पाकिस्तान को काफी नुकसान पहुंचाया परवेज मुशर्रफ ने | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / June 13, 2022 | | | | |
जनरल परवेज मुशर्रफ का स्मृति लेख लिखने का वक्त अभी नहीं आया है और इसकी तीन वजह हैं। पहली, आधुनिक जीवन रक्षक उपाय किसी व्यक्ति के कई महत्त्वपूर्ण अंगों के काम करना बंद करने के बाद भी उन्हें लंबे समय तक जीवित रख सकते हैं। दूसरा, अब वे अपने देश में भी मायने नहीं रखते और उस पड़ोसी मुल्क में भी नहीं जिसे 15 वर्ष पहले उन्होंने परेशान किया था। ऐसे में आप कह सकते हैं कि भला क्या आज उनकी कोई प्रासंगिकता है? तीसरी बात, दुष्ट तानाशाह और खासकर वर्दीधारी तानाशाह वास्तव में कभी नहीं मरते। वे विध्वंस और विद्वेष की अमिट विरासत छोड़ जाते हैं।
इनका असर कितना गहरा हो सकता है यह जानने के लिए देखिए कि जिया उल हक ने पाकिस्तान को कैसी स्थायी क्षति पहुंचाई। उन्होंने न केवल एक निर्वाचित नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को अपदस्थ किया और उनकी हत्या कराई बल्कि उन्होंने जिहादी मानसिकता की बुनियाद भी रखी।
आज भी पाकिस्तान की लोकप्रिय राजनीति में ‘जियावाद’ हावी है। यह पाकिस्तान के लिए कतई अच्छा नहीं रहा है। भारत जैसे पड़ोसी देशों तथा अमेरिका जैसे मित्र राष्ट्र के लिए भी यह काफी खराब रहा है। उन्होंने सैन्यीकृत इस्लाम को जो संरक्षण दिया और जिस प्रकार दूसरे देशों में भेजने के लिए जिहादी तैयार किए उससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और उसका समाज दोनों आज तबाह हैं।
जिया ने एक जहरीला पेड़ लगाया और उसे पाला पोसा और मुशर्रफ को लगा कि वह उसके फल तोड़कर अपने देश के इतिहास में नायक बन जाएंगे। लेकिन हुआ क्या? वह नाकाम साबित हुए। उन्हें देश के संविधान को नष्ट करने वाला ठहराया गया। अदालत ने उन्हें मृत्यु दंड तक सुनाया और इस सजा को बाद में तकनीकी आधार पर बदला गया। दरअसल ऊपरी अदालत ने कहा कि इस्लामिक कानून के तहत किसी व्यक्ति पर उसकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाना अनुचित है। वह सुनवायी से इसलिए बाहर थे क्योंकि सेना ने सौदेबाजी कर उन्हें निर्वासित करा दिया था। अब वह यदाकदा ट्विटर पर नजर आते हैं या दुबई के किसी अस्पताल से रोगी के रूप में अपनी तस्वीर पोस्ट करते हैं। बीते चार दशक में मुशर्रफ ही इकलौते ऐसे अहम पाकिस्तानी नेता हैं जिनका औपचारिक साक्षात्कार मैं नहीं कर पाया। सच कहूं तो मैंने कभी उनका साक्षात्कार करने का प्रयास भी नहीं किया। हालांकि सार्वजनिक आयोजनों में मुझे उनसे व्यक्तिगत और सामूहिक बातचीत का मौका मिला। वह सबसे अहंकारी और कम बौद्धिक नेताओं में से हैं।
सन 1999 में उन्होंने जो तख्तापलट किया वह आसान था। सन 1951 के तथाकथित रावलपिंडी षडयंत्र के अलावा पाकिस्तान में कोई सैन्य तख्तापलट नाकाम नहीं हुआ। वह भी शायद इसलिए नाकाम हुआ कि उसका नेतृत्व शायर फैज अहमद फैज समेत वामपंथियों ने किया था। पाकिस्तान में सेना प्रमुखों के लिए सत्ता हासिल करना उतना ही आसान है मानो 111 ब्रिगेड के जवानों को निर्वाचित नेता के घर भेजकर चाबियां मंगवा लेना। मुशर्रफ की विरासत के बारे में बुनियादी बात यह है कि उन्होंने तख्तापलट क्यों किया।
