दुनिया को बचाने के लिए जरूरी सवाल | जमीनी हकीकत | | सुनीता नारायण / June 14, 2022 | | | | |
मैं यह आलेख गहरे क्षोभ के साथ लिख रही हूं। जून में दुनिया भर के देश स्टॉकहोम में एकत्रित हुए। ये देश वैश्विक स्तर पर पर्यावरण को लेकर जगी चेतना के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर एकत्रित हुए थे। यह बैठक परस्पर निर्भरता का उत्सव मनाने तथा पृथ्वी के हित में वैश्विक एकजुटता के लिए आयोजित की गई थी। परंतु इन तमाम बातों से इतर ऐसे आयोजन बहरों के बीच आपसी संवाद बनकर रह गए हैं। ऐसा लगता है मानो यह विश्व दो अलग-अलग ग्रहों पर रहता है। दोनों के बीच एक गहरा विभाजन है, ध्रुवीकरण है और एक दूसरे की चिंताओं को लेकर नासमझी भी है।
मैं आपको बताती हूं कि मुझे किस बात से परेशानी है और किस बात से मुझे लगा कि हमें एक दूसरे को सुनने सीखने की कितनी अधिक आवश्यकता है। जैसा कि आप जानते हैं देश के कई हिस्से झुलसा देने वाली गर्मी और लू से त्रस्त हैं। दिल्ली में जहां मैं रहती हूं, तापमान 47 डिग्री सेल्सियस का स्तर पार कर गया। इस समय जब मैं ये पंक्तियां लिख रही हूं, मुझे पता है कि मेरे जैसे लोग जो अपेक्षाकृत आरामदेह माहौल में रहते हैं, उन्हें इस गर्मी से बहुत अधिक परेशानी नहीं होती। परंतु लाखों लोग ऐसे भी हैं जो धूप में काम करते हैं। इनमें किसानों से लेकर विनिर्माण श्रमिक तक ऐसे तमाम लोग शामिल हैं जो एक पंखा चलाने के लिए भी बिजली का भुगतान करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे लोग सबसे अधिक प्रभावित हैं। इस भीषण तापमान को वही सबसे अधिक झेल रहे हैं, उनका काम प्रभावित हो रहा है, वे बीमार पड़ रहे हैं, लोगों की जान जा रही है। गेहूं की फसल इस गर्मी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बार तापमान में वृद्धि बहुत जल्दी हुई। हर वर्ष मई के बदले इस बार मार्च में ही गर्मियां बढ़ गईं। इससे गर्मियों का असर भी पहले की तुलना में बहुत खतरनाक ढंग से बढ़ा है। वैज्ञानिक इसे प्रशांत महासागर की लहरों के असामान्य व्यवहार यानी ला नीना से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि उनके असामान्य रूप से लंबा होने के कारण गर्म हवा के थपेड़े बढ़े। पश्चिमी विक्षोभ में बदलाव के भी प्रमाण हैं और यह बदलाव आर्कटिक जेट धारा में परिवर्तन के फलस्वरूप है। पश्चिमी विक्षोभ के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में इन गर्मियों में जल्दी बारिश होती और गर्मियों का प्रभाव भी कम होता। परंतु इस वर्ष पश्चिमी विक्षोभ कमजोर है। अभी यह पता नहीं है कि यह दीर्घकालिक रुझान है या अल्पकालिक लेकिन यह बात एकदम स्पष्ट है कि गर्म हवाओं और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में सीधा संबंध है।
हालात बहुत-बहुत खराब हैं। यह भी निश्चित है कि भारत में हम लोगों को इससे अलग तरह से सबक लेने की आवश्यकता है क्योंकि हम जानते हैं कि तापमान खराब से और खराब होता जाएगा। विश्च मौसम विज्ञान संगठन द्वारा मई 2022 में जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट 2021’ हमें बताती है कि जलवायु परिवर्तन के चार अहम संकेतक-ग्रीनहाउस गैसों का संघनन, समुद्री जलस्तर में वृद्धि, समुद्र की गर्मी और समुद्र का अमलीकरण 2021 में रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गया।
हमारे सामने क्या विकल्प हैं? पहला, सभी को सस्ती बिजली मुहैया कराना ताकि लोग इस तापमान का मुकाबला कर सकें, दूसरा बेहतर इंसुलेशन वाले और हवादार घर बनाना ताकि वे तापमान झेल सकें, तीसरा छायादार वृक्ष लगाना और चौथा पीने और सिंचाई करने के लिए जल संरक्षण करना। इन उपायों को अपनाने से हमारे शहरों का वातावरण शीतल होगा। लेकिन इस क्षेत्र में भी सीमाएं हैं। हमारा सामना जिस तापवृद्धि से है, उसमें रहना या उससे सामंजस्य बना पाना मुश्किल है। यह भी स्पष्ट है कि दुनिया का गरीब वर्ग इससे सबसे अधिक प्रभावित होगा।
मेरी पीड़ा केवल अपने आसपास के इन कठिन हालात की वजह से नहीं है। जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता और पर्यावरणविद के रूप में मुझे इस बात का अहसास है कि मैं चीजों को बेहतर बनाने में नाकाम रही हूं- हम सभी नाकाम रहे हैं। जले पर नमक वाली बात तब हो जाती है जब पश्चिमी मीडिया मेरा साक्षात्कार लेकर गर्मियों के बिगड़ते हालात के बारे में बात करना चाहता है। जीवन और मौत के बारे में चुनिंदा सवालों के बाद यही सवाल आते हैं कि भारत जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए क्या कर रहा है? यह सवाल भी किया जाता है कि भारत अभी भी कोयले से बनने वाली बिजली क्यों इस्तेमाल कर रहा है। आखिरी प्रश्न यह है कि गर्मियों में बिजली की मांग बढ़ती है जिसका अर्थ है और अधिक कोयले की खरीद। मुझसे इन सवालों के जवाब चाहे जाते हैं।
मैं उत्तर में क्या कह सकती हूं? मैं भला कैसे समझाऊंगी कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारत का योगदान नाम मात्र का है। मैं उन्हें यह कैसे समझाऊं कि वातावरण में उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों का भंडार भारत की देन नहीं है। मैं कैसे समझाऊं कि हमें भारत के गरीबों या अपेक्षाकृत अमीरों को दोष देने के बजाय वैश्विक ताकतों को यह समझना चाहिए कि तापमान में यह वृद्धि भारत जैसे देशों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है। हम सभी को अपने हित के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना चाहिए लेकिन इस बीच चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि अमीर देश जो इस समस्या की मूल वजह हैं वे अपना उत्सर्जन कैसे कम करेंगे और शेष विश्व को इस नुकसान की भरपाई करने के लिए क्या करेंगे। यह असहज करने वाला सच है जो सुना नहीं जाता। हम चीख सकते हैं लेकिन दुनिया का दूसरा हिस्सा सुन ही नहीं रहा है। अगर हम एक बेहतर दुनिया चाहते हैं तो इन हालात में बदलाव लाना होगा। तभी हमारी दुनिया बच सकेगी।
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