भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा एक दर्जन एनपीए कंपनियों की सूची जारी करने के पांच साल बाद ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) को अभी भी लेनदारों द्वारा अंतिम उपाय के तौर पर देखा जा रहा है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एम राजेश्वर राव ने यह बात कही। वह इस महीने के आरंभ में भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद में ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया पर एक अंतरराष्ट्रीय शोध सम्मेलन में बोल रहे थे। राव ने कहा, 'आईबीसी जैसे व्यापक कानून को आमतौर पर लेनदारों द्वारा अंतिम उपाय- यानी सभी विकल्प खत्म होने के बाद की जाने वाली पहल- के तौर पर देखा जाता है। हालांकि, यह दृष्टिकोण संकटग्रस्त उधारकर्ता के भविष्य के लिए एक व्यापक दृष्टि की कमी के कारण विकसित हुआ है।' राव का यह नजरिया समय के लिहाज से बेहतर नहीं हो सकता है क्योंकि इसमें आईबीसी के लिए जो परिकल्पित किया गया था उसकी झलक नहीं मिलती है। एसऐंडआर एसोसिएट्स के पार्टनर दिव्यांशु पांडे के अनुसार, आईबीसी ने बैंकों पर ऋण समाधान योजना के लिए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाने का दबाव डाला है। हालांकि समय बीतने के साथ-साथ ऋण समाधान के लिए आवेदन दाखिल होने में देरी और नैशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) द्वारा मामले पर निर्णय देने में देरी के कारण बैंक आईबीसी को अंतिम उपाय के तौर पर देखने के लिए मजबूर हैं। पांडे ने कहा, 'एनसीएलटी में बुनियादी ढांचे का अभाव और पर्याप्त पीठ न होने से मामलों को तत्काल नहीं निपटाया जा सकता और उसमें समय लगता है। इसके अलावा समर्पित दिवालिया अदालतों के अभाव में एनसीएलटी द्वारा मामलों को समय पर निपटाने की उम्मीद करना बेमानी होगी। अब तक एनसीएलटी को आईबीसी, कंपनी अधिनियम और प्रतिस्पर्धा कानून से संबंधित मामलों को देखने का अधिकार दिया गया है।' भारतीय स्टेट बैंक के प्रबंध निदेशक (जोखिम, अनुपालन एवं दबावग्रस्त परिसंपत्ति समाधान) एके तिवारी ने कहा कि लेनदारों का मानना है कि दिवालिया कंपनियों के प्रवर्तकों को बोली प्रक्रिया से दूर रखने वाली आईबीसी की धारा 29 पर कहीं अधिक बारीकी से गौर करने की जरूरत है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि एमएसएमई के लिए दिया गया प्री-पैक दिवालिया व्यवस्था को कुछ शर्तों के साथ बड़ी कंपनियों के लिए भी लागू करना चाहिए। पिछले साल अप्रैल में भारतीय दिवाला एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) ने कहा कि दिवालिया आवेदन को दायर करने और उसे स्वीकार करने के बीच लगने वाले समय को वित्त वर्ष 2022 में बढ़ाकर 650 दिन कर दिया गया जो वित्त वर्ष 2021 में 468 दिन था जबकि आईबीसी की समय-सीमा महज 14 दिनों की है। यह आईबीसी के तहत कॉरपोरेट ऋणशोधन अक्षमता समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) को पूरा करने के लिए निर्धारित समय-सीमा से भी अधिक है। आईबीसी के तहत सीआईआरपी को पूरा करने के लिए निर्धारित समय-सीमा 180 दिन है अथवा 90 दिनों की विस्तारित अवधि के भीतर और 330 दिनों में अनिवार्य तौर पर सभी प्रक्रिया को पूरा करने का प्रावधान है। अल्वारेज ऐंड मार्शल के प्रबंध निदेशक निखिल शाह ने कहा, 'मूल रूप से योजना यह थी कि आईबीसी मामलों को देखने के लिए 63 एनसीएलटी न्यायाधीश होंगे। जबकि उनकी संख्या करीब 40 है। आईबीसी के मामलों को निपटाने के लिए न्यायाधीशों की संख्या को दस गुना बढ़ाने की आवश्यकता है और उन्हें केवल आईबीसी मामलों के लिए विशेषज्ञता हासिल होनी चाहिए।' समय-सीमा के प्रभाव का एक अन्य पहलू समाधान में लेनदारों के निर्णय को चुनौती है। यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के कार्यकारी निदेशक नितेश रंजन ने कहा कि विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या न्यायिक प्राधिकारी के दायरे में है लेकिन लेनदारों की समिति (सीओसी) को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान सम्मान दिया जाना चाहिए। उसे चुनौती देने का अधिकार किसी के पास नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो हम समाधान प्रक्रिया की रफ्तार बढ़ा सकते हैं। आरबीआई की दिसंबर की वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर 2019 से सितंबर 2021 के बीच आईबीसी के तहत 60 कॉरपोरेट लेनदारों के विश्लेषण से पता चलता है कि नमूने की औसत वसूली दर 24.7 फीसदी थी। बड़े डूबते कर्ज बैंकों के बहीखाते पर बरकरार रहे जबकि छोटे-मोटे ऋण की वसूली हो सकी।
