विवेकपूर्ण निर्णय | संपादकीय / May 11, 2022 | | | | |
सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत राजद्रोह कानून का बचाव करने के प्रयास के बाद सरकार ने इसकी 'पुनरीक्षा और पुनर्विचार' का निर्णय लिया है और यह बात देश में मानवाधिकारों तथा नागरिक अधिकारों के लिए काफी आशा जगाने वाली है। यह कवायद इस कानून को लेकर बढ़ती सार्वजनिक असहजता का परिणाम है और संभव है कि सर्वोच्च न्यायालय इसे निरस्त कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने इस दिशा में पहल करते हुए आदेश दिया है कि राजद्रोह के सभी लंबित मामलों को स्थगित रखा जाए तथा पुलिस और प्रशासन को सलाह दी है कि केंद्र की समीक्षा पूरी होने तक इस धारा का इस्तेमाल न किया जाए। केंद्र ने सुझाव दिया था कि भविष्य में इस धारा के तहत मामले तभी दर्ज किए जाएं जब कि पुलिस निरीक्षक या उससे ऊंचे दर्जे का कोई अधिकारी जांच कर ले।
यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि सरकार कानून को समाप्त करेगी या इस कानून को लगाने की शर्तों को और कड़ा करेगी। इस समाचार पत्र ने दलील दी थी कि एक आधुनिक लोकतंत्र में ऐसे कानून की कोई जगह नहीं है। सन 1962 के ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 124ए की वैधता बरकरार रखी थी लेकिन इसके दायरे को दो आधारों तक सीमित कर दिया था: क्या उक्त कार्य में हिंसात्मक प्रयासों के जरिये सरकार को गिराने का प्रयास किया गया या फिर कानून व्यवस्था को लेकर समस्या उत्पन्न की गई। हालांकि ये व्याख्याएं अपने आप में निरपवाद हैं लेकिन पुलिस और न्यायालयों ने अक्सर इनका इस्तेमाल बहुत संकीर्ण ढंग से किया है जिससे सामाजिक कार्यकर्ता और ऐसा लगभग हर व्यक्ति इसकी जद में आ गया जिसने अपने विचारों से केंद्र या राज्य सरकारों को परेशान किया। यह उल्लेखनीय है कि इस समय राजद्रोह के 800 मामलों की सुनवायी चल रही है और इसके कारण 13,000 लोग जेल में हैं।
हालांकि केंद्र सरकार ने राजद्रोह कानून की समीक्षा की कोई समयसीमा नहीं बतायी है लेकिन यह उचित अवसर है कि वह ऐसे अन्य कानूनों पर पुनर्विचार करे जो मानवाधिकारों के विपरीत हैं। इनमें से प्रमुख है गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम अथवा यूएपीए। इस कानून के तहत आरोपित को तब तक दोषी माना जाता है जब तक कि वह निर्दोष न साबित हो। यह बात बुनियादी संवैधानिक गारंटी के उलट है। राजद्रोह के कानून की तरह ही यूएपीए की कठोर प्रकृति तथा राज्य की इन्हें बार-बार इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति ने विश्व स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा को काफी क्षति पहुंचायी है और यह मुक्त समाजों को लेकर उस संयुक्त वक्तव्य की भावना के भी प्रतिकूल है जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत वर्ष जून में जी 7 की आभासी बैठक में हस्ताक्षर किए थे।
राष्ट्रीय सुरक्षा कानून भी बहुत कड़ा है और वह किसी भी व्यक्ति को बिना किसी आरोप के एक साल तक कैद में रखने की इजाजत देता है। उस पर भी पुनर्विचार होना चाहिए।
इन विषयों पर सकारात्मक ढंग से आगे बढ़कर ही देश के मानवाधिकार रिकॉर्ड को मजबूत किया जा सकेगा। हाल के दिनों में पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों ने इसकी काफी आलोचना की है। ये ऐसे देश हैं जो व्यापार और रक्षा के क्षेत्र में भारत के लिए काफी जरूरी हैं। इस दिशा में एक अहम कदम तब लिया गया जब सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को देश के पूर्वोत्तर हिस्सों में आंशिक रूप से हटाया गया। इस क्षेत्र तथा जम्मू कश्मीर में इस अधिनियम को लंबे समय से सेना द्वारा मानवाधिकार हनन के औजार के रूप में देखा जा रहा था और इसने भारतीय राज्य और सशस्त्र बलों को इन क्षेत्रों के लोगों से अलग-थलग करने में अहम भूमिका निभायी। इस कानून की समीक्षा भी काफी समय से लंबित है।
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