सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस दिया है कि वह तीन दिन के भीतर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत आने वाले राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं का उत्तर दे। इससे यह आशा जगी है कि अंतत: यह कानून समाप्त कर दिया जाएगा। इस कानून का केंद्र और राज्यों की सरकारों ने जमकर दुरुपयोग किया है और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गत वर्ष जून में जी-7 देशों के आयोजन में दिए गए भाषण के विपरीत है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'भारत लोकतंत्र, विचारों की स्वतंत्रता और आजादी को लेकर प्रतिबद्ध देश है'। इसके बाद मोदी ने मुक्त समाज संबंधी एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें कहा गया है कि उस पर हस्ताक्षर करने वाले ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में रहेंगे। यह सार्वजनिक रुख उस बात के विपरीत है जिसके तहत सरकार की आलोचना करने वालों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसमें पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार और छात्र सभी शामिल हैं। इतना ही नहीं सरकार ने अनगिनत अवसरों पर इंटरनेट भी बंद कराया है। धारा 124ए को समाप्त करके सर्वोच्च न्यायालय सरकार की मदद ही करेगी क्योंकि इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं तथा घरेलू व्यवहार के बीच की विसंगति दूर होगी। इस कानून को समाप्त करने के लिए विधिक हलकों में भी मांग तेजी से बढ़ी है। उदाहरण के लिए गत वर्ष फरवरी में दिल्ली की एक अदालत ने कहा था कि राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल उपद्रवियों को शांत करने के बहाने से आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं किया जा सकता। बाद में प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने सरकार के विधिक प्रतिनिधि से पूछा था कि एक औपनिवेशिक कानून जिसका इस्तेमाल लोगों को दंडित करने के लिए किया जाता था, उसे आजादी के 75 वर्ष बाद भी क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस मामले की अंतिम सुनवायी 5 मई को होगी। इससे यही संकेत मिलता है कि न्यायमूर्ति रमण इस विवादित मुद्दे को समाप्त करना चाहते हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत का रुख अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायतियों के लिए आशा जगाने वाला है। परंतु एक तथ्य यह भी है कि सरकार ने याचिकाएं दायर होने के नौ महीने बाद भी अपना जवाब दाखिल नहीं किया है। ऐसे में संभव है कि सरकार के विचार अदालत से मेल न खा रहे हों। गत वर्ष दिसंबर में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि गृह मंत्रालय की ओर से धारा 124ए को समाप्त करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। इस कानून को समाप्त करने की तात्कालिक आवश्यकता इसलिए उपजी है कि राजनेताओं और सुरक्षा एजेंसियों ने धारा 124ए को लेकर केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 60 वर्ष पुराने ऐतिहासिक निर्णय की मनमानी व्याख्या की है। उस फैसले में न्यायालय ने धारा 124ए की वैधता को कायम रखते हुए कहा था कि उसका इस्तेमाल केवल तभी किया जाना चाहिए जब मकसद सरकार या देश के प्रति हिंसा भड़काना हो। परंतु इस फैसले के और अधिक स्पष्ट न होने के कारण सरकार इसकी व्यापक व्याख्या करके उसे इस्तेमाल करती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा करना आसन है क्योंकि यहां जनता की नाराजगी किसी भी समय सामने आ सकती है और वक्तव्यों के बगावती असर को मनचाहे ढंग से आंका जा सकता है। आम भारतीयों की आजादी को दो अन्य खतरे हैं विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) तथा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून। इनका भी सरकार के विरोधियों को चुप कराने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इन दोनों की तत्काल समीक्षा की आवश्यकता है। ऐसे में धारा 124ए को समाप्त करने से अच्छी नजीर पेश होगी और भारत मुक्त समाज की प्रतिबद्धताओं के अनुरूप बनेगा।
