वर्ष 2009 से 2014 और 2019 में संपन्न लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का मत प्रतिशत करीब दोगुना हो गया। इससे भी अधिक विचारणीय बात यह है कि भाजपा देश की राजनीति पर पूरी तरह हावी हो गई और इसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। भाजपा का उभार तो जारी रहा है मगर देश की अर्थव्यवस्था 2017 के बाद लगातार कमजोर हो गई। बेरोजगारी दर चरम पर है और आसमान छूती महंगाई ने आम लोगों की कमर तोड़ दी है, खासकर ईंधन एवं खाद्य तेल के दामों ने बजट बिगाड़ दिया है। यह तब हो रहा है जब पूरा देश कोविड-19 महामारी की चोट से पहले ही परेशान है। मगर इन बातों से भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं दिख रहा है। ये केवल भाजपा के प्रति समर्पित या हिंदुत्व की विचारधारा से चिपके रहने वाले लोग नहीं है। ये वे लोग हैं जिन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को वोट दिया था। 2009 के बाद पार्टी ने बड़ी संख्या में करोड़ों मतदाताओं को आकर्षित किया और अब पार्टी के प्रति उनका समर्पण अडिग लग रहा है। ऐसा नहीं है कि वे अर्थव्यवस्था के समक्ष खड़ी विभिन्न चुनौतियों से वाकिफ नहीं हैं या महंगाई से परेशान नहीं है मगर आप पूछेंगे तो वे यही बताएंगे कि वे नरेंद्र मोदी एवं भाजपा को ही वोट देंगे। उनका सीधा सवाल है कि आखिर भाजपा को वोट न दें तो किसे दें। भाजपा का विकल्प कहां है? कांग्रेस या राहुल गांधी को वे अपना समर्थन कैसे दे सकते हैं? मिली-जुली सरकार के तिकड़म का खतरा कौन मोल ले? अगर विकल्पहीनता की वजह से भाजपा के कई गैर-परंपरागत मतदाता उसके साथ जुड़े हुए हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनकी सोच अब बदल रही है। एक विकल्प अब उभर रहा था। मगर यह भाजपा एवं नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं है। दरअसल कांग्रेस का एक विकल्प देश के समक्ष आ रहा है। यह एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव है। हालांकि मोदी के प्रति जबरदस्त समर्थन के दौर में भी एक बात जस की तस रही और वह यह कि कांग्रेस ने करीब 20 प्रतिशत का न्यूनतम मत प्रतिशत बरकरार रखा है। वर्ष 2014 और 2019 में पराजित होने के बावजूद इसका मत प्रतिशत किसी भी अन्य पांच गैर-भाजपा दलों के संयुक्त आंकड़े से अधिक था। इस लिहाज से भविष्य में भाजपा के खिलाफ बनने वाले किसी भी गठबंधन का यह प्रमुख हिस्सा हो सकता था। कांग्रेस के साथ जब तक इसका वोट बैंक जुड़ा था तब तक किसी भी अन्य पार्टी या गठबंधन के लिए नरेंद्र मोदी को चुनौती देना असंभव था। कांग्रेस की यह मजबूती भी काफूर हो रही है। मैं मानता हूं कि कांग्रेस के लोग मेरी बात सुनकर खफा हो जाएंगे। मगर मेरे तर्क पर वे दूसरे नजरिये से भी विचार कर सकते हैं। यह उनके लिए अगर बुरी खबर है तो भाजपा के लिए भी अच्छे संकेत नहीं हैं। कांग्रेस के लिए जो खराब है वह भाजपा के लिए भी अच्छा नहीं है। भाजपा की सोच यह रही है कि कांग्रेस अगर किसी राज्य में बुरी तरह पराजित होती है तो दोबारा वापसी करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। मैंने अपने पहले आलेखों में चर्चा की है कि भाजपा के बाद मत प्रतिशत बटोरनी वाली दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस किसी राज्य में पूरी मजबूत नहीं है। 2014 से यह सिलसिला शुरू हुआ जब पार्टी उन राज्यों में कमजोर होती चली गई जहां इसका दबदबा हुआ करता था। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पार्टी सबसे अधिक कमजोर हुई। इन दोनों राज्यों में भाजपा क्षेत्रीय दलों को टक्कर देते हुए दिख रही है। पंजाब में हाल तक कांग्रेस का दबदबा था मगर विधानसभा में उसे मुंह की खानी पड़ी। मगर वह अपनी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी अकाली दल से नहीं हारी बल्कि आम आदमी पार्टी (आप) ने उसे शिकस्त दी। एक्जिट पोल के आंकड़े बताते हैं कि आधे हिंदू एवं दलित सिख मतदाता आप के साथ चले गए। ये कांग्रेस के परंपरागत मतदाता हुआ करते थे। भाजपा को भले ही दो