उस वर्ष की शुरुआत फरवरी में अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा की खबरों से हुई थी। उन्होंने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे। रिश्तों में तनाव घटने के संकेत नाटकीय थे। वाजपेयी मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए जिसे पाकिस्तान में इंडिया गेट का समकक्ष माना जाता है। उन्होंने कहा था कि एक स्थिर और समृद्ध पाकिस्तान भारत के हित में है। उस समय पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष मुशर्रफ करगिल की साजिश रच रहे थे ताकि इस प्रक्रिया को ध्वस्त किया जा सके।
वह करगिल में नाकाम रहे, उनके अपने प्रधानमंत्री ने उन्हें बर्खास्त किया लेकिन वह उस शांति योजना को नष्ट करने से बाज नहीं आये। यही कारण है कि वह अपने साथी सैन्य अधिकारियों को तख्तापलट में साथ देने के लिए राजी कर पाए। इसके बाद कश्मीर घाटी में अभूतपूर्व खूनखराबा शुरू हो गया। आईसी-914 का अपरहण किया गया और बंधकों के बदले कई प्रमुख आतंकवादियों को रिहा किया गया। एक अक्टूबर 2001 को श्रीनगर विधानसभा पर बम फेंका गया और फिर 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर हमला हुआ। सन 1971 के बाद पहली बार भारत और पाकिस्तान जंग के मुहाने पर आ गये।
9/11 के बाद उन्होंने पाकिस्तान को अमेरिका के दिग्गज सहयोगी के रूप में पेश किया जबकि उसी दौरान वह अल कायदा और तालिबान के साथ मिलकर उसे धोखा भी दे रहे थे। वह पकड़े गए लेकिन ऐसा अमेरिका को ज्ञान मिलने के कारण नहीं हुआ।
पहली बात तो यह कि वह जिहादी ताकतों को नियंत्रित नहीं कर पाए। जिहादी बहुत शक्तिशाली हो गए थे और उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि पाकिस्तान अमेरिका की आतंक के खिलाफ जंग में साझेदार हो। इन लोगों ने कई बार मुशर्रफ की जान लेने की कोशिश भी की लेकिन नाकाम रहे। उनका अंत उसी आत्मघाती धारणा के कारण हुआ जो सभी तानाशाहों में होती है: वे खुद को लोकतांत्रिक मानते हैं और लोकतंत्र के बारे में औरों से अधिक जानते हैं। हर पाकिस्तानी तानाशाह ने अपने तरीके से लोकतंत्र को आजमाया। फील्ड मार्शल अयूब खान ने इसे ‘निर्देशित लोकतंत्र’ कहा। याह्या खान ने कुछ हद तक राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत दी यहां तक कि चुनाव भी होने दिए बशर्ते कि उनकी सत्ता बनी रहे। जिया ने पार्टीविहीन लोकतंत्र के साथ प्रयोग किया और फर्जी जनमत संग्रह से खुद को मजबूत किया।
मुशर्रफ ने भी लोकतांत्रिक प्रयोग किए। उन्होंने एक नया संविधान लाने का प्रयास किया, शीर्ष न्यायपालिका से जूझे और अंतत: लोकतांत्रिक जनांदोलन के चलते सत्ता गंवाई। मुशर्रफ अब वह शख्स नहीं रह गए थे जो आगरा शिखर बैठक से अहंकारपूर्वक लौट गया था और जिसके बारे में शांत स्वभाव के आई के गुजराल तक ने कहा था कि वह ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे कोई विजेता अपने जीते हुए देश में आया हो।
