अपार संभावनाओं से भरा शहरी मलबे का अंबार | बुनियादी ढांचा | | विनायक चटर्जी / June 15, 2022 | | | | |
यह विगत अप्रैल के अंत का वाकया है। गुरुग्राम नगर निगम ने बड़े आक्रोश में अपने अधिकारियों को यह जांच-पड़ताल करने का आदेश दिया कि आखिर कौन गुरुग्राम-फरीदाबाद मार्ग पर निर्माण एवं ध्वंस अवशेष (सीऐंडडीडब्ल्यू) यानी मलबा फेंक रहा है। फेंका जाने वाला मलबा भी कोई मामूली मात्रा में नहीं था। करीब 500 ट्रैक्टर-ट्रॉलियां वहां अवैध रूप से मलबा फेंक रही थीं। अधिकारियों को आदेश दिया गया कि वे नियमों का उल्लंघन करने वालों का पता लगाकर इससे उत्पन्न खतरे पर लगाम लगाएं। भारत के करीब 7,935 कस्बों और शहरों में इस प्रकार की आनन-फानन वाली प्रतिक्रिया बेहद आम है।
‘अर्बन माइनिंग’ यानी शहरी खनन के संसार में आपका ‘स्वागत’ है। उल्लेखनीय है कि बुनियादी ढांचे में होने वाले कुल निवेश में करीब 65 प्रतिशत निर्माण (कंस्ट्रक्शन) के क्षेत्र में होता है। जनसंख्या वृद्धि, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण पुरानी और छोटी इमारतों के स्थान पर भीमकाय एवं गगनचुंबी इमारतें खड़ी होती जा रही हैं। बिल्डिंग मैटीरियल प्रमोशन काउंसिल के अनुसार भारत में हर साल करीब 17 करोड़ टन मलबा निकलता है, जबकि प्रतिदिन केवल 6,500 टन मलबे के पुनर्चक्रण यानी रिसाइक्लिंग की क्षमता है। इसका अर्थ है कि निकलने वाले मलबे के मात्र एक प्रतिशत का ही पुनर्चक्रण संभव है। यह मलबा निर्माण, साज-सजावट, पुनर्निर्माण, मरम्मत, घरों को ढहाने, बड़ी इमारतों, सड़क, पुलों और बांध आदि के चलते निकलता है। इस मलबे में लकड़ी, इस्पात, कंक्रीट, जिप्सम, प्लास्टर, धातु और डामर आदि-इत्यादि होते हैं। सीमेंट मोर्टार, रेड ब्रिक्स और कंक्रीट ब्लॉक के मलबे को जांचकर, उसे तोड़कर, उसकी धुलाई की जाती है और फिर उससे इमारत निर्माण में काम आने वाली सामग्री तैयार की जा सकती है। इनमें टाइल से लेकर स्लैब तक नाना प्रकार की सामग्री शामिल है।
इस प्रकार के मलबे से बने एग्रीगेट्स सड़क निर्माण, लैंडस्केपिंग और कंक्रीट निर्माण जैसे तमाम उपक्रमों में प्राकृतिक संसाधनों का विकल्प बन सकते हैं। इससे जहां प्राकृतिक संसाधनों की बचत होगी, वहीं लैंडफिल्स पर जाने वाला मलबा भी घटेगा। स्पष्ट है कि मलबे का प्रभावी प्रबंधन प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन पर लगाम लगाने के साथ ही सतत विकास में योगदान के लिहाज से सहायक सिद्ध होता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। वर्ष 2010 से 2020 के बीच भारत में रेत की मांग दोगुनी हो गई है। भारत में निर्माण के लिए मुख्य रूप से नदी की रेत का इस्तेमाल किया जाता है। बढ़ती मांग, बाधित आपूर्ति और सीमित सरकारी निगरानी ने रेत के अवैध कारोबार और चोरी को बढ़ावा दिया है। ऐसे में मलबे से तैयार की जाने वाली रेत पर्यावरणीय रूप से सतत विकल्प उपलब्ध कराती है। चूंकि वर्ष 2030 तक एक बड़ी संख्या में इमारतों के निर्माण होने का अनुमान है तो मलबे के प्रभावी प्रबंधन और ‘हरित निर्माण’ की संकल्पना और अधिक प्रासंगिक होगी।
मलबे की वैल्यू चेन की बात करें तो उसका आरंभिक बिंदु वही स्थान होता है, जहां से यह निकलता है। वहां से इसे इकट्ठा करके स्थानीय निकाय द्वारा निर्धारित स्थान तक लाया जाता है। इसके उपरांत उसका पुनर्चक्रण करने वालों का काम शुरू होता है। वे उसे अपनी सुविधा वाले स्थानों से पुनर्चक्रण के लिए जमा करते हैं। मिसाल के तौर पर स्क्रैप मेटल तो डीकंस्ट्रक्शन के दौरान जमा किया जाता है।
