अप्रैल 2022 में करीब 232.6 लाख परिवारों ने मनरेगा के तहत काम की मांग की है, जो पिछले साल की समान अवधि में इस योजना के तहत काम मांगने वालों की संख्या की तुलना में 11.15 प्रतिशत कम है। मनरेगा वेबसाइट पर उपलब्ध अनंतिम आंकड़ों से यह जानकारी मिली है। हालांकि आंकड़ों से पता चलता है कि हाथ से काम करने वाले अस्थायी कामगारों की ओर से इस योजना के तहत मांग कम हुई है और ग्रामीण इलाकों में काम के अवसर में सुधार हुआ है। लेकिन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि महामारी के पहले के वर्षों में योजना के तहत अप्रैल में काम की मांग की तुलना में अभी भी बड़ी संख्या में लोग मनरेगा के तहत रोजगार मांग रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे यह भी संकेत मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में आर्थिक गतिविधियां गैर कृषि क्षेत्र में सुधरी हैं, लेकिन अभी भी कोविड-19 महामारी के पहले के स्तर पर नहीं पहुंची हैं। अप्रैल 2021 में इस योजना के तहत 261.8 लाख लोगों ने काम की मांग की, जबकि अप्रैल 2020 में 134.1 लाख परिवारों ने काम की मांग की थी। अप्रैल 2020 में मांग के आंकड़ों की तुलना सख्ती से पहले के वर्षों से नहीं की जा सकती है क्योंकि कोविड-19 के पहले लॉकडाउन की वजह से इस महीने में कामकाज सामान्य नहीं था। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) के डायरेक्टर एस महेंद्र देव ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा, 'अप्रैल महीने में मनरेगा के तहत मांग में कमी की एक वजह हाथ से काम करने वाले अस्थायी श्रमिकों का ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर विस्थापन हो सकता है, क्योंकि होटलों, एयरलाइंस सहित सभी आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह से बहाल हो गई हैं। साथ ही कोविड-19 की चौथी लहर बहुत गंभीर नहीं रही, जिसकी वजह से अन्य क्षेत्रों में मांग तेज हो रही है।' उन्होंने कहा कि आने वाले महीनों में मनरेगा के तहत काम की मांग कम हो सकती है, लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी 200 लाख से ज्यादा परिवारों ने अप्रैल 2022 में योजना के तहत काम की मांग की है, जबकि महामारी के पहले 160 से 170 लाख परिवार काम मांगते थे। उन्होंने कहा कि इससे पता चलता है कि अभी भी स्थिति पहले के स्तर पर नहीं पहुंची है। लिबटेक इंडिया में रिसर्चर चक्रधर बुद्ध ने कहा कि काम की मांग के आंकड़े से यह हकीकत सामने आती है कि अभी भी हम ग्रामीण इलाकों में महामारी के पहले के सामान्य आर्थिक गतिविधियों के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। इसके साथ ही कुछ राज्यों में काम की मांग के तरीके, जहां मांग घटी है, से पता चलता है कि यह इसलिए नहीं है कि लोग काम नहीं चाहते, बल्कि इसकी कुछ अन्य वजहें हैं। इस पर नजदीकी से नजर रखे जाने की जरूरत है। लिबटेक इंडिया इंजीनियरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और समाज विज्ञानियों की एक टीम है, जो सूचना के अधिकार आंदोलन से प्रेरित है और ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक सेवाओं की डिलिवरी की सोशल ऑडिट के माध्यम से पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक गतिविधियों पर नजर रखती है। चक्रधर ने कहा, 'हमें काम की मांग के आंकड़ों का गंभीर विश्लेषण करने की जरूरत है और कुछ दिनों में इसे लेकर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे।' बहरहाल सामाजिक कार्यकर्ताओं व अन्य ने कहा है कि वित्त वर्ष 2023 में मनरेगा के लिए आवंटित बजट कुल मिलाकर अपर्याप्त है और इसकी वजह से काम की मांग कृत्रिम रूप से दब सकती है। उनका तर्क है कि योजना के लिए वित्त वर्ष 23 में 73,000 करोड़ रुपये आवंटन के बावजूद वास्तविक व्यय उल्लेखनीय रूप से कम (करीब 20,000 करोड़ रुपये) रह सकता है क्योंकि इसका इस्तेमाल पिछले वित्त वर्ष के बकाये के भुगतान के लिए होगा। वित्त वर्ष 22 में केंद्र ने मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये बजट रखा था, लेकिन लगातार काम की मांग तेज रहने के कारण साल के अंत तक व्यय बढ़कर 98,000 करोड़ रुपये हो गया। इसी तरह से वित्त वर्ष 21 को इस योजना के लिए उल्लेखनीय वर्ष माना गया है क्योंकि उलटी दिशा में श्रमिकों के विस्थापन की वजह से योजना के तहत काम के मांग में बहुत तेजी आई थी और कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद बड़ी संख्या में श्रमिक शहरों से गांवों की ओर गए थे। इस वित्त वर्ष में केंद्र सरकार ने मनरेगा पर 1,11,170 करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि इसके लिए बहुत कम बजट रखा गया था।
