एलआईसी या एयर इंडिया? | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / May 21, 2022 | | | | |
सरकार द्वारा हाल ही में की गई दो बिक्रियों पर विचार कीजिए। एयर इंडिया को टाटा समूह को बेच दिया गया जबकि जीवन बीमा निगम (एलआईसी) में कुछ हिस्सेदारी खुदरा निवेशकों को बेची गई। एलआईसी का पेशकश मूल्य निजी क्षेत्र की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के मूल्यांकन की तुलना में बहुत कम था। इसके बावजूद सूचीबद्धता के बाद से इसके शेयरों की कीमत लगातार गिरी है। कोल इंडिया समेत तमाम सरकारी कंपनियों का इतिहास ऐसा ही रहा है। एलआईसी में 96.5 फीसदी हिस्सेदारी अभी भी सरकार के पास है और उसके विपरीत एयर इंडिया का पूरी तरह निजीकरण कर दिया गया है। इससे पहले जब सरकार ने कुछ हिस्सेदारी अपने पास रखते हुए बिक्री का प्रयास किया था तब कोई खरीदार नहीं मिला था। तमाम शेयरों की बिक्री के बावजूद यह इसलिए संभव हुआ कि सरकार ने करीब 50,000 करोड़ रुपये का कर्ज बट्टे खाते में डाला। अधिकांश लोगों का अनुमान है कि अब विमानन कंपनी का प्रदर्शन बेहतर रहेगा।
इसमें कुछ भी नया नहीं है। निजीकृत कंपनियों (खासतौर पर वे कंपनियां जिन्हें अरुण शौरी ने वाजपेयी सरकार में रहते हुए बेचा था-उदाहरण के लिए जिंक और कॉपर उत्पादक) की बिक्री के बाद बेहतर प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति रही है। उनका प्रदर्शन उन कंपनियों से बेहतर रहता है जिनमें निजी क्षेत्र की अल्पांश हिस्सेदारी के बावजूद संचालन सरकार के हाथ में रहता है। ऐसी कई विनिवेश की गई कंपनियों का मूल्यांकन उच्चतम स्तर का आधा या एक तिहाई हो चुका है। हालांकि शेयर बाजार सूचकांक अपने उच्चतम स्तर से बमुश्किल 10 प्रतिशत नीचे हैं। यह किस्सा तब भी नहीं बदला जब सरकार ने लाखों करोड़ रुपये की राशि सरकारी बैंकों में नयी पूंजी के रूप में डाली या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी दूरसंचार कंपनियों बीएसएनएल और एमटीएनएल के कर्ज को बट्टे खाते में डाला। विनिवेश (यह निजीकरण से अलग है) के पीछे यह दलील रही है कि निजी निवेशकों का दबाव सरकारी कंपनियों को बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रेरित करता है और सरकार को एक निश्चित दूरी रखने पर मजबूर करता है। अनुमान यह भी था सरकारी क्षेत्र के प्रबंधकों को अगर सरकारी हस्तक्षेप से परे अकेला छोड़ दिया जाए तो उनका प्रदर्शन बेहतर होगा। यह दलील कुछ मामलों में कामयाब तो कुछ अन्य में नाकाम साबित हुई। रक्षा क्षेत्र की कंपनियां मसलन हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स को परिचालन स्वतंत्रता का लाभ मिला और उनके शेयरों की कीमत अपने उच्चतम स्तर पर है। परंतु ये प्राय: एकाधिकार वाले क्षेत्र हैं। प्रतिस्पर्धी क्षेत्रों में लार्सन ऐंड टुब्रो के शिपयार्ड ने दिखाया है कि वह तय समयसीमा और लागत में पोत बना सकता है। ध्यान रहे सरकारी मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स ऐसा कभी नहीं कर सकी। तथ्य तो यह है कि एक सरकारी उपक्रम में निर्णय प्रक्रिया की गुंजाइश बहुत सीमित रहती है। यही कारण है कि एलआईसी तथा अन्य सरकारी बैंक निजी प्रतिस्पर्धियों के सामने सिमटते गए। इसके अलावा एक धारणा यह है कि सरकारी प्रबंधक नहीं बल्कि सरकार ही समस्या है। ऐसी धारणा भी सरकारी कंपनियों की सूचीबद्धता में समस्या पैदा करती है क्योंकि उनमें से अनेक में सरकारी दखल अब भी दिखता है। ऐसे में पूर्ण निजीकरण की दलील तैयार होती है। एयर इंडिया के साथ ऐसा ही हुआ। मंत्रालय के दखल ने उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया था।
सरकारी क्षेत्र का बचाव करने वाले कहेंगे कि निजी क्षेत्र की नाकामी भी उतनी ही आम है जितनी सरकारी क्षेत्र की। लाइसेंस पाने वाले अधिकांश निजी बैंक मसलन ग्लोबल ट्रस्ट और सेंचुरियन आदि ठप हो गए जबकि येस बैंक जैसे अन्य बैंक घोटालों में फंस गए। दूरसंचार कंपनियों और निजी विमानन कंपनियों में भी ऐसा ही हुआ। परंतु प्रतिस्पर्धा में हारने वाले बाहर हो जाते हैं जबकि सरकारी कंपनियों में करदाताओं का पैसा लगाने का सिलसिला जारी रहता है।
देश में निजीकरण के विरुद्ध असल दलील यह है कि सरकारी कंपनियों की बिक्री से किसी न किसी बड़े घराने के लाभान्वित होने की संभावना रहती है। कोई समझदार व्यक्ति नहीं चाहेगा कि पहले से शक्तिशाली कारोबारी और शक्तिशाली हों। यही कारण है कि भारत में बाजार का निजीकरण (विमानन, दूरसंचार, बैंकिंग, बीमा आदि) कारगर रहा है जबकि उन्हीं बाजारों में कंपनियों का निजीकरण नहीं। इसके बावजूद प्रतिस्पर्धी बाजारों में सरकारी क्षेत्र की नुकसान में चल रही कंपनियों की समस्या से निपटना मुश्किल है।
यदि किसी को एयर इंडिया जैसा हल अपनाना है तो प्रतीक्षा करनी होगी कि कंपनी दिवालिया हो जाए और फिर उसे किसी भी इच्छुक व्यक्ति को मुफ्त में दे दिया जाए। या फिर सरकारी कंपनियों को ऋणशोधन प्रक्रिया में डालकर उन्हें खुली नीलामी में बेचा जा सकता है, भले ही वह कोई बड़ा कारोबारी घराना हो जिसने अन्य बोलीकर्ताओं को भयभीत कर दिया हो।
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