अभिव्यक्ति की आजादी रोकने के लिए सरकार के पास कई विकल्प | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / May 17, 2022 | | | | |
सरकार ने राजद्रोह कानून की समीक्षा करने का अप्रत्याशित निर्णय लिया है जिसके बाद उत्तेजक सार्वजनिक बहस की शुरुआत हो गई। कुछ ही दिन पहले सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून का बचाव करते हुए कहा था कि कानून का दुरुपयोग इसे खारिज करने का आधार नहीं है। अब इस बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं कि मोदी सरकार इस कानून को शिथिल करेगी या वह इसे समाप्त करेगी। यदि इसे रद्द किया जाता है तो यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल में एक क्रांतिकारी घटना होगी। अभी यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि भारत अभिव्यक्ति की आजादी के स्वर्णयुग में प्रवेश करने जा रहा है। उस स्थिति तक पहुंचने के लिए राजनीतिक माहौल और कानून प्रवर्तन तथा विधिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर निर्भर रहना होगा। केंद्र अथवा राज्यों में असंवेदनशील सरकारें या उनके संरक्षक ऐसे तमाम कानून ला सकते हैं जो असहमति से निपटने के मामले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए की तरह ही पुरातन और क्रूर रुख वाले हो सकते हैं। हजारों कश्मीरियों को अनुच्छेद 370 समाप्त किए जाने के बाद बिना बंदी प्रत्यक्षीकरण के लाभ के भारत सरकार ने बंद कर रखा है।
अकेले आईपीसी में ही अनेक विकल्प मौजूद हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने का काम कर सकते हैं। इसका एक उदाहरण है हास्य कलाकार मुनव्वर फारुकी का करियर जिसे वे चुटकुले कहने के लिए जेल भेजा गया जो उसने कभी कहे ही नहीं। उसे एक स्थानीय भगवा कार्यकर्ता की शिकायत के बाद पकड़ा गया था। शिकायत में कहा गया था कि वह 'धार्मिक भावनाएं भड़काता' है। यह एक घिसापिटा जुमला है जो एक खास विचारधारा के मध्यवर्गीय भारतीयों द्वारा दोहराया जाता है।
फारुकी पर धारा 129 ए, धारा 188, धारा 34 और धारा 269 के तहत आरोप लगाए गए जो क्रमश: धार्मिक भावनाएं भड़काने, सरकारी अधिकारी के आदेश की अवहेलना करने, साझा इरादे से आपराधिक कृत्य तथा जानबूझकर संक्रमण या बीमारी फैलाने से संबंधित हैं। यानी वह धार्मिक भावनाएं भड़का रहे थे और कोविड नियमों का पालन नहीं कर रहे थे। ध्यान रहे यहां राजद्रोह कानून का कोई जिक्र नहीं है। उपरोक्त में से कोई आरोप सही नहीं था। पुलिस ने आरोप लगाने वाले पर यकीन करके कार्रवाई की कि फारुकी का इरादा दुख पहुंचाने वाले धार्मिक चुटकुले सुनाने का था और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय इस बात से सहमत नजर आया। उन्हें जमानत देने से इनकार किया गया। फारुकी को जमानत के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा लेकिन पिछले साल दो महीने में उनके 12 शो रद्द कराये जाने के बाद उन्होंने अपना करियर ही समाप्त करने की घोषणा कर दी।
एक अन्य कानूनी हथियार है गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए)। विनायक सेन से लेकर उमर खालिद, स्टैन स्वामी से लेकर भीमा-कोरेगांव मामले के तमाम कार्यकर्ताओं और विद्वानों पर अलग-अलग सरकार के दौर में यह कानून लगातार लगाया गया ताकि सत्ता की आलोचना को दबाया जा सके। मूलरूप से यह एक आतंकवाद विरोधी कानून था लेकिन यह 2008 में संशोधन के बाद यह सरकार द्वारा दमन का हथियार बन गया। उस संशोधन के जरिये आरोपित को तब तक दोषी माना गया जब तक कि वह निर्दोष साबित न हो। यह बात संवैधानिक गारंटी का हनन थी।
आपातकाल के दौर का राष्ट्रीय सुरक्षा कानून भी है जो केंद्र या राज्यों को इजाजत देता है कि अगर लगता है कि कोई व्यक्ति देश की सुरक्षा के लिए खतरा है तो उसे 12 महीने तक बिना किसी आरोप के कैद किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत आरोपित व्यक्ति उच्च न्यायालय सलाहकार बोर्ड के समक्ष अपील कर सकता है लेकिन वह वकील नहीं कर सकता। यह ऐसा कानून है जिसका इस्तेमाल पूर्वोत्तर के क्षेत्र में अक्सर होता है। अभी हाल में सोशल मीडिया पर चुटीली पोस्ट लिखने पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसके तहत निशाने पर लिया गया। लेकिन पिछले महीने उत्तरी दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में सांप्रदायिक तनाव फैलाने के पांच आरोपियों पर भी रासुका लगाया गया।
एक ओर जहां सरकार के पास अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के लिए ढेर सारे कानून हैं तो वहीं राज्य तंत्र ऐसा है जो पर्याप्त अक्षम और अनभिज्ञ है। यही कारण है कि सन 1962 में धारा 124ए को जारी रखने के लिए हिंसा भड़काने की जो शर्त रखी गई थी उसकी प्रशासन दर प्रशासन मनमानी और संकीर्ण व्याख्या की जाती रही है। जब भी जनमत से चिढ़ पैदा होती है इसे थोप दिया जाता है। 23 वर्षीय दिशा रवि को इसलिए गिरफ्तार किया गया था कि उन्होंने किसान आंदोलन के दौरान एक प्रोटेस्ट 'टूलकिट' में तीन पंक्तियां संपादित की थीं। उसके पहले 19 वर्षीय अमूल्या नरोन्हा को 110 दिन जेल में बिताने पड़े थे क्योंकि उन्होंने 2020 में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ एक प्रदर्शन में 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाए थे। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के मुताबिक पुलिस लोगों को निरंतर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए के तहत गिरफ्तार कर रही है जबकि यह कानून मार्च 2015 में ही निरस्त किया जा चुका है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने 2015 से इसके तहत 381 मामले दर्ज किए, उत्तर प्रदेश ने 2015 के पहले इस धारा के तहत केवल 22 मामले दर्ज किए थे लेकिन उसके बाद उसने 245 लोगों पर इसके तहत मामले बनाए। इस मामले में राजस्थान और झारखंड भी पीछे नहीं हैं।
देश में न्याय मिलने की गति हमेशा से बेहद धीमी रही है। जाधवपुर विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को 2012 में ममता बनर्जी के कार्टून फॉरवर्ड करने के लिए धारा 66ए के तहत गिरफ्तार किया गया था। 10 वर्ष बीत चुके हैं और वह अब भी लड़ रहे हैं। अब उन पर आईपीसी की धारा 500 और 509 भी लगा दी गई हैं जो क्रमश: मानहानि और महिला की लज्जा भंग करने से संबंधित है।
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