नीति आयोग में सुधारों की आवश्यकता | |
नितिन देसाई / 05 18, 2022 | | | | |
नीति आयोग को सुमन बेरी के रूप में नया उपाध्यक्ष मिल गया है। यह अच्छी खबर है। केवल इसलिए नहीं कि वह मेरे मित्र हैं बल्कि इसलिए भी कि वह आर्थिक चुनौतियों के प्रस्तावित हल को लेकर हमेशा विश्वसनीय विश्लेषण तथा ठोस कारण चाहते हैं। वह राजनीतिक दृष्टि से भी पूर्वग्रह रहित हैं। ये सारे गुण नीति आयोग के प्रबंधन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। नीति शब्द का अर्थ हम जानते ही हैं, ऐसे में कहा जा सकता है कि यह केंद्र सरकार का नीति आयोग है। जब 2015 में इसकी स्थापना हुई थी तब अरुण जेटली ने कहा था कि योजना आयोग में ऊपर से नीचे की ओर निर्देश आते थे। उसे बदलना आवश्यक था क्योंकि भारत विविधताओं वाला देश है जिसके राज्य विकास के विभिन्न चरणों में हैं, जिनकी अपनी मजबूतियां और कमजोरियां हैं। उनका कहना था कि ऐसे में सबके लिए एक समान आर्थिक नियोजन कारगर नहीं होता जिससे भारत को वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बनाने में मुश्किल होगी।
क्या नीति आयोग ने राज्य सरकारों को साथ लेने के मामले में नीतिगत बदलाव किया है? क्या कृषि विपणन सुधार या प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी घोषणाओं के समय केंद्र ने राज्यों से मशविरा किया? क्या ये चीजें शीर्ष से सब पर नहीं थोपी गईं? साफ कहें तो नीति आयोग के गठन के लिए दिया गया तर्क मौजूदा सरकार की विकास नीतियों में तो नहीं नजर आता। नीति आयोग के विगत सात वर्ष के काम पर नजर डालें तो प्रतीत होता है कि विकास नीतियों में इसकी भूमिका कार्यक्रम निर्माण की रही है। प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी की जाएगी और नीति आयोग को इस लक्ष्य को हासिल करने का तरीका तलाशना था।
नीति आयोग की वेबसाइट और वहां दर्ज उसकी तैयार की गई रिपोर्ट और पर्चों की सूची दिखाती है कि उसका ध्यान समग्र विकास नीति के बजाय क्षेत्रवार मसलों पर है।
इसका एक संकेतक यह है कि उसने पुराने योजना आयोग के ढांचागत विभाजन को बरकरार रखा लेकिन उसकी बड़ी और प्रभावशाली पर्सपेक्टिव प्लानिंग डिवीजन और फाइनैंस डिवीजन को अपेक्षाकृत छोटी आर्थिकी और वित्तीय शाखा में समेट दिया जो निगरानी पर अधिक केंद्रित है तथा वृद्धि विकास या टिकाऊ नीतियों पर कम। वास्तव में अगर प्रधानमंत्री की 2024-25 तक 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था विकसित करने की घोषणा को छोड़ दिया जाए तो मध्यम या दीर्घावधि की नीतियों को लेकर कुछ खास नहीं सुनने को मिलता। अधिकांश नीतिगत पहल तात्कालिक क्षेत्रगत जरूरतों और राजनीतिक प्रभाव से संचालित दिखती हैं और उनमें दीर्घकालिक नजरिये का अभाव होता है। सार्वजनिक भंडारण तथा सरकारी गतिविधि तथा प्रधानमंत्री की छवि से जुड़े तमाम कदम यही दर्शाते हैं कि नीतियां ऊपर से नीचे ही बन रही हैं।
विकास नीति निर्माण की असल समस्या यह है ऐसा हो ही नहीं रहा है। नीति आयोग ने कुछ दृष्टि पत्र बनाये हैं लेकिन वे उन नीतियों से सहमत नहीं हैं जिन्हें विशेषज्ञों और राज्यों के साथ व्यापक विमर्श के बाद बनाया गया है। नीति शब्द नैशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया का संक्षिप्त रूप है। इस हिसाब से इसे कार्यक्रम तैयार करने से ऊंचा नजरिया रखना चाहिए।
