असामान्य देरी | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / May 06, 2022 | | | | |
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के एक पूर्व गवर्नर ने अपने कार्यकाल की याद ताजा करते हुए एक बार मुझसे कहा था कि उनका एक नियम यह था कि बाजार को कभी नकारात्मक खबर देकर मत चौंकाओ। उन्होंने कहा कि सकारात्मक आश्चर्य दिया जा सकता है लेकिन अगर बुरी खबर हो तो बाजार को पहले से चेतावनी दी जानी चाहिए कि वह तैयार रहे। आरबीआई ने जिस प्रकार अचानक नीतिगत दरों में इजाफा किया (वह भी 25 आधार अंक के सामान्य इजाफे से ज्यादा) वह बाजार के लिए एक नकारात्मक आश्चर्य बनकर आया। भले ही लोग दरों में इजाफे की अपेक्षा कर रहे थे लेकिन इसके बावजूद यह नकारात्मक दृष्टि से चौंकाने वाला कदम था। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि मौद्रिक नीति समिति इस विषय पर एकमत थी। एक महीना पहले रीपो दर में बदलाव न करने पर भी सहमति थी। यह स्वाभाविक है। ऐसा लग रहा है कि रिजर्व बैंक अब मुद्रास्फीति से निपटने में गंवाये गए समय की भरपायी का प्रयास कर रहा है।
आरबीआई ने शायद खुदरा मुद्रास्फीति को 2 फीसदी के विचलन के साथ चार फीसदी के दायरे में रखने के अपने ही अनुदेश को गलत समझ लिया। इस अनुदेश के मुताबिक अगर मुद्रास्फीति 6 फीसदी की ऊपरी सीमा के आसपास हो तो भी कुछ करने की आवश्यकता नहीं थी। उस सीमा का अतिक्रमण करने के पहले मुद्रास्फीति लंबे समय तक उस स्तर के आसपास बनी रही। जब 6 फीसदी की सीमा पार हुई तो भी आरबीआई कहना था कि समस्या अल्पकालिक है।
परंतु मुद्रास्फीति का दबाव बढऩे पर ऐसा रुख 2-6 फीसदी के दायरे में रहने का न समय छोड़ता है और न ही गुंजाइश। समय की आवश्यकता है क्योंकि मौद्रिक नीति एक अंतराल के साथ काम करती है। अनुदेश को सही समझा जाता तो मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4 प्रतिशत था, न कि 6 प्रतिशत। ब्याज दर बढ़ाने का काम गत वर्ष शुरू करना चाहिए था।
आरबीआई से यह चूक क्यों हुई? वजह यह हो सकती है कि उसने सरकार के बैंकर की भूमिका को तरजीह दी और वित्त मंत्रालय को न्यूनतम लागत पर उधारी की सुविधा दिलाई। इस तरह मौद्रिक प्राधिकार की भूमिका द्वितीयक हो गई। चूंकि वित्त मंत्रालय वृद्धि को गति देने के लिए सरकारी व्यय बढ़ाने पर केंद्रित था इसलिए आरबीआई को भी वृद्धि के लक्ष्य को ही तरजीह देनी पड़ी। जबकि नियमत: यह उसका प्राथमिक काम नहीं है।
विधिक अनुदेश की प्राथमिकतों में इस बदलाव के कारण बचतकर्ताओं के लिए वास्तविक ब्याज दरें ऋणात्मक हो गईं। ऐसे में उन्होंने इक्विटी तथा अन्य बाजारों का रुख करना शुरू कर दिया ताकि उन्हें सकारात्मक प्रतिफल हासिल हो सके। इससे परिसंपत्तियों के दाम छद्म तरीके से बढ़े। ऐसे हालात में जैसा कि अक्सर होता है विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने बढ़ी कीमतों का लाभ उठाया और बाहर निकल गए जबकि खुदरा निवेशकों को कीमत चुकानी पड़ी।
लोग आरबीआई की विचार प्रक्रिया से असहमत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए यह कहा गया कि ईंधन और खाद्य पदार्थों मसलन खाद्य तेल आदि में आई महंगाई के बारे में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता था क्योंकि यह यूक्रेन युद्ध के कारण अचानक बढ़ी। परंतु युद्ध का अब तीसरा महीना चल रहा है और मौद्रिक नीति समिति की बैठक तब हुई थी जब युद्ध का माहौल बन रहा था, तेल कीमतें पहले ही बढ़ चुकी थीं। युद्ध शुरू होने के एक महीने बाद मौद्रिक नीति समिति की बैठक फिर हुई। ऐसे में उसकी निष्क्रियता को कैसे परिभाषित किया जाए?
एक और आकर्षण हो सकता है। हाल के वर्षों में सरकार का कुल कर्ज तेजी से बढ़कर जीडीपी का 90 प्रतिशत हो चुका है जबकि आदर्श स्थिति में इसे 60 प्रतिशत होना चाहिए। अगर ब्याज दरें बढ़ती हैं तो इस भारी-भरकम कर्ज की भरपायी महंगी हो जाती है। ऐसे में सरकार के लिए अन्य चीजों पर व्यय करना मुश्किल होता। ऐसे में मुद्रास्फीति को बढऩे दिया गया ताकि नॉमिनल जीडीपी मजबूत हो। जहां तक ऋण जीडीपी अनुपात की बात है तो वह राजकोषीय घाटे के अनुपात के साथ स्वत: नियंत्रण में आ जाता। अतिरिक्त सरकारी कर्ज से निपटने का यह पुराना उपाय है परंतु आरबीआई का अनुदेश इसका सीधा निषेध करता है।
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