आंकड़ों पर चाहे जो हो विवाद लाखों में है मृतकों की तादाद | नीति नियम | | मिहिर शर्मा / May 11, 2022 | | | | |
यह खबर सामने आए कई दिन बीत चुके हैं कि केंद्र सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस रिपोर्ट को रुकवाना चाहती है जिसमें कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान भारत में बहुत बड़ी तादाद में लोगों की जान गई। अब यह स्पष्ट है कि भारतीय अधिकारियों को दरअसल किस बात की चिंता थी। समाचारों के मुताबिक महामारी के दौरान भारत में 47 लाख ऐसी अतिरिक्त मौतें हुईं। इंडोनेशिया और रूस में 10 लाख से कुछ अधिक और अमेरिका में 10 लाख से कुछ कम लोगों की जान गई।
आबादी के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा विसंगतिपूर्ण नहीं लगता। जिन देशों के लिए आंकड़ा जुटाया गया है उनमें भारत 30 से नीचे आएगा। यह नतीजा चौंकाने वाला नहीं है। भारत के कमजोर स्वास्थ्य ढांचे को देखें तो मौत के आंकड़े बड़े होने ही थे। कोविड के कारण 65 से अधिक उम्र की आबादी अधिक खतरे में है। ऐसे में भारत में मौत के आंकड़े अधिक होने की एक वजह यह कही जा सकती है कि खतरनाक डेल्टा स्वरूप का वायरस सबसे पहले भारत में सामने आया और यह उस समय सामने आया जब कोविड से जुड़े प्रतिबंध प्राय: शिथिल थे। ऐसे में विभिन्न प्रकार के दबावों के बीच प्रति व्यक्ति आधार पर अतिरिक्त मौत के मामलों में दुनिया में 33वां स्थान मिलना कोई झटका लगने वाली बात नहीं है। यह ऐसी वजह नहीं है जिसके चलते भारत को एक बहुराष्ट्रीय एजेंसी की रिपोर्ट रुकवाने की मांग करने वाला इकलौता देश बनना पड़े।
एक प्रश्न यह है कि वास्तव में अतिरिक्त मौतों का मतलब क्या है और इस शब्द का इस्तेमाल कोविड-19 की कुल पंजीकृत मौतों की जगह क्यों किया जा रहा है। ध्यान रहे भारत में पंजीकृत मौतें इन अनुमानों से 10 गुना तक कम हैं। ज्यादातर नहीं लेकिन कई देशों में मृत्यु के पंजीयन की अधूरी अथवा अक्षम व्यवस्था है जिसके कारण काम का दबाव बढऩे पर मौत के मामलों का पंजीयन उनके लिए मुश्किल हुआ। बहरहाल अगर सभी मामलों से होने वाली मौतों के ऐतिहासिक आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो इस बारे में एक अनुमान लगाना संभव होता है कि किसी खास वर्ष में एक देश में औसतन कितनी मौतों का अनुमान लगाया जा सकता है। डब्ल्यूएचओ के शोधकर्ताओं ने महामारी वाले वर्षों में हुई वास्तविक मौतों के मामलों की तुलना मॉडल द्वारा अनुमानित मौत के उन मामलों से की जो गैर महामारी वाले वर्ष में हुईं। यानी कह सकते हैं कि अतिरिक्त मौत के मामले दरअसल वर्ष विशेष की परिस्थितियों से जुड़े हुए हैं। इस मामले में इसे महामारी या उससे जुड़े लॉकडाउन से संबद्ध करके देखा जा सकता है।
इस कवायद में कुछ भी दिक्कतदेह नहीं है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से प्रयोग में लाये गए मॉडल पर यह कहते हुए आपत्ति जताई है कि उसकी 'मजबूत' पंजीयन प्रणाली के तहत 'विश्वसनीय' आंकड़े मौजूद हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोधकर्ता उन आंकड़ों की गुणवत्ता पर प्रश्न कर सकते थे लेकिन यकीनन उन्हें केवल यह संकेत करना था कि भारत सरकार ने भले ही मासिक आधार पर मृत्यु के आंकड़े जुटाए हों लेकिन उसने इन आंकड़ों को विश्व स्वास्थ्य संगठन की शोध टीम के लिए मुहैया नहीं कराया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रविधि पर सवाल उठाना एकदम जायज है। इसके बावजूद यह तथ्य तो शेष ही है कि भारत में महामारी से हुई मौत के आंकड़ों की समस्या हल करने के लिए विभिन्न टीमों ने अलग-अलग मॉडल का इस्तेमाल किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान इन अनुमानों में सबसे कम नहीं है, न ही यह सबसे अधिक है। शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों ने उपभोक्ता पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे के आधार पर अतिरिक्त मौतों का आंकड़ा 63 लाख बताया और कहा कि 43 लाख मौतें डेल्टा लहर के दौरान हुईं। अर्थशास्त्रियों ने यह भी पाया कि किसी जिले में अतिरिक्त मौतों का उनका आंकड़ा उस जिले में उस समय पंजीकृत हुई मौतों के आंकड़े से संबद्ध तो था लेकिन यह आंकड़ा बहुत बड़ा था। यह भी पाया गया कि उन परिवारों में अतिरिक्त मौत के मामले अधिक हुए जहां परिवार की आय अधिक थी।
निश्चित तौर पर यह बात ध्यान देने वाली है कि इन अलग-अलग टीमों ने अपनी-अपनी प्रविधि से जो नतीजे हासिल किए वे आधिकारिक रूप से दर्ज मौत के आंकड़ों से काफी अधिक थे। इसमें कोई चकित करने वाली बात नहीं है क्योंकि भारत के मृत्यु पंजीयन की प्रणाली में कमी है और उसे महामारी के पहले भी लगातार महसूस किया जा रहा था। प्रश्न यह है कि सरकार महामारी के भारतीयों पर पड़े प्रभाव के निष्पक्ष आकलन से अपनी आंखें क्यों मूंद रही है? देशव्यापी लॉकडाउन हटने की शुरुआत हुए दो वर्ष से अधिक वक्त बीत चुका है। खतरनाक डेल्टा स्वरूप वाली दूसरी लहर को भी एक वर्ष से ज्यादा समय निकल चुका है और उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे आए भी अब कई महीने हो चुके हैं। अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों को महामारी के दौरान किसी तरह के कुप्रबंधन की कोई कीमत चुकानी होगी। ऐसे में सही मायनों में कोई राजनीतिक पूंजी दांव पर नहीं लगी हुई है। सरकार इन आंकड़ों से बिना कोई बड़ा विवाद खड़ा किए भी आसानी से निपट सकती है। इससे भारतीय राज्य की ढांचागत कमियां सामने आ सकती हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए, न कि उनकी अनदेखी की जानी चाहिए। सरकार पर ऐसा कोई दायित्व नहीं है कि वह ऐसे किसी भी आंकड़े को माने या न माने लेकिन खारिज करने की भावना मृतकों की अवमानना करने के समान है जिनकी तादाद किसी भी हालत में लाखों में है।
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