विकास की एक व्यापक नीति के साथ यह भी बताया जाना चाहिए कि वृद्धि, समता और स्थायित्व के प्रमुख लक्ष्यों के सामने क्या असर और चुनौतियां हैं। इसके पश्चात सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भूमिकाओं में बदलाव को चिह्नित किया जाना चाहिए। वैश्विक आर्थिक गठजोड़ों तथा नीतिगत बदलावों पर ध्यान देकर ही अवसरों का अधिकतम लाभ लिया जा सकता है तथा जोखिम का प्रबंधन किया जा सकता है। बड़ी नीति के लिए समय सीमा भी लंबी होनी चाहिए लेकिन इससे निकली अधिक विशिष्ट नीतियों में अल्पावधि और मध्यम अवधि की चुनौतियों को ध्यान में रखना चाहिए। वृद्धि के समक्ष सर्वाधिक तात्कालिक चुनौती है यूक्रेन युद्ध तथा उसकी वजह से लगे प्रतिबंधों के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में मची उथलपुथल। इसके अलावा चीन में कोविड प्रतिबंध तथा बढ़ती महंगाई भी कारक हैं।
निकट भविष्य से परे देखें तो हमें ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेज विकास वाली नीति चाहिए जहां प्रतिस्पर्धी लाभ को मशीन लर्निंग, कृत्रिम मेधा, जैव प्रौद्योगिकी, कार्बनीकरण से मुक्ति आदि के जरिये आकार दिया जाएगा। इनमें से कुछ केवल चुनौती नहीं हैं बल्कि भारत के लिए अवसर भी हैं। वह अच्छी नीति के साथ इनमें नेतृत्व करने वाला बना सकता है। ऐसा करने वाली नीति को आधार बनाकर बुनियादी ढांचा, तकनीकी विकास, शिक्षा की गुणवत्ता और कौशल विकास आदि को गति प्रदान की जा सकती है।
वृद्धि में समता ज्यादा चुनौतीपूर्ण विषय है। अब तक इसके लिए गरीब परिवारों और व्यक्तियों को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, सार्वजनिक रोजगार, अनिवार्य वस्तु एवं स्वास्थ्य बीमा आदि उपाय अपनाये गये हैं। सकल घरेलू उत्पाद में इनकी हिस्सेदारी करीब तीन फीसदी है और आबादी के तीन चौैथाई हिस्से तक इनकी पहुंच है। यह एक सुरक्षा ढांचा है जो रोजगार और कौशल विकास संबंधी नीति तैयार और क्रियान्वित करने में नाकामी को ढकती है। अगर उक्त नीति बनती तो वंचितों को पर्याप्त आय अर्जित करने तथा बाजार के माहौल में अपना जीवन स्तर सुधारने में मदद मिलती। यह बुनियादी गुणवत्ता रणनीति है जिसकी मदद से हम शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा के लिए अधिक रणनीतिक और संगठित समर्थन जुटा सकते हैं। समता को लेकर एक और पहलू है उत्तरी और पूर्वी तथा दक्षिणी, पश्चिमी एवं पश्चिमोत्तर राज्यों के बीच विकास की गति में आई असमानता को दूर करना।
तीसरा उच्चस्तरीय लक्ष्य है स्थायित्व। इसका एक घटक है जलवायु परिवर्तन जिस पर कुछ ध्यान दिया गया है और दीर्घकालिक लक्ष्य भी घोषित किए गए हैं। इन्हें नीतिगत प्रभाव में बदलने के लिए सभी मंत्रालयों और राज्यों को काम करना होगा और इसलिए यह नीति आयोग का दायित्व होना चाहिए। परंतु लक्ष्य के स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए तथा बढ़ती जलवायु तथा मौसमी अनिश्चितता से निपटने में कामयाबी हासिल की जा सके। यह बात कृषि, शहरी विकास तथा बुनियादी ढांचा विकास के लिए खासतौर पर सही है। टिकाऊपन की व्यापक नीति को जलवायु परिवर्तन के अलावा पर्यावरण संरक्षण की व्यापक चुनौती पर भी ध्यान देना चाहिए जो उत्पादन और खपत के बदलते माहौल में सामने आ रही है।
नीति आयोग के नये उपाध्यक्ष सुमन बेरी को जरूरी प्रतिभाओं को साथ लेकर एक व्यापक मशविरा प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। खासतौर पर राज्यों के साथ चर्चा करके एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति बनानी चाहिए जो दीर्घकालिक वृद्धि रणनीति पर आधारित हो। विशिष्ट कार्यक्रम इस नीति के क्रियान्वयन पर आधारित होने चाहिए। नीति आयोग को विकास क्रियान्वयन विभाग से विकास नीतियों के आला कमान में तब्दील किया जाना चाहिए।
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