कंपनियां तृप्त, लेकिन… | |
साप्ताहिक मंथन | टी. एन. नाइनन / 06 04, 2022 | | | | |
देश की अर्थव्यवस्था के सामने कई तरह की अनिश्चितताएं हो सकती हैं लेकिन देश का कॉर्पोरेट जगत एक कठिन दशक से उबरकर अब ऐसी बेहतर स्थिति में पहुंच गया है जहां वह पहले नहीं था। शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों में से चुनिंदा 2,785 की बात करें तो 2021-22 में इनका मुनाफा कुल बिक्री का 9.7 प्रतिशत रहा। यह स्तर बीते एक दशक में और संभवत: 2008 के वित्तीय संकट के बाद से ही देखने को नहीं मिला था (आंकड़े: कैपिटालाइन)। महज दो वर्ष से कुछ अधिक पहले 2019-20 में यानी कोविड के पूर्व, मुनाफा बिक्री का 3.4 प्रतिशत था। इससे पहले सबसे अच्छा वर्ष 2017-18 था जब मुनाफा मार्जिन 7.2 प्रतिशत था। अन्य वर्षों में यह 6 फीसदी के आसपास रहा। इस परिदृश्य में 9.7 प्रतिशत का आंकड़ा काफी बेहतर है।
मुनाफे में वृद्धि की चार वजह हैं। पहली, अधिकांश कंपनियों ने कर्ज चुका दिया है और उनका ब्याज भुगतान कम हो गया है। दूसरी वजह, वित्तीय क्षेत्र (बैंक, शैडो बैंक, बीमा कंपनियां, ब्रोकरेज आदि) में बदलाव आया है जबकि यह क्षेत्र पिछले आधे दशक से फंसे कर्ज और खराब बैलेंस शीट वृद्धि से परेशान था। तीन वर्षों में वित्तीय क्षेत्र का मुनाफा चार गुना से अधिक बढ़ा है। सूचीबद्ध कंपनियों के कुल मुनाफे में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी जो 2012-13 के 27 फीसदी से घटकर 2017-18 में 8 फीसदी रह गई थी वह अब पुन: बढ़कर 26 प्रतिशत हो गई है। तीसरी वजह कंपनियों ने लागत कम करके कोविड के झटके से बहुत अच्छी तरह निपटने में सफलता हासिल की। 2020-21 में इसका सबसे नाटकीय रूप सामने आया जब बिक्री में 4 फीसदी की कमी आई लेकिन शुद्ध मुनाफा पिछले साल से दोगुना से अधिक हो गया। एक वर्ष बाद यह बढ.कर 65 प्रतिशत हो गया।
अंत में कंपनियों ने वित्त मंत्री की उस पेशकश का भी लाभ लिया जिसमें उन्होंने कॉर्पोरेट मुनाफे पर कम कर दर की बात कही थी। इसे कंपनियों की कुछ रियायतों को त्यागने की इच्छा से जोड़ा गया था। कंपनियों ने स्वैच्छिक रूप से वह विकल्प चुना जो उनके लिए अधिक बेहतर था। इस प्रकार समग्र कॉर्पोरेट कर (मुनाफे के हिस्से के रूप में) कम हुआ। आज परिणाम यह है कि ढेर सारी कंपनियां बिना नकदी की चिंता किए नई क्षमताओं में निवेश करने तथा अपना कारोबार बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अच्छी स्थिति में हैं। इसी प्रकार बैंक भी अब ऋण देने के नजरिये से अच्छी स्थिति में हैं। आम परिवारों की खपत अवश्य अपेक्षित दृष्टि से नहीं बढ़ी है क्योंकि मुद्रास्फीति ने मांग पर दबाव डाला है। कई लोगों का रोजगार जाना भी इसकी वजह है। ताजा तिमाही के आंकड़े दिखाते हैं कि जीडीपी में निजी खपत की हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है। बढ़ती ब्याज दरें भी ऋण आधारित खरीद पर असर डालेंगी।
ऐसे परिदृश्य में अभी निर्यात बाजारों की जरूरत तथा सरकार द्वारा व्यय के लिए चिह्नित किए गये क्षेत्रों (कमजोर निजी मांग की कमी दूर करने के लिए) के अतिरिक्त नवीन क्षमता की अधिक आवश्यकता नहीं है। बल्कि दशक भर में हमारे इस नमूने में शामिल कंपनियों की बिक्री बमुश्किल दोगुनी हुई है। यानी सालाना करीब 7 प्रतिशत की वृद्धि। मुद्रास्फीति का समायोजन करके देखें तो वास्तविक वृद्धि और कम साबित हो सकती है।
आगे नजर डालें तो मांग सुधार की दृष्टि से अल्पावधि का परिदृश्य कमजोर ही माना जाना चाहिए क्योंकि मुद्रास्फीति के आने वाले समय में भी मजबूत रहने का अनुमान है। तेल कीमतों की तेजी घरेलू मोर्चे पर और झटका दे सकती है जबकि विदेशों में मंदी निर्यातकों के लिए बुरी खबर है। ऐसे में निजी निवेश में सुधार अभी दूर की कौड़ी है। जब भी हालात बदलेंगे और निवेश आएगा तब अर्थव्यवस्था तेजी के लिए तैयार रहेगी। परंतु लोग ऐसी तेजी की प्रतीक्षा लंबे समय से कर रहे हैं।
इस समस्या को हाल के समय में बढ़ी आय की असमानता से अलग करके देखना मुश्किल है। लाखों लोगों को रोजगार गंवाने पड़े हैं और उभरती अस्थायी श्रमिकों वाली अर्थव्यवस्था में स्थायित्व या स्थिरता का अभाव रहता है।
इन बातों के परिणामस्वरूप मार्क्सवादी शैली की कम खपत के लिए हेनरी फोर्ड जैसा उपाय अपनाना होगा- लोगों को बेहतर वेतन भुगतान करें और वे आपके उत्पादों की ज्यादा खरीद करेंगे। आज ढेरों लोगों की आय इतनी कम है कि वे अर्थव्यवस्था में खपत वृद्धि की सहायता नहीं कर पा रहे। इसका दूसरा पहलू एकदम स्पष्ट है: कंपनियां बहुत अधिक मुनाफा अपने पास रख रही हैं।
|