ईंधन कर सुधार | |
संपादकीय / 05 03, 2022 | | | | |
गत सप्ताह राज्योंके मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि केंद्र सरकार ने गत वर्ष नवंबर में ईंधन पर लगने वाले उत्पाद शुल्क में कटौती की थी। उन्होंने यह संकेत भी दिया कि कुछ राज्यों ने अपने करों में इसके समतुल्य कटौती नहीं की। उन्होंने कई गैर भाजपा शासित राज्यों का अलग से जिक्र किया और कहा कि वे ईंधन पर लगने वाले मूल्यवर्धित कर में कमी करें। प्रधानमंत्री की यह बात इन राज्यों को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने इस वक्तव्य पर कई प्रश्न खड़े किए। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने हाल के वर्षों में ईंधन उत्पादन और कराधान से भारी लाभ अर्जित किया है और मोदी ने जिन राज्यों का जिक्र किया उनमें से कई राज्यों में बिना मूल्यवर्धित कर कम किए भी पड़ोस के भाजपा शासित राज्यों की तुलना में सस्ता पेट्रोल मिल रहा है। उदाहरण के लिए केरल के वित्त मंत्री ने कहा कि बीते वर्षों में जहां केंद्र सरकार ने ईंधन पर उत्पाद शुल्क कई बार बढ़ाया है, वहीं उनके राज्य ने ऐसा नहीं किया। यानी केरल से वह बढ़ोतरी वापस लेने को कहा जा रहा है जो उसने की ही नहीं।
इसके बावजूद ईंधन पर कराधान की समस्या गंभीर होती जा रही है और जब तक कर व्यवस्था की ढांचागत दिक्कतों को दूर नहीं किया जाएगा तब तक केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस विषय पर तनाव बढ़ता जाएगा। मूल गलती यह थी कि ईंधन करों को उस अप्रत्यक्ष कर सुधार में शामिल नहीं किया गया जिसकी परिणति वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत के रूप में सामने आई।
पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया। यानी न केवल उपभोक्ता इनपुट क्रेडिट के रूप में लाभ से वंचित हो रहे हैं बल्कि कर व्यवस्था में भी एकरूपता नहीं आ पाई। जीएसटी में साझेदारी का एक पूर्व निर्धारित फॉर्मूला है और इसलिए वहां सापेक्षिक कर दरों को लेकर ऐसी खींचतान नहीं होगी। इन असहमतियों के कारण ईंधन करों के राजनीतिकरण को बढ़ावा मिलता है जो न तो व्यापक अर्थव्यवस्था के हित में है और न ही संघीय नीति के सहज कामकाज के हित में। ऐसे में यह आवश्यक है कि ईंधन को जीएसटी के दायरे में लाने की योजना तैयार की जाए।
ऐसा करना ज्यादा सटीक होगा। ईंधन कीमतों को ऊंचा बनाए रखने की पर्याप्त वजह है। इससे जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने में मदद मिलती है और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्थानांतरण तेज होता है। राजकोषीय निहितार्थों की बात करें तो केंद्र और राज्य दोनों पर समुचित विचार करना होगा। परंतु ये मसले ऐसे नहीं हैं जिन्हें हल नहीं किया जा सके। निश्चित तौर पर दोनों समस्याओं को एक साथ हल किया जा सकता है। ईंधन को जीएसटी के दायरे में लाने का अर्थ होगा पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले सभी करों को कम करना होगा ताकि वे जीएसटी के दायरे के अनुरूप हो सकें। परंतु राजस्व समानता बरकरार रखने के लिए अतिरिक्त शुल्क लगाया जा सकता है ताकि जीएसटी दरों के कम होने के कारण होने वाली कमी की भरपायी की जा सके। इसे विशेष उत्पाद शुल्क का नाम दिया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के तहत इसे इसे कार्बन कर का नाम भी दिया जा सकता है। इससे भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से यह कहने का अवसर मिलेगा कि वह जलवायु परिवर्तन की प्रतिबद्धताएं निभाने के लिए काम कर रहा है। यह शायद सर्वोत्तम हल न हो लेकिन यकीनन यह वर्तमान स्थिति से तो बेहतर होगा। आदर्श स्थिति में कार्बन कर से आने वाला राजस्व सीधे कार्बन उत्सर्जन कम करने या परियोजनाओं को टिकाऊ बनाने में किया जाना चाहिए तथा उसे राज्यों से साझा किया जाना चाहिए। ऐसे में केंद्र और राज्यों के बीच विवाद का एक बड़ा विषय दूर हो जाएगा।
|