प्रतिरोधक तैयार करना और उनका इस्तेमाल | नीलकंठ मिश्रा / May 06, 2022 | | | | |
वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथलपुथल है। पहले कोविड और उसके बाद युद्ध ने वैश्विक क्षमता को प्रभावित किया, इससे कीमतें बढ़ीं क्योंकि खरीदार सीमित संसाधनों के लिए जूझने लगे। आपूर्ति शृंखला के गतिरोध से निपटना एक प्रक्रियागत चुनौती थी और आशा है कि चीन में मौजूदा उथलपुथल लंबी नहीं चलेगी। दुनिया भर में ईंधन उपलब्धता में जो कमी आई है उसकी जल्दी भरपाई संभव नहीं। किफायती ईंधन की कमी वैश्विक आर्थिक उत्पादन को प्रभावित करेगी। सरकारें अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था का बचाव करने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रही हैं। वे ऊर्जा कीमतों के प्रभाव से बचाव के लिए राजकोषीय उपाय अपना रही हैं। इसका असर वैश्विक उपलब्ध ऊर्जा पर पड़ेगा, इससे भविष्य से वृद्धि नहीं हासिल होगी, जैसा कि आमतौर पर राजकोषीय हस्तक्षेपों से होता है। व्यापार के कारण होने वाले पूंजी प्रवाह (ईंधन खरीदने वाले ईंधन विक्रेताओं को जो राशि चुकाते हैं वह वैश्विक जीडीपी में इजाफा करती है) और पूंजी प्रवाह (वैश्विक निवेशकों में जोखिम से बचाव में इजाफा) भी मुद्रा बाजारों को अस्थिर बना रहे हैं।
इसी प्रकार बुरे दिनों के लिए बचत करने वाले परिवारों के लिए अतीत के कुछ वर्षों की चंद रूढि़वादी वृहद आर्थिक नीतियों ने ऐसा बचाव मुहैया कराया जिसने भारतीयों को महत्त्वपूर्ण अस्थिरता से बचा लिया। भारतीय रिजर्व बैंक ने बीते दो वर्षों में विदेशी मुद्रा भंडार में अतिरिक्त डॉलर की आवक को अलग किया जिससे बीते कुछ महीनों के दौरान रुपया विश्व स्तर पर सर्वाधिक स्थिर मुद्राओं में से एक बना रहा। इसी प्रकार मजबूत कर आवक के बावजूद राजकोषीय विस्तार न अपनाने के कारण खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम के विस्तार और उर्वरक सब्सिडी का विस्तार किया जा सका जबकि दुनिया भर में खाद्यान्न और उर्वरक महंगे हो रहे थे।
वित्त वर्ष 2021-22 में सकल कर केंद्र सरकार के संशोधित अनुमान की तुलना में करीब दो लाख करोड़ रुपये तक ज्यादा रहे। संशोधित अनुमान में नौ महीने के वास्तविक आंकड़े तथा तीन महीनों का अनुमान शामिल था। यानी सभी चौंकाने वाले सकारात्मक परिणाम तीन महीनों में आए। अप्रैल 2022 में मजबूत वस्तु एवं सेवा कर संग्रह दिखाता है कि यह निरंतर जारी है। इसका अर्थ यह है कि वित्त वर्ष 2023 में कर संग्रह का बजट अनुमान वित्त वर्ष 2022 के संग्रह से केवल दो फीसदी अधिक है। जीडीपी के हिस्से के रूप में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों कर (ईंधन पर लगने वाले उत्पाद शुल्क के अलावा) अब 2018 के स्तर पर हैं। जबकि कॉर्पोरेट कर दर और कोविड के कारण आई आर्थिक मंदी के कारण इसमें गिरावट आई थी। यदि अर्थव्यवस्था की नॉमिनल वृद्धि दर 11 फीसदी है तो वित्त वर्ष 2023 में सकल कर वर्तमान अनुमान से 2 लाख करोड़ रुपये तक अधिक हो सकते हैं। मुद्रास्फीति यकीनन करों को बढ़ा रही है लेकिन अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के कई अन्य कारक भी हैं। पहली बात, स्कूल और कार्यालयों तथा सीमाओं के खुलने के साथ ही व्यक्तिगत सेवा, शिक्षा, यात्रा एवं पर्यटन संबंधी रोजगार वापस आ रहे हैं। इनकी सेवा क्षेत्र के रोजगार में अहम हिस्सेदारी है।
दूसरा, राज्य सरकारें अब खर्च करना शुरू कर रही हैं। रिजर्व बैंक के साथ सरकार का नकदी संतुलन बीते तीन महीनों में कम हुआ है। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि उधारी कमतर रही, साथ ही उच्च व्यय भी इसकी वजह रहा। खुदी हुई सड़कें इसका उदाहरण हैं। इसके पीछे चाहे जो भी वजह हो यह एक तरह का वित्तीय प्रोत्साहन है और इससे रोजगार तैयार होते हैं।
