कच्चे तेल का गणित | संपादकीय / May 26, 2022 | | | | |
भारत का वृहद आर्थिक परिदृश्य अक्सर कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर बदलता रहता है। ईंधन का बड़ा आयातक होने के नाते भारत का प्रदर्शन उस समय अच्छा रहता है जब तेल कीमतें कम और स्थिर रहती हैं। कच्चे तेल की कीमतों में ज्यादा बढ़ोतरी से नीतिगत चुनौतियां बढ़ती हैं। इससे चालू खाते का घाटा बढ़ता है और मुद्रा पर दबाव बनता है जिसका सावधानीपूर्वक प्रबंधन करने की आवश्यकता होती है। तेल की ऊंची कीमतों का परिणाम उच्च मुद्रास्फीति और सरकारी वित्त पर दबाव के रूप में भी सामने आता है। इस वर्ष की शुरुआत से कच्चा तेल अब तक 48 फीसदी महंगा हो चुका है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार ने गत सप्ताह पेट्रोल और डीजल पर कर कम करने का निर्णय लिया जिसके चलते राजस्व में सालाना करीब एक लाख करोड़ रुपये की कमी आएगी। सरकार ने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों को दिए गए गैस सिलिंडर पर 200 रुपये की सब्सिडी की घोषणा भी की। इसकी वजह से सरकारी खजाने पर 6,100 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। अन्य उपायों के साथ ऐसे कदम सरकारी वित्त पर दबाव डालेंगे। सरकार का लक्ष्य राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 6.4 फीसदी तक सीमित रखने का है।
वृहद आर्थिक चुनौतियों के अलावा ऊंची तेल कीमतों का नतीजा भी मूल्य विनियंत्रण सुधारों में पलटाव के रूप में सामने आया है। सरकारी तेल विपणन कंपनियों ने पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों का समायोजन लगभग बंद कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप अंडर रिकवरी दोबारा शुरू हो गई है। एक अनुमान के मुताबिक, पेट्रोल की अंडर रिकवरी 13 रुपये प्रति लीटर है जबकि डीजल के लिए यह 24 रुपये प्रति लीटर है। यह स्थिति स्थायी नहीं है। इसका असर निजी खुदरा कारोबारियों पर पड़ेगा जिनके पास कोई मूल्य शक्ति नहीं है। अधिकांश बाजार पर सरकारी कंपनियों का नियंत्रण है। इसके परिणामस्वरूप निजी कंपनियां घाटा कम करने के लिए परिचालन सीमित करने पर विचार कर रही हैं। यदि हालात ऐसे ही रहे तो यह मानने की पर्याप्त वजह है कि वे कारोबार से बाहर निकलने की राह तलाशेंगी। यदि ऐसा हुआ तो भारत इस क्षेत्र में निजी निवेश जुटाने में कामयाब नहीं होगा और उसे सक्षमता का लाभ भी नहीं मिलेगा जो खुलेपन से आता है और कीमतों को प्रतिस्पर्धी बनाता है। सरकार के लिए भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन के लिए खरीदार तलाशना भी मुश्किल होगा।
चूंकि भारत तेल आयात पर बहुत निर्भर है इसलिए ऊंची कीमतों से उत्पन्न समस्या से नहीं निपटा जा सकता है। बहरहाल, कुछ दिक्कतें तो अपनी पैदा की हुई भी हैं। सरकार पेट्रोलियम क्षेत्र के राजस्व पर बहुत अधिक निर्भर है। सन 2020-21 में केंद्रीय खजाने में इस क्षेत्र का योगदान 4.55 लाख करोड़ रुपये से अधिक था जो 2014-15 से 2.6 गुना ज्यादा था। कर स्थिरता के लिए सरकार को पेट्रोलियम पर निर्भरता कम करनी होगी और अन्य स्रोतों से आने वाला राजस्व बढ़ाना होगा। करों को तार्किक बनाना के क्रम में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में शामिल किया जाए तो उन्हें इनपुट क्रेडिट का लाभ मिलेगा। सरकार एक अलग कार्बन कर लगा सकती है जिससे पर्यावरण अनुकूल परियोजनाओं को फंड किया जा सकता है।
भारत को गहन राजकोषीय सुधारों की आवश्यकता है। उसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह की कर व्यवस्थाओं की समीक्षा करने की आवश्यकता है ताकि कर जीडीपी अनुपात सुधारा जा सके। सरकार को वृद्धि को प्राथमिकता देने के लिए व्यय को तार्किक बनाने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा उसे कीमतों में हस्तक्षेप करने से भी बचना चाहिए। मूल्य विनियंत्रण का इरादा भी यही था। मूल्य नियंत्रण से समस्या बिगड़ सकती है। कुल मिलाकर जहां कुछ आर्थिक कष्ट लाजिमी है, वहीं सरकार मजबूत राजकोषीय रुख और पारदर्शी मूल्य के साथ वृहद आर्थिक जोखिम को थाम सकती है। बाहरी मोर्चे पर मुद्रा को व्यवस्थित समायोजन की इजाजत होनी चाहिए ताकि चालू खाते में बदलाव परिलक्षित हो सके।
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