बिजली संकट की असल वजहों का विश्लेषण | अजय शाह और अक्षय जेटली / May 17, 2022 | | | | |
हमें उन अधिकारियों से सहानुभूति होती है जो बिजली उत्पादन संयंत्रों के लिए अतिरिक्त कोयला जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि तपती गर्मियों में बिजली की मांग में भारी इजाफा हुआ है। अल्पावधि में हालात से निपटने का तरीका यह है कि मौजूदा व्यवस्था में ही समझदारी से प्रयास किए जाएं। परंतु इसके साथ ही हमें अपने सोच को भी विस्तार देना होगा तथा कुछ ज्यादा बुनियादी प्रश्न करने होंगे। ऐसा ही एक सवाल यह है कि इन लू के थपेड़ों के बीच आइसक्रीम की कहीं कोई कमी क्यों नहीं है?
आइसक्रीम बनाना, उसे ढोना या एक जगह भंडारित करके रखना काफी खर्चीला है। गर्मियों के दिनों में इसकी मांग खासतौर पर बढ़ जाती है। आइसक्रीम की मांग में होने वाला इजाफा बिजली की मांग में बढ़ोतरी से काफी अधिक है। परंतु आइसक्रीम को लेकर कोई आधिकारिक भागदौड़ देखने को नहीं मिल रही है। आइसक्रीम का बाजार इसलिए काम कर रहा है क्योंकि यह बाजार अर्थव्यवस्था के बीचोबीच है। आइसक्रीम के कई मुनाफा कमाने वाले कारोबारी यहां मौजूद हैं। इसमें उनके अपने हित हैं। वे समय से पहले भविष्यवाणी करते हैं कि आने वाले दिनों में कितनी मांग हो सकती है। वे कच्चे माल की आपूर्ति और उत्पादन क्षमता को निर्धारित करते हैं। वे मांग के अतिरिक्त अनुमान, कीमतों में उतार-चढ़ाव का जोखिम उठाते हैं और दांव उलटा पडऩे पर वे नुकसान भी उठाते हैं। कुछ कंपनियों के लिए गर्मियां नये उत्पाद पेश करने का अवसर होती हैं। आइसक्रीम का बाजार सर्वाधिक गर्म दिनों में भी चलता है। इस दौरान आइसक्रीम की कोई कमी नहीं होती क्योंकि इस प्रक्रिया में कोई सरकारी अधिकारी शामिल नहीं होता।
बिजली के साथ दिक्कत यह है कि उसमें बाजार का अभाव है, राज्य के पास अपनी शक्ति इस्तेमाल करने का अवसर है और नतीजतन निजी कारोबारियों के लिए गलत प्रोत्साहन मौजूद है। सरकारी नियंत्रण ने निजी कारोबारियों से अधिक आपूर्ति और कम मांग का लाभ छीन लिया है। इसका परिणाम समाजवादी अतीत के एक अजीब से शब्द के रूप में सामने आता है: कमी।
एक फैक्टरी के पास अपना गैस आधारित ताप बिजली संयंत्र है और उसके पास ग्रिड से बिजली खरीदने का विकल्प भी है। यूक्रेन के आक्रमण के बाद दुनिया भर में गैस कीमतों में इजाफा हुआ। अब फैक्टरी के लिए यही उपयुक्त है कि वह अपना निजी संयंत्र बंद करके ग्रिड से बिजली खरीदे। यहां क्या गड़बड़ी है? एक चरण में बाजार आधारित मूल्य है (गैस की वैश्विक कीमतों के निर्धारण में कोई अधिकारी शामिल नहीं है) जबकि दूसरे चरण में तयशुदा कीमत है (बिजली कमी केंद्रीय योजना व्यवस्था में बिजली की उच्च कीमतों तक नहीं पहुंचती)।
भारत सरकार ने कोयले के बाजार को कृत्रिम ढंग से दो अलग-अलग बाजार में बांटा हुआ है। यह है घरेलू कोयला और आयातित कोयला। हमारे यहां विशेष 'आयातित कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्र' मौजूद हैं जो केवल आयातित कोयले से बिजली बनाते हैं और उसे बेचते हैं। दिक्कत यह है कि उनकी बिजली की कीमत 25 वर्षों के लिए लॉक है। जब कोयला महंगा होता है तो उन्हें संयंत्र के संचालन में नुकसान होता है और वे उसे बंद करने को तरजीह देते हैं। यहां एक बार फिर समस्या तयशुदा कीमत कीमत की है। कोयला क्षेत्र बाजार नहीं है। यह एक नेहरूवादी केंद्रीय नियोजन वाली अर्थव्यवस्था