा दबाव बढ़ा दिया है। भविष्य की बात करें तो भारत की व्यापार नीति की व्यापक प्राथमिकताएं वही रहें, जिनकी मैं बात करता आया हूं।
एक तो यही कि 2017 से जारी (कुछ मानते हैं कि यह पहले ही शुरू हो गई) शुल्क बढ़ोतरी से चरणबद्ध रूप से निकलें। इसमें ब्रिटिश-अमेरिकी अर्थशास्त्री अब्बा लर्नर की बात याद रखी जाए कि ‘आयात पर शुल्क वस्तुतः निर्यात पर शुल्क के समान है।’ जहां तक बाहरी भुगतान समस्या से निपटने की बात है तो उसमें विनिमय दर अवमूल्यन ही मुख्य उपकरण होना चाहिए। इसके लिए शुल्क या आयात पर कोटा प्रतिबंध का सहारा न लिया जाए। वहीं मुद्रास्फीति पर नियंत्रण की राह में भी मौद्रिक एवं राजकोषीय उपायों को निर्यात प्रतिबंधों एवं ड्यूटीज पर वरीयता दी जाए, क्योंकि इनसे तो अक्सर भुगतान संतुलन की समस्याओं से छुटकारे की राह निकलती है। सरकार द्वारा ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मुक्त व्यापार समझौते की पहल स्वागतयोग्य है। वहीं खाड़ी सहयोग परिषद के देशों, इजरायल, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के अलावा नवगठित हिंद प्रशांत आर्थिक ढांचे के माध्यम से व्यापार को बढ़ावा देने की बातें चल रही हैं। हालांकि वैश्विक एवं क्षेत्रीय वैल्यू चेंस में भारत की मौजूदा कम सक्रियता को बढ़ाने में इनमें से कुछ (ईयू के साथ गंभीर किस्म के एफटीए को अपवाद छोड़ दें, जिसके फलीभूत होने के आसार कम हैं) को छोड़ दिया जाए तो कोई भी उस प्रकार की ताकत प्रदान नहीं करता, जैसा हमारे पड़ोस में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) जैसा मंच प्रदान करता है।
यकीनन विश्व व्यापार 2022 में कई चुनौतियों से पार पाकर विस्तार की राह पर उन्मुख होगा। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इस रिकवरी से अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए जिन नीतियों की आवश्यकता है, क्या भारत उन्हें अपनाएगा?
(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक हैं और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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