सीटें मिली हों मगर राष्ट्रीय स्तर पर उसे चुनौती देने वाली कांग्रेस राज्य में तबाह हो गई। कांग्रेस के बजाय अरविंद केजरीवाल और आप के रूप में भाजपा को एक नई चुनौती मिल रही है। आप भाजपा के लिए कांग्रेस से कैसे अलग चुनौती हो सकती है इसका अंदाजा तजिंदर बग्गा तमाशा से लगाया जा सकता है। कांग्रेस सरकार तो शायद ऐसा नहीं करती। अब एक दूसरे राज्य पर नजर डालते हैं। हाल में संपन्न गोवा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत 2017 की तुलना में करीब पांच प्रतिशत अंक कम हो गया। यह तब हुआ जब राज्य में भाजपा सरकार के प्रति लोगों में गुस्सा था। राज्य में सात प्रतिशत मतदाताओं ने आप के लिए मतदान किया जबकि पांच प्रतिशत ने तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिया। ये सभी भाजपा विरोधी मतदाता थो मगर वे कांग्रेस के साथ भी नहीं जाना चाहते थे। इन दोनों दलों के मत प्रतिशत को कांग्रेस के 23.46 प्रतिशत में जोड़ तो दें तो भाजपा का सफाया हो जाएगा। गुवाहाटी निकाय चुनावों में भी कुछ ऐसा ही दिखा। कांग्रेस को अब भी लगता है कि असम में उसका वजूद बाकी है और अगली बार भाजपा को वह परास्त कर देगी। मगर सच्चाई अलग नजर आ रही है। गुवाहाटी में आप ने कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी। भाजपा ने निकाय चुनाव 60 प्रतिशत मत प्रतिशत के साथ जीत लिया जबकि कांग्रेस 13.72 प्रतिशत के साथ काफी पीछे रही। मगर आप 10.69 प्रतिशत मत प्रतिशत के साथ कांग्रेस के करीब पहुंचती दिखाई दी। आप ने एक सीट भी जीत ली जबकि कांग्रेस के हाथ कुछ नही लगा। यह भी एक संकेत था कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का विकल्प सामने आ रहा है। यह पूरी कहानी आप की सफलता से अधिक कांग्रेस की विफलता है जो अपने परंपरागत एवं समर्पित मतदाताओं को भी अपने साथ बनाए रखने में अक्षम साबित हुई है। कांग्रेस की पकड़ कितनी बची है यह तमिलनाडु के स्थानीय निकायों के चुनाव से भी स्पष्ट हो गई है। इन चुनावों में कांग्रेस ने द्रमुक के साथ साझेदारी में चुनाव लड़ा था और उसने 3.31 प्रतिशत मत प्रतिशत हासिल किया। मगर भाजपा ने अपने दम पर 5 प्रतिशत से अधिक मत प्रतिशत हासिल किया जिससे कांग्रेस को जरूर मुश्किल हुई होगी। तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टी का एक परंपरागत वोट रहा है और कांग्रेस ने उसे बरकरार भी रखा है मगर 1962 के बाद से पिछले 60 वर्षों में यह राज्य में कभी चुनाव नहीं जीत पाई। अगर भाजपा यहां फायदा उठाने में सफल रही तो यह कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका होगा। अगर देश के राजनीतिक मानचित्र पर नजर डालें तो कांग्रेस की केवल राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा, असम, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में पकड़ कायम है। यहां यह बात मायने नहीं रखती कि पार्टी इन राज्यों में सत्ता में है या नहीं। इस वर्ष के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव होंगे जिन पर सभी की नजरें होंगी क्योंकि इनमें आप भी चुनौती पेश कर रही होगी। सूरत नगर निगम चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा है और गांधीनगर में भी यह मत प्रतिशत के मामले में कांग्रेस से कुछ ही पीछे रही है। गांधीनगर में आप को 21 प्रतिशत और कांग्रेस को 27.9 प्रतिशत मत मिले थे। महाराष्ट्र में राकांपा कांग्रेस पर भारी पड़ रही है। हरियाणा में पार्टी इकाई में अव्यवस्था का माहौल है जबकि राजस्थान में अंतर्विरोध चल रहा है। गुजरात के बारे में फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता मगर वहां भी हालत ठीक नहीं है। अब भाजपा के सामने बड़ा प्रश्न यह है कि उसे कांग्रेस के लगातार पतन से खुश होना चाहिए या नए प्रतिस्पद्र्धियों के उभरने से चिंतित होना चाहिए। मुझे लगता है कि भाजपा नए राजनीतिक विकल्पों के उभार से अधिक चिंतित होगी। आखिर भाजपा तो यही चाहेगी कि नए विकल्प जरूर आएं मगर वे उसके लिए चुनौती न बनें और केवल कांग्रेस का सफाया करें।