है। अधिकारी हर रोज कोयला खनन और परिवहन के लिए काम करते हैं, बिजली उत्पादन कंपनियों को ऊंची कीमत चुकाने का निर्देश देते हैं, जो आयातित कोयले का इस्तेमाल करती है वगैरह। हम इन अधिकारियों की ऊर्जा और प्रयासों की सराहना करते हैं। परंतु उनका काम किसी भी सरकारी अफसरशाही के लिए अव्यवहार्य है। एक समृद्ध अर्थव्यवस्था को संगठित करने का इकलौता तरीका मूल्य व्यवस्था के तहत ही है। जहां मुनाफा केंद्रित फर्म यह पता लगाती हैं कि कैसे कोयले का उत्खनन, भंडारण, आयात और परिवहन किया जाए।
जब भी कमी होती है तो कीमतें ऊपर जाती हैं। यह बुनियादी आर्थिक समायोजन है। ऊंची कीमतों को अधिक आपूर्ति प्रतिक्रिया मिलती है। बढ़ी हुई कीमतें मुनाफे का अवसर लेकर आती हैं जिससे तकनीकी बदलाव को गति मिलती है।
केंद्रीय नियोजन वाली व्यवस्था में इन स्वसुधार उपायों का अभाव होता है। यह दुनिया अनुशासित निजी लोगों की दुनिया है जो अधिकारियों के निर्देश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। ऐसे में निजी बिजली संयंत्रों को बाजार के संकेतों की स्वतंत्रता देने का अवसर देने के बजाय एक बार जब हम कोयला भंडारण में चले जाते हैं तो सरकारी आयातित कोयला आधारित संयंत्रों को चालू करने का निर्देश देती दिखती है।
हम यह स्वीकार करते हैं कि अधिकारी कोयला, बिजली और परिवहन जैसी व्यवस्थओं को चलाने का प्रयास करते हैं जहां बुनियादी निर्णय केंद्रीय नियोजन से लिए जाते हैं और कुछ निजी कारोबारी भी हाशिये पर मौजूद रहते हैं। इस आलेख में हमारी कोशिश उनकी आलोचना की नहीं है। कोई भी केंद्रीय नियोजक यह पता नहीं लगा सकता कि क्या किया जाना है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में उत्पादन की समस्या को हल करने के लिए लाखों मस्तिष्क की आवश्यकता होती है जो मूल्य व्यवस्था से संचालित होते हैं।
मौजूदा संकट नीतिगत सुधारों का आह्वान करता है जो उत्पादन, खपत, तकनीकी डिजाइन और मूल्य निर्धारण में सरकारी सहभागिता को समाप्त कर देंगे। अल्पावधि में हम केंद्रीय नियोजन व्यवस्था में हैं और इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। परंतु हमें रणनीतिक प्रश्नों से परे गहरायी से नजर डालनी चाहिए और समस्या की जड़ का विश्लेषण करना चाहिए। आज रणनीतिक विचार की आवश्यकता है ताकि 2023 या 2024 में चलने वाली गर्म हवाओं से निपटने के लिए बेहतर बुनियाद रखी जा सके।
निजी क्षेत्र के पास असीमित ऊर्जा है और वे देश के बिजली क्षेत्र को भी वैसे ही संचालित कर सकते हैं जैसे देश के आइसक्रीम क्षेत्र को चलाते हैं। इसके विपरीत अगर आइसक्रीम क्षेत्र पर भी सरकारी अधिकारियों का नियंत्रण होता तो वहां हमेशा कमी बनी रहती। राज्य की भूमिका केवल उन्हीं परिस्थितियों तक सीमित है जिन्हें बाजार की विफलता कहा जाता है। सरकारी बिजली व्यवस्था को भी इसी अनुसार बदलाव करने की आवश्यकता है।
यह भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट क्षण है। भारतीय विद्युत क्षेत्र वैश्विक तापवृद्धि, लू के थपेड़ों, कार्बन उत्सर्जन आदि के कारण बहुत दबाव में है। वित्तीय रूप से अव्यवहार्य हो चुकी वितरण कंपनियों के कारण हालात और बिगड़ चुके हैं। इसके अतिरिक्त भारत में वैचारिक बदलाव भी आ चुके हैं। एयर इंडिया का निजीकरण किया जा चुका है, सरकारी बैंकों का निजीकरण चल रहा है। अब पहली बार बिजली क्षेत्र में वास्तविक सुधारों का भी वक्त आ गया है।
|