क्षमता में सुधार जरूरी | संपादकीय / May 08, 2022 | | | | |
विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े शोधकर्ताओं ने कोविड-19 महामारी से हुई मौत को लेकर जो अनुमान प्रस्तुत किए हैं उन्हें लेकर भारत में कई प्रश्न उत्पन्न हुए हैं। हालांकि इस कवायद का उद्देश्य यह था कि दुनिया भर में इस महामारी से हुई मौतों का एक आंकड़ा तैयार किया जाए लेकिन भारत सरकार ने भारत में महामारी के वर्षों में हुई अतिरिक्त मौतों के आंकड़ों पर आपत्ति जताई है और उसने कहा है कि इन अनुमानों को अभी जारी न किया जाए।
ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने द्वितीयक आंकड़ों का इस्तेमाल करके जो अनुमान जताया है उसके चलते महामारी के दौरान होने वाली अतिरिक्त मौतों का आंकड़ा 47 लाख से पार हो रहा है। मृत्यु का यह आंकड़ा बहुत बड़ा है और यह अतिरिक्त मौत के अन्य अनुमानों से काफी अधिक है। ऐसे सवाल उचित ही पूछे जा रहे हैं और पूछे ही जाने चाहिए कि इन आंकड़ों तक पहुंचने के लिए किस प्रविधि का इस्तेमाल किया गया। यह कहना भी उचित है कि इन आंकड़ों को इस विषय पर अंतिम आंकड़ा मानना ठीक नहीं।
इसके बावजूद इन अनुमानों ने कुछ गहरे सवाल पैदा किए हैं जिनका जवाब अनुत्तरित है। इसमें दो राय नहीं कि भारत मेंं कोविड से हुई मौत के आधिकारिक आंकड़े हकीकत से काफी कम हैं। ये आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान से 10 गुना कम हैं। ऐसे में यह दलील दी जा सकती है कि भारत सरकार न केवल संक्रमण के मामलों बल्कि मौत के आंकड़ों की भी सही गिनती करने में नाकाम रहा। यह बात महामारी के पहले से चलन में रहे मौत के पंजीयन मेंं आये अंतराल के भी अनुरूप है। संक्रमण की विभिन्न लहरों के दौरान जब व्यवस्था पर भारी दबाव था तब यह अंतराल और बिगड़ गया था। भारत की क्षमताएं हमेशा से सीमित थीं। चूंकि सामान्य दिनों में भारतीय राज्य बुनियादी कामों में संघर्ष करता है इसलिए इस बात में कतई आश्चर्य नहीं है कि असाधारण महामारी के दौर में वह बड़ी गलतियां करेगा। भारत में महामारी से मौत के वास्तविक आंकड़ों पर शायद कभी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सके या शायद आधिकारिक रूप से ऐसा न हो सके। परंतु इस संदेह की वजह से इस बात की जांच परख बंद नहीं होनी चाहिए कि तंत्र का प्रदर्शन कैसा रहा और उसमें कैसे सुधार किया जा सकता है। वास्तविक आंकड़ा चाहे जो भी हो उससे यह तथ्य नहीं बदल जाता कि मृतकों की गिनती करने या जान बचाने के मामले में भारतीय राज्य की क्षमता एक बार फिर कमतर साबित हुई है।
यह आवश्यक नहीं है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों तथा ऐसे अन्य अनुमानों के छिद्रान्वेषण में वक्त लगाया जाए। आने वाले समय में ऐसे तमाम अन्य अनुमान सामने आएंगे। इसके बजाय महामारी से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली तथ नागरिक पंजीयन व्यवस्था के लिए उपजे सबक पर काम करने की आवश्यकता है। पंजीयन प्रणाली तो अतीत में अटकी हुई है और वहां तकनीकी हस्तक्षेप के लिए बहुत कम गुंजाइश है। आधुनिक डिजिटल मदद से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सरकार की सूचनाएं अधिक अद्यतन हों और उन्हें व्यापक पैमाने पर साझा किया जा सके। सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश एक दीर्घकालिक काम है लेकिन इसे और अधिक टाला नहीं जा सकता है। सार्वजनिक फंडिंग वाले स्वास्थ्य बीमा की अपर्याप्तता के बीच निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता लंबे समय तक काम नहीं आएगी। अब भारत की प्रति व्यक्ति आय उस स्तर पर है जहां थाईलैंड जैसे देश कुछ दशक पहले ही सार्वभौमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली विकसित कर चुके हैं। भारत में ऐसे सुधार करने का वक्त आ चुका है।
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