पर्यावरण के लिहाज से धान की सीधी बुआई के कई फायदे | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / May 19, 2022 | | | | |
धान उत्पादक आमतौर पर फसल के लिए जरूरी पानी की तुलना में बहुत अधिक पानी का उपयोग करते हैं। सिंचाई के लिए उपयोग में आने वाला 40-45 प्रतिशत पानी केवल धान के लिए ही इस्तेमाल कर लिया जाता है। यह संभवत: उस गलत धारणा का परिणाम है कि धान एक जलीय पौधा है जिसे पनपने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। सच्चाई यह है कि धान के पौधे अधिक जलजमाव वाले क्षेत्रों में भी बने रह सकते हैं, लेकिन धान के खेतों को हर वक्त पानी से भरे रखने की जरूरत नहीं होती है।
धान के खेतों के निरंतर जलमग्न होने का मुख्य लाभ यह है कि यह खरपतवारों को बढऩे नहीं देता है। लेकिन इसके कई गंभीर नुकसान भी हैं। इसके चलते पौधों के पोषक तत्त्व पानी में घुलकर बह जाते हैं और पर्यावरण के लिए हानिकारक गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है, विशेष रूप से मीथेन का उत्सर्जन बढ़ता है जिससे कीटों और बीमारियों का प्रसार होता है। धान के खेतों से लगभग 10 प्रतिशत मीथेन उत्सर्जन होता है।
धान-गेहूं उगाने वाले क्षेत्रों विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ ही कई अन्य राज्यों में भारी मात्रा में खेतों में पानी खर्च किया जाता है जहां पानी के पंप चलाने के लिए बिजली और डीजल मुफ्त दिए जाते हैं या फिर उन पर अधिक सब्सिडी होती है। इन सभी क्षेत्रों में पानी का स्तर तेजी से गिर रहा है और इनमें से कई इलाकों में पानी का स्तर इतनी गहराई तक पहुंच रहा है कि अब पानी निकालना भी मुश्किल हो रहा है। पंजाब के अध्ययनों से पता चलता है कि पानी का स्तर औसतन हर साल लगभग एक मीटर घट रहा है। राज्य पहले ही पानी के अत्यधिक दोहन के कारण अपने उप-सतह वाले पानी का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा खो चुका है। ऐसी स्थिति को जारी रखने नहीं दिया जा सकता।
इस मसले को हल करने के लिए मुख्य रूप से दो तरीके हैं। पहला यह कि धान की जगह कोई अन्य समान रूप से आकर्षक, लेकिन कम पानी की खपत वाली फसल ले ले। लेकिन ऐसा करना तब तक मुश्किल है जब तक कि पूर्व निर्धारित कीमतों पर खुले रूप से चावल की खरीद की नीति जारी रहती है। निकट भविष्य में इस प्रक्रिया के बदलने की संभावना नहीं है। दूसरा और अधिक व्यावहारिक विकल्प यह है कि पानी के किफायती और कुशल उपयोग को बढ़ावा दिया जाए जिसके लिए प्रौद्योगिकी अब उपलब्ध है। धान की रोपाई के बजाय इसके बीजों की सीधी बुआई ही सबसे सुविधाजनक और आजमाया तरीका है।
सीधे बुआई करने से फसल सामान्य होगी और इसमें पानी की खपत भी कम होगी। इससे मेहनत में कमी आएगी और छोटे पौधे की रोपाई, मिट्टी की सतह को नम रखने और छोटे पौधे लगाने जैसी अधिक लागत वाली प्रक्रिया कम हो जाएगी। इस व्यवस्था के तहत सूखे या पूर्व अंकुरित बीजों को सीधे खेतों में बीज-ड्रिल मशीनों की मदद से बोया जाता है।
बेहतरीन नतीजों के लिए भूमि का पूरी तरह से समतल होना जरूरी है और इसके लिए लेजर लैंड लेवलिंग उपकरणों की मदद ली जा सकती है। खर-पतवारों के खतरे से बुआई से पहले या बीज रोपने के बाद आवश्यकतानुसार जड़ी-बूटियों का छिड़काव करके निपटा जाता है। कृषि वैज्ञानिकों ने इस तकनीक की सराहना मध्यम से भारी मिट्टी के लिए की थी। लेकिन बाद में उन्होंने पाया कि इसका इस्तेमाल, अपेक्षाकृत हल्की बनावट वाली रेतीली दोमट और दोमट मिट्टी पर भी किया जा सकता है।
इसका मतलब यह है कि इसे देश के एक बड़े हिस्से में किसानों द्वारा लाभप्रद तरीके से अपनाया जा सकता है। वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों को इसका विशेष फायदा मिल सकता है। यह व्यवस्था अब कई राज्यों में असिंचित भूमि में लोकप्रिय हो रही है। कोविड-19 महामारी के दौरान इसे एक बड़ा बढ़ावा मिला जब श्रमिकों के पलायन की वजह से किसानों ने धान उगाने के उन तरीकों की तलाश करनी शुरू कर दी जिसमें श्रम कम लगता है।
इनमें से कई ने स्थिति के सामान्य होने के बाद भी इस तरीके पर ही निर्भर रहना पसंद किया। पंजाब में धान की फसल का अधिकांश हिस्सा भूजल से सिंचित होता है और धान की सीधी बुआई को बढ़ावा देने के प्रयासों के नतीजे अब दिखने लगे हैं। पिछले साल इस तरीके से लगभग 600,000 हेक्टेयर में धान की रोपाई की गई थी। इस साल राज्य सरकार को इस तकनीक को अपनाने वालों को 1,500 रुपये प्रति एकड़ (3,750 रुपये प्रति हेक्टेयर) के नकद प्रोत्साहन की पेशकश करके इस क्षेत्र को लगभग 12 लाख हेक्टेयर तक दोगुना करने की उम्मीद है। किसानों को जून मध्य के बजाय मई के अंतिम सप्ताह से फसल की रोपाई शुरू करने की भी अनुमति दी गई है। हरियाणा सरकार ने धान की सीधी बुआई के लिए 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर के उच्च प्रोत्साहन की घोषणा करके एक कदम और आगे बढ़ाया है।
धान के बीज की प्रत्यक्ष बुआई का फायदा वास्तव में विभिन्न प्रकार के हैं। इससे पानी की खपत में 20-35 प्रतिशत और डीजल तथा बिजली की खपत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। इससे रकबे की प्रति हेक्टेयर जमीन पर 35-40 श्रम दिवस बचाने में भी मदद मिलती है। इससे मिट्टी की सेहत, उर्वरक-उपयोग दक्षता में सुधार होता है और फसल उत्पादन अधिक होता है जिससे शुद्ध लाभ बढ़ जाता है।
इससे फसल को सामान्य से सात से 10 दिन पहले पकने की गुंजाइश मिल जाती है, जिससे किसानों को धान की पराली जलाने के बजाय उनका उचित प्रबंधन करने के लिए अधिक समय मिलता है। साथ ही धान के खेतों से मीथेन उत्सर्जन कम होता है। चूंकि धान की बुआई का मौसम अब करीब आ रहा है ऐसे में इस तरह के अभियानों को बढ़ावा देने और उनको प्रोत्साहन देने का यह सही समय है और इससे उन क्षेत्रों में धान की सीधी बुआई को बढ़ावा दिया जा सकेगा जहां खेती से जुड़ी परिस्थितियां इस तकनीक की अनिवार्यता पर जोर देती हैं। इस तरह की पहल के लाभ लागत से कहीं अधिक होंगे।
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