केंद्र सरकार की अगले 18 महीनों में अपने मंत्रालयों और विभागों में 10 लाख लोगों को (जो एक वर्ष में तैयार होने वाले कुल रोजगार का 15 फीसदी है) रोजगार देने की योजना अत्यंत महत्त्वाकांक्षी है। परंतु इस कदम के पीछे एक लक्ष्य देश के आर्थिक सुधारों का भी है जिसके तहत सरकार की पैठ को कम करना और निजी स्तर पर रोजगार तैयार करने के लिए अनुकूल माहौल बनाया जाना है। उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के करीब तीन दशक बाद अब स्थिति ऐसी बन चुकी है जहां निजी क्षेत्र रोजगार के मामले में सरकारी क्षेत्र से आगे निकल रहा है। वर्ष 2017 से ही नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किए गए वस्तु एवं सेवा कर ने अनेक छोटे और मझोले उपक्रमों को बुरी तरह प्रभावित किया। यह क्षेत्र समेकित रूप से देश का सबसे बड़ा नियोक्ता है। इस दौरान बड़ी तादाद में ऐसे उपक्रम बंद हो गए और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में बेरोजगारी चार दशकों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। इस रिपोर्ट को भी 2018 में पहले रोक लिया गया था लेकिन बाद में इसे सार्वजनिक तौर पर जारी किया गया। वर्ष 2020 में कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन और उसके बाद 2021 में लगाए गए प्रतिबंधों ने आर्थिक क्षेत्र की महामारी के पहले की गति को और धीमा किया और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की मई 2022 की रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी की दर 7.12 प्रतिशत तक पहुंच गई है। इस परिदृश्य में यह कल्पना करना मुश्किल है कि 10 लाख लोगों को रोजगार देने की योजना कैसे कारगर होगी। उदाहरण के लिए बीते वर्षों में सरकार का आकार तेजी से कम हो रहा है। 2014-15 में केंद्र सरकार के 33 लाख कर्मचारी थे जो 2019-20 में घटकर 31 लाख रह गए। श्रम शक्ति में यह कमी केंद्र सरकार के उपक्रमों में भी की गई। दूसरी बात, यह भी स्पष्ट नहीं है कि इतने लोगों का सरकार करेगी क्या। इस वक्त सभी स्तरों पर 8,42,000 रिक्तियां हैं। इसके अलावा सरकार के पास इतने बड़े पैमाने पर नियुक्तियां करने के साधन भी नहीं हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो विभिन्न भर्ती एजेंसियां मसलन संघ लोक सेवा आयोग और रेलवे भर्ती बोर्ड आदि हर वर्ष करीब एक लाख लोगों को रोजगार देते हैं। सन 2020 में स्थापित राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी से उम्मीद थी कि वह विभिन्न सरकारी भर्ती एजेंसियों की भूमिका को आत्मसात कर लेगी लेकिन वह सक्रिय ही नहीं है। तीसरी चिंता है सरकार की बजट संबंधी बाधा क्योंकि सरकार इमारतों और बुनियादी ढांचे के विकास पर भी काफी पैसे व्यय कर रही है जबकि इनसे भी रोजगार तैयार किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर भर्तियों की इस योजना में वास्तविक खतरा यह है कि वेतन का बजट बढ़ाने के लिए पूंजीगत व्यय में कटौती की जा सकती है। सरकार के आकार में एक तिहाई का इजाफा करने वाले इस कदम को केवल इस आधार पर उचित ठहराया जा सकता है कि इसका चुनावी लाभ मिल सकता है क्योंकि इससे लोगों को अच्छा महसूस कराने में मदद मिलेगी। परंतु सरकार का आकार बड़ा करना आर्थिक नीति निर्माण में प्रतिगामी कदम माना जाएगा और यह अप्रत्यक्ष रूप से यही दर्शाता है कि सरकार रोजगार के संकट से प्रभावी ढंग से निपटने में विफल रही है। व्यापार नीति में बढ़ते संरक्षणवाद के साथ मिलाकर देखें तो औद्योगिक नीति के क्षेत्र में भी हमारे ऊपर बीते तीन दशक में अर्जित लाभों को गंवाने का खतरा उत्पन्न हो गया है क्योंकि हम उस क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता पर जोर दे रहे हैं। यह सब ऐसे समय पर हो रहा है जब विश्व अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण की अहमियत बढ़ रही है।
