तोपखानों की कमी से जूझ रही है थलसेना | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / June 09, 2022 | | | | |
थलसेना की दो यंत्रीकृत स्ट्राइक कोर जिनका उद्देश्य युद्ध के दिनों में शत्रु के क्षेत्र में गहरी घुसपैठ करना है, उन्हें पिछले पांच वर्षों में पांच आर्टिलरी (तोपखाना) रेजिमेंट (100 तोपोंवाली) से लैस किया गया जिनका नाम है के-9 वज्र। 155 मिलीमीटर/52 कैलिबर की इन खुद चल सकने वाली (सेल्फ प्रोपेल्ड या एसपी) तोपों को लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी) ने कोरियाई कंपनी हानव्हा टेकविन (एचटीडब्ल्यू) के लाइसेंस के अधीन बनाया। तोपों का शामिल होना स्वागतयोग्य है लेकिन इनकी संख्या साफतौर पर अपर्याप्त है क्योंकि हर स्ट्राइक कोर में चार मझोली एसपी रेजिमेंट हो सकती हैं। इनमें से प्रत्येक के पास 20 ऐसी तोप रह सकती हैं।
इस कमी को देखते हुए थलसेना और रक्षा मंत्रालय आकलन कर रहे हैं क्या 100-200 अन्य एसपी तोप खरीदी जाएं। 200 अतिरिक्त तोपों की मदद से 10 मझोली तोपखाना रेजिमेंट तैयार हो सकती हैं : इनमें से तीन रेजिमेंट दूसरी स्ट्राइक कोर में तथा सात स्वतंत्र सशस्त्र ब्रिगेड में जो युद्ध के दौरान भूमिका निभाएं। थलसेना में तोपखाने की कमी बहुत पुरानी है जबकि आधुनिक युद्ध क्षेत्र में उसे सबसे घातक माना जाता है। अमेरिकी गृह युद्ध के समय से ही तोपखाने का एक ही काम है- शत्रु की सैन्य जमावट को पूरी तरह तहस-नहस कर देना ताकि बाकी दोनों सेनाओं को आसानी हो तथा सशस्त्र कोर के टैंक तथा पैदल सैनिक आगे बढ़ सकें। बहरहाल, थलसेना के पास प्रहार करने की क्षमता कम होने की एक वजह यह भी है कि थलसेना, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) तथा आयुध फैक्टरी बोर्ड (ओएफबी) किफायती और दूर तक प्रहार करने वाली तोपें डिजाइन करने में नाकाम रहे। इसके साथ ही रक्षा मंत्रालय भी अंतरराष्ट्रीय बाजारों से ये तोपें जुटाने में विफल रहा।
यह हमारी ऐतिहासिक कमजोरी रही है। 1526 में मुगल आक्रांता जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई तोपों की बदौलत आसानी से जीत ली। सैनिकों की तादाद के मामले में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी बढ़त पर थे लेकिन उनके पास तोपखाना नहीं था। बाबर के पास तीन-चार दस्ते थे। उसके पास उन्हें इस्तेमाल करने का कौशल और अनुभव भी था। नतीजा, सुल्तान की सेना हड़बड़ा गई। सुल्तान के हाथी तोपों की आवाज के अभ्यस्त नहीं थे और उन्होंने अपने ही सैनिकों को रौंदना शुरू कर दिया।
भारत की आधुनिक सेना ने तोपखाने के इस्तेमाल का दर्शन दूसरे विश्वयुद्ध के अलावा 1965 और 1971 की जंग से सीखा। सन 1947-48 में कश्मीर में तथा 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय हमारे पास शायद ही तोपखाना था। हमारे पास तब सड़कें भी नहीं थीं ताकि उन्हें बेहतर तैनाती देकर सेना की मदद की जा सके।
यही कारण है कि आजादी के बाद की तमाम जंगों में चुनिंदा ऐसे मामले हैं जहां तोपखाने का प्रदर्शन अच्छा रहा। ऐसा ही एक अवसर 1999 का करगिल युद्ध रहा जहां थलसेना ने 155 मिमी 39 कैलिबर की बोफोर्स एफएच-77 तोप का शानदार इस्तेमाल किया। तोपों की मदद से शत्रु की मारक क्षमता को नष्ट करके हमारे सैनिक बिना ज्यादा क्षति के पाकिस्तान पर तगड़े हमले कर सकते हैं।
तोपखानों की तादाद