केवल एक प्रतिशत मलबे का ही पेशेवर तरीके से प्रसंस्करण हो पाता है। इस स्थिति को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उस स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं जब कचरे का इस्तेमाल खाद बनाने से लेकर बिजली उत्पादन में बढ़ रहा हो। वैज्ञानिक लैंड-फिलिंग का दौर हो। स्वच्छ भारत मिशन ने भी इस मोर्चे पर स्थितियां सुधारने का काम किया है। नदी स्वच्छता पहल को आधुनिक परिशोधन संयंत्रों का सहारा मिल रहा हो। तब मलबा संयंत्र की चिंताजनक स्थिति कचोटती है। फिलहाल भारत में चार मलबा प्रसंस्करण एवं रिसाइक्लिंग संयंत्र ही चालू हालत में हैं। इनमें से तीन तो केवल दिल्ली के बुराड़ी, ईस्ट किदवई नगर और शास्त्री पार्क में स्थित हैं, जिनकी प्रतिदिन रिसाइक्लिंग क्षमता क्रमशः 500 टन, 150 टन और 500 टन है। वहीं 100 टन प्रतिदिन की क्षमता वाला एक संयंत्र अहमदाबाद में भी संचालित हो रहा है। जयपुर, बेंगलूरु, पुणे और भोपाल नगर निगम भी ऐसे संयंत्र लगाने की योजना पर काम कर रहे हैं, जिनकी क्षमता 300 से 750 टन प्रतिदिन तक हो सकती है।
मलबे के उचित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए मौजूदा नीति में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। कंस्ट्रक्शन ऐंड डेमोलिशन वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स (निर्माण एवं ध्वंस कचरा प्रबंधन नियम) 2016 में अधिसूचित हुए थे और ये सीऐंडडीडब्ल्यू से संबंधित सभी पक्षों पर लागू हैं। इन्हीं नियमों में व्यवस्था है कि राज्य सरकार और स्थानीय प्राधिकरणों को मलबे से बनी 10 से 20 प्रतिशत सामग्री को खरीदकर उसका उपयोग करना है, लेकिन इस प्रावधान का बिल्कुल पालन नहीं हो रहा है।
कंक्रीट एवं सीमेंट अपने परिचालन में इस पहलू को जोड़कर इससे जुड़ी मुहिम को सहारा दे सकते हैं। इससे प्राकृतिक एग्रीगेट्स और कच्चे माल पर निर्भरता घटेगी और यह बड़े फायदे का सबब बनेगा। बहरहाल कंक्रीट एंव सीमेंट में मलबे के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कुछ नए प्रावधान आवश्यक हैं। जैसे सीमेंट एवं कंक्रीट में मलबे के उपयोग से जुड़ी मौजूदा कसौटियों पर भारतीय मानक ब्यूरो को नए सिरे से विचार करना होगा। इसी प्रकार सार्वजनिक कार्यों में भी 20 प्रतिशत की निर्धारित सीमा को बढ़ाकर 30 से 35 प्रतिशत किया जा सकता है।
मलबे से जुड़े नियमों के लचर क्रियान्वयन के अलावा उसके संग्रह एवं पुनर्चक्रण के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे के अभाव के चलते रिसाइक्लर्स को चुनौतियों से जूझना पड़ता है। साथ ही प्रदूषण फैलाने वालों से उसकी वसूली जैसे कानून की कमी है। वहीं निकायों पर भी कोई दबाव नहीं है कि उन्हें उचित संग्रह एवं प्रसंस्करण स्थान विकसित करने के लिए बाध्य किया जा सके।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार वस्तुस्थित से अनभिज्ञ है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 29 मार्च, 2016 की अधिसूचना में देश के शहरी इलाकों में ठोस कचरा प्रबंधन से जुड़े नियामकीय ढांचे का उल्लेख है। ये नियम कई उद्देश्यों को देखकर बनाए गए। जैसे कि मलबे का संग्रह, रीजेनरेशन, रिसाइक्लिंग, परिशोधन एवं निपटान में पर्यावरण का पूरा ध्यान रखा जाए। जो लोग कचरे के लिए जिम्मेदार हैं, उनकी एवं विभिन्न अंशभागियों की जवाबदेही तय की जाए। फिर मार्च 2017 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण ने मलबे के पर्यावरणीय प्रबंधन पर विस्तृत प्रक्रियागत नियमावली को आकार दिया।
ऐसे में मलबे के प्रबंधन से जुड़े किसी ढांचे का उतना अभाव नहीं दिखता। असल चुनौतियां परिचालन स्तरों पर उनके क्रियान्वयन में बरती जाने वाली शिथिलता से जुड़ी हैं। इस शिथिलता को छोड़ना होगा। फिलहाल इसी बड़े बदलाव की आवश्यकता है।
(लेखक अवसंरचना विशेषज्ञ हैं। वह सीआईआई के अवसंरचना, व्यापार एवं निवेश मिशन के चेयरमैन भी हैं।)
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