बाइडन के लिए आसान नहीं एशिया की राह | |
हर्ष वी पंत और शशांक मट्टू / 06 01, 2022 | | | | |
अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज हुए करीब 16 महीने गुजरने के बाद राष्ट्रपति जो बाइडन के आधिकारिक विमान एयर फोर्स वन ने आखिरकार एशिया की उड़ान पकड़ी। अपने राष्ट्रपति काल में बाइडन बीते दिनों पहली बार एशिया आए। अपनी चार दिवसीय यात्रा के दौरान उनका एजेंडा काफी विस्तृत रहा। इस दौरान उन्होंने कई कूटनीतिक कवायद कीं। दक्षिण कोरिया और जापान जैसे सहयोगियों के साथ द्विपक्षीय वार्ता हुई। क्वाड नेताओं के शिखर सम्मेलन में भाग लिया। इन सबसे बढ़कर बहुप्रतीक्षित हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे (आईपीईएफ) जैसी बड़ी पहल की।
बाइडन के दौरे के तीन प्रमुख लक्ष्य थे। पहला यही कि एशिया में अपने सहयोगियों में भरोसे का पुन: संचार करना। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और दक्षिण कोरिया के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति युन सुक-योल के साथ द्विपक्षीय वार्ता की। इन दोनों नेताओं के साथ वार्ता में बाइडन ने मुख्य रूप से एशिया में अमेरिकी आधारभूत नीतियों की पुन: पुष्टि का ही बीड़ा उठाया। वहीं अमेरिका के साथियों ने भी उत्तर कोरिया की परमाणु चुनौती, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्वतंत्र आवाजाही सुनिश्चित करने, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को नए सिरे से गढ़ने के अलावा ताइवान पर मंडराते चीनी खतरे से निपटने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। वास्तव में सोल में हुए सत्ता परिवर्तन से अमेरिका विशेष रूप से मुदित होगा, क्योंकि पारंपरिक सोच वाली नई सरकार अमेरिकी नजरिये के साथ कहीं बेहतर साम्य रखती है। इससे पहले दक्षिण कोरियाई सरकारों पर अफसरशाहों की छाप अधिक दिखती थी और वे 'स्वतंत्र एवं खुले हिंद-प्रशांतÓ से जुड़े अमेरिकी दृष्टिकोण की सार्वजनिक रूप से मुखर हिमायत करने से हिचकती रहीं, क्योंकि कहीं न कहीं उन्हें इस बात का डर सताता था कि ऐसा करने से चीन कुपित हो सकता है।
ऐसे में युन की ताजपोशी अमेरिकी उम्मीदों को परवान चढ़ाने वाली है। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह रहा कि युन ने क्वाड के साथ कदमताल करने में अपने देश की दिलचस्पी दिखाई और यहां तक संकेत दिए कि वह जापान के साथ दक्षिण कोरिया के कड़वाहट भरे संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। इस प्रकार देखा जाए तो बाइडन अपने पहले लक्ष्य में कमोबेश कामयाब रहे।
अब उनके दूसरे उद्देश्य की बात करें तो वह चीनी प्रभाव की काट करने पर केंद्रित था, जिसमें उन्हें ठीक-ठाक ही सफलता मिली। दक्षिण कोरिया ने रक्षा उपकरणों के संयुक्त विकास एवं निर्माण के मोर्चे पर अमेरिका के साथ अपनी सामरिक साझेदारी को विस्तार दिया है। दक्षिण कोरिया का यह रुख इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य गठजोड़ के लिए उत्साहवर्धक सिद्ध होगा। वहीं जापान द्वारा अपने रक्षा व्यय में बढ़ोतरी को लेकर प्रतिबद्धता इस क्षेत्र में अमेरिका के भारी-भरकम सैन्य बोझ को कुछ हल्का करने का काम करेगी। अमेरिका का एक और प्रमुख एजेंडा है कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को नए सिरे से गढ़ा जाए ताकि चीन पर निर्भरता कम की जा सके। इसमें भी उसे सफलता के कुछ संकेत दिख रहे हैं, क्योंकि तमाम क्षेत्रीय राजधानियां चीन