सन 2007 तक वह एक नेता के रूप में चूक गए थे लेकिन वह काफी नुकसान भी कर चुके थे। बेनजीर भुट्टो की हत्या, भारत में 26/11 का आतंकी हमला और ऐबटाबाद में अमेरिकी नेवी सील कमांडो के हमले में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर राष्ट्रीय शर्म का सामना भी देश को करना पड़ा था। पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह के खुद को लोकतांत्रिक समझने के भ्रम के लिए मैं आपको 2004 के इंडिया टुडे कॉन्क्लेव की याद दिलाता हूं।
आमंत्रित सदस्य के रूप में मैंने एक सवाल करते हुए उन्हें याद दिलाया कि उस वर्ष कई लोकतांत्रिक देशों में चुनाव होने वाले थे और वह पाकिस्तान में चुनाव कब कराएंगे? वह नाराज हो गए। उन्होंने कहा कि मैं कैसे कह सकता हूं कि भारत में लोकतंत्र है और उनके देश में नहीं? उन्होंने इसे पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में दखल तक बता दिया। आपको इसका वीडियो और इंडिया टुडे की वेबसाइट में प्रकाशित सामग्री मिल जाएगी।
सन 1999 में सत्ता संभालने के अगले ही सप्ताह मैंने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि उन्हें यह पता होना चाहिए कि पाकिस्तान में कोई तानाशाह केवल एक ही तरीके से विदा होता है: अपने उत्तराधिकारी के हाथों मर कर या जेल जाकर या फिर भारत के साथ जंग शुरू कर हारने के बाद निर्वासित होकर। मैंने लिखा कि मुशर्रफ भी सेवानिवृत्त होकर गोल्फ खेलने का आनंद नहीं ले पाएंगे। उन्हें मेरी बात पसंद नहीं आई थी। दावोस में अपनी नियमित यात्राओं के दौरान संपादकों के एक छोटे समूह के साथ चर्चा के दौरान उन्होंने मुझे देखा और हाथ हिलाकर कहा-आप फलाने जी, आप तो पाकिस्तान की राजनीति के अच्छे जानकार हुआ करते थे। हम इंडिया टुडे में आपको पढ़ते रहे हैं। उन्होंने मेरे पूर्व संपादक की ओर सहमति पाने के लिए देखा और कहा, ‘लेकिन अब आप कुछ नहीं जानते।’
‘ऐसा क्यों जनरल साहब’, मैंने पूछा।
‘क्योंकि आप लिखते रहते हैं कि एक तानाशाह की विदाई तीन ही तरीकों से होती है। हत्या, जेल या निर्वासन।’
‘लेकिन सर पाकिस्तान का इतिहास देख लीजिए।’ मैंने दलील दी।
उन्होंने बातचीत समाप्त करते हुए कहा, ’इतिहास को भूल जाइए। आप मुझे तानाशाह समझकर बुनियादी गलती कर रहे हैं। पाकिस्तानी मीडिया में अपने मित्रों से पूछिए। मैं उन सबको जानता हूं। उनसे पूछिए कि क्या इससे पहले कभी उन्हें इतनी आजादी थी।’
अब भी अगर वह अपने जीवन की समीक्षा कर पाते तो मानते कि उन्होंने क्या किया। उन्होंने भारत से लड़ाई शुरू की और हारे। निर्वासित हुए और उनकी जान केवल इसलिए बच सकी क्योंकि पाकिस्तानी सेना नहीं चाहती थी कि उसका पूर्व प्रमुख फांसी पर लटके।
मुशर्रफ जिया की तुलना में रत्ती भर भी इस्लामिक नहीं थे। लेकिन उन्होंने अपनी तरह से पाकिस्तान के भविष्य को काफी नुकसान पहुंचाया। इतिहासकार दशकों तक इस बात पर बहस करेंगे कि किस तानाशाह ने पाकिस्तान को अधिक नुकसान पहुंचाया। मुशर्रफ जिया को अच्छी टक्कर देंगे।
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