सहकारी संघवाद | संपादकीय / May 20, 2022 | | | | |
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठ ने गुरुवार को एक निर्णय में कहा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद की अनुशंसाएं केंद्र और राज्य सरकारों पर बाध्यकारी नहीं हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद और राज्य विधानसभाओं के पास यह शक्ति है कि वे जीएसटी से संबंधित विषयों पर कानून बनाएं। निर्णय के माध्यम से भारतीय संघवाद के ढांचे को स्पष्ट किया गया और सहयोग की आवश्यकता को भी रेखांकित किया गया। राज्यों और केंद्र सरकार के बीच वर्षों के मशविरे के बाद जीएसटी क्रियान्वयन को सहकारी संघवाद के बेहतरीन उदाहरणों में से एक माना जाता है। केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने अपनी शक्तियां वस्तुओं और सेवाओं पर कर लगाने के लिए एकत्रित कीं ताकि देश में एक कर प्रणाली हो सके। विभिन्न राज्यों में विभिन्न स्तरों पर लगने वाला कर कारोबारों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा था। मोहित मिनरल्स के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को लागू रखा जिसके मुताबिक केंद्र सरकार समुद्री मालवहन पर एकीकृत जीएसटी नहीं वसूल सकती। इस संदर्भ में किसी भी विधायी कमी को परिषद के साथ चर्चा करके ही दूर किया जा सकता है। संसद के पास आईजीएसटी के मामलों में कानून बनाने का अधिकार है। बहरहाल, जीएसटी परिषद की स्थिति पर न्यायालय के पर्यवेक्षण ने चिंता बढ़ा दी है। यह कहा जा रहा है कि राज्य शायद परिषद के निर्णयों को लागू न करें और एक देश एक कर का लाभ गंवा दिया जाए। यह बात ध्यान देने लायक है कि न्यायालय ने संवैधानिक स्थिति को ही दोहराया है। अनुच्छेद 279ए में कहा गया है कि जीएसटी परिषद 'केंद्र और राज्यों को कर के विभिन्न पहलुओं के बारे में अनुशंसाएं कर सकती है।' परंतु अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि परिषद वस्तु एवं सेवा कर के लिए एक सुसंगत ढांचे की जरूरत के मुताबिक काम करेगी और साथ ही वह वस्तुओं एवं सेवाओं के समन्वित राष्ट्रीय बाजार के विकास की दिशा में काम करेगी।
यह बात अहम है क्योंकि अनुच्छेद 246ए हर राज्य की विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह वस्तुओं एवं सेवाओं से संबंधित कानून बनाए। ध्यान रहे कि संविधान परिषद को यह अधिकार भी देता है कि वह अपने कामकाज में प्रदर्शन प्रक्रिया निर्धारित कर सके। यदि जीएसटी के कामकाज में कुछ अंतर आता है जो कि व्यवस्था की परिपक्वता के बीच हमेशा संभव है, तो परिषद उन्हें पाटने में सक्षम है। यानी निर्णय ने जीएसटी व्यवस्था के लिए अनिश्चितता नहीं बढ़ाई है। व्यवस्था इस तरह बनी है कि सहमति बनायी जा सके। कानून में दो तिहाई वजन राज्यों के पास है जबकि एक तिहाई केंद्र के पास। चूंकि सभी राज्य परिषद की प्रक्रिया का हिस्सा हैं इसलिए सैद्धांतिक तौर पर ऐसी कोई वजह नहीं है कि कुछ राज्य अलग व्यवहार करें। इसके अलावा परिषद को सुसंगत बाजार भी विकसित करना है।
ऐसे कई मौके आए हैं जब राज्यों और केंद्र के बीच मतभेद पैदा हुए लेकिन उन्हें हल कर लिया गया। शायद सबसे बड़ी चुनौती यही है कि राजस्व का समायोजन कैसे किया जाए। क्रियान्वयन के पांच वर्ष पूरे होने के बाद राज्यों को 1 जुलाई से राजस्व कमी की क्षतिपूर्ति नहीं मिलेगी। परिषद दरों को तार्किक बनाने में लगी है ताकि राजस्व संग्रह में सुधार हो। आशा है यह काम जल्दी होगा। एक बार व्यवस्था के स्थिर हो जाने तथा बदलाव की जरूरत कम होने के बाद परिषद के मतभेद स्वत: कम हो जाएंगे। निर्णय में इस बात को रेखांकित किया गया कि सहयोग बढ़ाने की जरूरत है। केंद्र को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी राज्यों की चिंताएं हल की जा सकें। इससे यह भी तय होता है कि शुल्कों और प्रावधानों को सफलतापूर्वक चुनौती दी जा सकती है। केंद्र सरकार और परिषद को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून के अनुसार करों को कड़ाई से लागू किया जाए।
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