की अति महत्त्वाकांक्षा से उपजी तपिश को महसूस करती हैं, जो प्रमुख औद्योगिक उत्पादों के विनिर्माण में चीन के वर्चस्व से उपजती है। ऐसे में जापान का नया आर्थिक सुरक्षा कानून और आपूर्ति श्रृंखला को लेकर क्वाड में बनी सहमति अमेरिका की इससे जुड़ी आकांक्षाओं के अनुरूप ही है। क्वाड में अमेरिका का निरंतर बढ़ता कूटनीतिक निवेश भी उसके कई क्षेत्रीय सहयोगियों को आश्वस्त कर रहा है, क्योंकि यह संकेत करता है कि अमेरिका का इरादा इस इलाके में लंबे समय तक टिके रहने का है।
इस दौरान बाइडन ने यह कहकर अपने तेवर एकदम स्पष्ट कर दिए कि ताइवान पर किसी संभावित चीनी हमले की स्थिति में अमेरिका उसका सैन्य कवच बनेगा। उनके इस बयान से भले ही अमेरिकी राजनयिकों को गुणाभाग करते हुए देखा गया हो, लेकिन ताइवान और जापान ने इस दांव की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। इसके साथ ही जापान के सेनकाकू द्वीप को किसी भी चीनी हमले से बचाने के संकल्प को जोड़ लिया जाए तो बाइडन की इस यात्रा ने एशिया में अमेरिकी सैन्य प्रतिबद्धता की गहराई-गंभीरता को लेकर क्षेत्र में सैन्य एवं राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर उठ रहे संदेहों को दूर किया होगा।
और अंत में, आईपीएफ की चर्चा करते हैं। बाइडन का एशिया प्रवास इस मंच की शुरुआत के लिए एकदम माकूल मौका था। इस 13 सदस्यीय मंच को चीन के आर्थिक प्रभुत्व को चुनौती देने वाले समूह के रूप में देखा जा रहा है, जो डिजिटल अर्थव्यवस्था से लेकर जलवायु परिवर्तन और आपूर्ति श्रृंखला जैसे कई साझा उद्देश्यों के लिए काम करेगा। इसके पीछे अमेरिका की यही उम्मीद है कि एशिया में उसकी भारी-भरकम सैन्य रणनीति में आईपीईएफ अति आवश्यक आर्थिक पूरक की पूर्ति का काम करेगा। हालांकि इस मामले में वह नाकाम ही दिखता है। इसका कारण यही है कि करीब सात महीनों से इसे लेकर चल रही चर्चाओं के बावजूद अभी तक उसका रूप-स्वरूप एक पहेली ही बना हुआ है। उसे लेकर अभी तक मिली जानकारियां भी बहुत हौसला बढ़ाने वाली नहीं हैं। जैसे कि अमेरिका ने दो-टूक कहा है कि इसमें प्रशुल्क की घटी दरों के रूप में व्यापार रियायतों या बाजार में बेहतर पहुंच जैसी अपेक्षाएं न की जाएं। दूसरी ओर वह क्षेत्र की उन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं से बड़ी अपेक्षाएं कर रहा है, जो अभी तक कोविड महामारी के कहर से पूरी तरह उबर नहीं पाई हैं कि वे उत्सर्जन घटाने से लेकर श्रम मानकों के मोर्चे पर बड़े प्रयास करें। यदि आईपीईएफ में कायम खामियों को जल्द ही दुरुस्त नहीं किया गया तो यह अप्रासंगिक हो जाएगा। चीन के बढ़ते आर्थिक दबदबे की प्रभावी काट के लिए इस पहल को प्रोत्साहन प्रदान करने का दारोमदार अमेरिका पर ही है। अन्यथा इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक समीकरणों को प्रभावी रूप से साधना मुश्किल होगा। इसी दौरान उत्तर कोरिया द्वारा अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण उसकी मारक क्षमताओं को ही जाहिर करता है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि एशिया में बाइडन प्रशासन के लिए कितनी चुनौतियां हैं, जिनका उसे तोड़ निकालना होगा।
(पंत ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) में वाइस प्रेसिडेंट-स्टडीज और मट्टू लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रोफेसर एवं ओआरएफ में रिसर्च फेलो हैं)
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