भारत में 226 तोपखाना रेजिमेंट हैं और इनकी तादाद बढ़ाकर 270 की जानी है। हर रेजिमेंट में करीब 18 तोपों तथा दो आरक्षित तोपों के साथ कुल मिलाकर करीब 5,400 तोपें होंगी। करगिल के बाद थलसेना की सभी तोपखाना रेजिमेंट्स को बेहतर बनाने का निर्णय लिया गया। इसके तहत 105 और 130 मिमी की तोपों की जगह 155 मिमी की तोपों का प्रयोग शामिल था। तोपों के अलावा तोपखाना कोर सर्विलांस ऐंड टारगेट एक्वीजिशन (एसएटीए) सिस्टमों का संचालन करती है जो शत्रु की तोपों और रडार का पता लगाते हैं जिन्हें बाद में ध्वस्त किया जा सके। इनमें स्वदेशी स्वाति वीपन लोकेटिंग रडार (डब्ल्यूएलआर) शामिल है । इजरायल से आयातित लॉन्ग रेंज रेसे ऐंड ऑब्जर्वेशन सिस्टम (एलओआरओएस) भी शत्रुओं की तोपों का पता लगाता है।
तोपों का बढ़ता प्रदर्शन
तोपों की क्षमता और प्रहार का दायरा बढ़ाने का सबसे सहज तरीका है उनके चैंबर के आकार में इजाफा। तोप का चैंबर जितना बड़ा होगा, वह उतना अधिक विस्फोटक दाग सकेगी। उसके हमले की जद भी उतनी ही अधिक होगी। आमतौर पर तोपों का चैंबर 19, 23 या 25 लीटर के होते हैं। 155 मिमी/39 कैलिबर एफएच-77बी बोफोर्स तोप में 19 लीटर का चैंबर था जबकि घरेलू एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन सिस्टम (एटीएजीएस) जिसे डीआरडीओ विकसित कर रहा है उसमें 25 लीटर का चैंबर है। चैंबर का आकार लक्ष्य पर उसके असर को प्रभावित नहीं करता क्योंकि तीनों तरह के चैंबर से एक समान विस्फोटक दागे जाते हैं। चैंबर का आकार बढ़ाने से दबाव बढ़ता है और विस्फोटक अधिक तेजी से दागे जा सकते हैं। इससे हथियार का दायरा बढ़ता है।
ज्यादा कैलिबर का अर्थ है लंबी बैरल। बोफोर्स तोप का 155/39 कैलिबर का बैरल 39 गुना 155 मिमी लंबा है जो करीब 6.05 मीटर है। एम 777 अल्ट्रालाइट हावित्जर (यूएलएच) के आगमन के बाद यह छोटी हो गई क्योंकि एम 777 तोप 155 मिमी/45 कैलिबर की थी और उसका बैरल 45 गुणे 155 मिमी या 6.96 मीटर का था। बीएई सिस्टम्स 58 कैलिबर का एक बैरल विकसित कर रही है जो एम 777 के प्रहार के दायरे को बढ़ाएगा। हालांकि समकालीन तोपों ने दायरे के मामले में इन्हें पीछे छोड़ दिया है और इनके बैरल 8 मीटर से अधिक लंबे है।
सटीकता
तोपखानों में एक और क्षमता सुधार उन्हें और अधिक अचूक बनाकर किया जा सकता है। इसके लिए दो तकनीक हैं: एक्सकैलिबर एम्युनिशन में गोले को जीपीएस निर्देशन की मदद से आगे उछाला जाता है। इसके लिए लक्ष्य के बारे में सटीक जानकारी होनी चाहिए। हमारे पास एक्सकैलिबर सेवा नहीं है।
सटीक निशाना लगाने के लिए दूसरी तकनीक है गाइडेड एम्युनिशन जिसका नाम है क्रास्नोपोल। यह लेजर के सहारे लक्ष्य पर हमला करती है। हमारे पास मौजूद क्रास्नोपोल को पुराना पड़ने के कारण नष्ट कर दिया गया।
अन्य तरीके
बिना चैंबर की क्षमता बढ़ाए या बिना बैरल की लंबाई बढ़ाए गोले की मारक क्षमता बढ़ाने का तीसरा तरीका है उसमें एक रैमजेट लगाना। यह रैमजेट उसे और दूर तक उछालने में मदद करता है। बीएई सिस्टम्स इसमें लगा हुआ है जबकि डीआरडीओ अकादमिक संस्थानों में शोध कर रहा है।
प्रहार क्षमता को और घातक बनाने के लिए तोप के गोलों में बेहतर विस्फोटकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। डीआरडीओ की हाई एनर्जी मटीरियल रिसर्च लैबोरेटरी (एचईएमआरएल) इस दिशा में काम कर रही है।
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