तीसरा, विनिर्माण के मामले में भी तेजी दिख रही है। जैसा कि हमने इस स्तंभ में पहले भी कहा था, आवास क्षेत्र में ढांचागत दृष्टि से मजबूत मांग के बावजूद विनिर्माण पिछले एक दशक थे धीमा रहा क्योंकि बहुत बड़े पैमाने पर इन्वेंटरी तैयार थी। बीते दो महीनों में सीमेंट और स्टील की कीमतों में अचानक इजाफा हुआ है जिससे हाल के दिनों में विनिर्माण में धीमापन आया है लेकिन मांग में वृद्धि का अर्थ यह है कि इसमें दोबारा तेजी आएगी। चौथी बात, इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि कई क्षेत्रों के विनिर्माण में भारत की वैश्विक हिस्सेदारी बढ़ रही है। इससे मंदी और इन्वेंटरी के मामले में पड़े असर को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। पांचवां, सॉफ्टवेयर डेवलपरों के मामले में कारोबारी शर्तों में बदलाव भारत के हित में है। वेतन तथा नौकरी में इजाफा मौजूदा वृद्धि के लिए मददगार है।
व्यापक वृहद आर्थिक समायोजन आवश्यक है क्योंकि आगे चलकर खासतौर पर ईंधन कीमतें कुछ समय तक ऊंची बनी रह सकती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत को व्यापक भुगतान संतुलन के घाटे को दूर करना होगा।
कुछ लोग मानते हैं कि आरबीआई को विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल रुपये को डॉलर के मुकाबले स्थिर रखने के लिए करना चाहिए। यह उचित नहीं होगा। चीन या कोरिया के अर्जित विदेशी मुद्रा भंडार की तुलना में भारत अपना भंडार उधार के माध्यम से जमा करता है। यानी वह व्यापार अधिशेष नहीं बल्कि पूंजी की आवक की वजह से है। यह वापस भी जा सकता है। ऐसा रुझान यह मानता है कि अनिश्चितता जल्दी समाप्त होगी लेकिन हो सकता है ऐसा न हो। ऐसे में मुद्रा भंडार से भुगतान संतुलन की भरपायी करना समझदारी नहीं होगी।
धीमी वैश्विक अर्थव्यवस्था में भुगतान संतुलन घाटे को पाटने के लिए हम न तो तेज निर्यात वृद्धि पर यकीन कर सकते हैं, न ही अनिश्चितता और दरों में इजाफे के बीच हो रहे उच्च पूंजी प्रवाह पर। ऐसे में आयात में कमी करना होगी। उच्च ब्याज दरें शायद अधिक कठोर उपाय हो जाएंगी क्योंकि उनसे वे गतिविधियां भी प्रभावित होंगी जो निर्यात पर कम निर्भर हैं। देश में पूंजी की आवक भी दरों पर कम निर्भर है।
रुपये को कमजोर होने देना सबसे कम बुरा विकल्प होगा। चिंता यह भी है कि डॉलर के विरुद्ध विनिमय दर अगर मौजूदा दायरे से बाहर गई तो मुद्रा में अस्थिरता आ सकती है। आयातक भी जोखिम का बचाव कर सकते हैं और रुपये में गिरावट की आशंका से निर्यातक डॉलर की वापसी लंबित कर सकते हैं। इससे भुगतान संतुलन का दबाव बढ़ेगा।
हालांकि यह सब अस्थायी होगा और इस अस्थिरता से निपटने के लिए मुद्रा भंडार का इस्तेमाल उचित होगा। खासतौर पर यह देखते हुए कि ऐसी अस्थिरता के दौर में बाहर जाने वाली पूंजी लौट सकती है। अगर रुपये का अवमूल्यन होता है तो बढ़ती मुद्रास्फीति भी चिंता का एक विषय होगी। जब तक कीमतों में इजाफा नहीं होगा तब तक आयात के आकार में कमी नहीं आएगी। ऐसे में मुद्रास्फीति का बढऩा तय है। इससे कीमतों में अचानक तेज इजाफा होने की संभावना है। बाहरी मांग में कमी आने और वैश्विक अनिश्चितता के ऊंचा बने रहने की स्थिति में राजकोषीय संसाधनों का समझदारी से इस्तेमाल करना होगा। ऐसा करके ही आर्थिक गति को बरकरार रखा जा सकेगा।
(लेखक एपैक स्ट्रैटजी के सह-प्रमुख एवं क्रेडिट स्विस के इंडिया स्ट्रैटजिस्ट हैं)
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